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नीतियों में सुधार से ही तैयार होंगे रोजगार

अगर नीतियां सही हैं और वांछित तकनीक भी बेहतर है तो श्रम आधारित तरीके की तरफ रुख होने से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि थोड़ी घट सकती है।

Last Updated- January 14, 2024 | 9:06 PM IST
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डेविड कैरेडाइन ने ठीक ही कहा है, ‘एक विकल्प होता है। एक तीसरा तरीका भी होता है और यह अन्य दो तरीकों का मिला-जुला रूप नहीं होता है। यह बिल्कुल अलग होता है।’ भारत सरकार आर्थिक विकास और रोजगार सृजन के लिए सक्रियता से स्टार्टअप को बढ़ावा दे रही है और बुनियादी ढांचे पर भारी खर्च करने के अलावा विनिर्माण को प्रोत्साहन देने पर भारी खर्च कर रही है। हालांकि, इन नीतियों का भारी बेरोजगारी, व्यापक स्तर पर कम रोजगार और ‘स्वैच्छिक’ तौर पर कम श्रम बल भागीदारी जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा है।

कुछ आलोचक भारत की वृद्धि के लिए सेवा क्षेत्र पर अधिक ध्यान देने की वकालत करते हैं। हालांकि अन्य लोग विनिर्माण और सेवा क्षेत्र दोनों पर जोर देने की बात करते हैं। हालांकि इस लेख का मुद्दा इस बहस में नहीं जाना है। इसमें एक अलग नजरिये से बात करने की कोशिश होगी।

हम सबसे पहले सिद्धांतों की बात करते हैं। भारत में बड़ी मात्रा में श्रम शक्ति उपलब्ध है। ऐसे में सबसे बेहतर तरीका है कि कुछ क्षेत्रों में पूंजी लगने वाले तरीकों यानी वांछित मशीनों का इस्तेमाल हो लेकिन ज्यादातर क्षेत्रों में श्रमिकों की जरूरत वाली तकनीक पर अमल किया जाए। इस तरीके से बेरोजगारी कम होनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। इसका कारण क्या है?

कई मामलों में ऐसे कई सूक्ष्म, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नीतिगत कारक हैं जिनका रोजगार सृजन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। हर मामले का गहन विश्लेषण करने पर यह समझने में मदद मिल सकती है कि वास्तव में कौन सी मौजूदा नीति अनजाने में बेरोजगारी बढ़ाने में योगदान दे रही है। अगर पूरे धैर्य से ‘छोटे’ स्तर पर नीतिगत सुधार की एक लंबी श्रृंखला शुरू की जाए तो हम रोजगार बढ़ा सकते हैं और यह विशेष रूप से गरीब परिवारों के लिए उपयोगी हैं। इसको लेकर कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए।

अगर नीतियां सही हैं और वांछित तकनीक भी बेहतर है तो श्रम आधारित तरीके की तरफ रुख होने से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि थोड़ी घट सकती है। लेकिन, अगर नीतिगत ढांचा सही नहीं हैं और यह पूंजी लगाकर मशीनों वाले काम को प्रोत्साहित करता है तब श्रम-साध्य तकनीक में सुधार से जीडीपी में कमी नहीं आती है बल्कि इससे जीडीपी बढ़ सकती है।

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उदाहरण के तौर पर हम ऑटोमेटेड टेलर मशीन (एटीएम) का एक मामला लेते हैं। इन मशीनों में काफी पूंजी लगती हैं। ये विकसित अर्थव्यवस्थाओं के लिए काफी उपयोगी हैं लेकिन भारत में इन पर पुनर्विचार करना सार्थक हो सकता है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम कंप्यूटर, हवाई जहाज और अल्ट्रासाउंड मशीनों जैसी अन्य तरह की मशीनों पर सवाल उठा रहे हैं। बिलकुल नहीं। लेकिन एटीएम उनसे अलग हैं।

भारत में नकदी की अहमियत को देखते हुए एटीएम का इस्तेमाल समझ में आता है। हालांकि, इसके अन्य समाधान भी हैं। बैंक ज्यादा कर्मचारियों को नियुक्त कर सकते हैं, लेकिन यह निश्चित रूप से काफी महंगा साबित होगा। एक वैकल्पिक तरीका यह है कि बैंक स्थानीय किराना दुकानों, मेडिकल स्टोर, पेट्रोल पंपों आदि के साथ मिलकर ‘माइक्रो-एटीएम’ की व्यवस्था करें। ये छोटे और बेहद किफायती माइक्रो-एटीएम सत्यापन और रिकॉर्डिंग के इस्तेमाल के लिए होते हैं जबकि नकदी लेन-देन का प्रबंधन स्टोर करते हैं।

हालांकि माइक्रो-एटीएम और ऐसे दूसरे विकल्प काफी समय से मौजूद हैं लेकिन वे उतने लोकप्रिय नहीं हो पाए हैं। एटीएम की अहमियत अब भी बरकरार है। आखिर ऐसा क्यों है? एटीएम का व्यापक इस्तेमाल सिर्फ उनकी सुविधा के कारण नहीं बल्कि इस वजह से भी होता है क्योंकि ये कमोबेश ‘मुफ्त’ इस्तेमाल किए जा सकते हैं।

हालांकि, बैंक जमाओं पर कम ब्याज देकर इस सुविधा का शुल्क अप्रत्यक्ष रूप से वसूल लेते हैं। कई बार ये अहसास भी नहीं होता कि असल में मुद्रास्फीति के दबाव में ब्याज दरें नकारात्मक भी हो सकती हैं। ऐसे में एटीएम (और अन्य सुविधाओं) की बढ़ती मांग का एक कारण बैंकों की पारदर्शिता में कमी है।

मौजूदा नीतिगत ढांचे के कारण ही एटीएम की मांग है। इस नीतिगत प्रारूप में मुद्रास्फीति नीति और बैंकों को सुविधाओं के लिए अप्रत्यक्ष रूप से शुल्क वसूलने देने की नीति भी शामिल है। इसका समाधान स्पष्ट है। भले ही मुद्रास्फीति नीति बरकरार रहे लेकिन ऐसी नीति बनाना फायदेमंद होगा जिसमें बैंक जमा राशि पर ब्याज दर बढ़ाएं और दी जाने वाली विभिन्न सुविधाओं के लिए स्पष्ट रूप से शुल्क लें। ऐसे में मुमकिन है कि कीमत को लेकर सजग कई भारतीय उपभोक्ता तब एटीएम का विकल्प नहीं चुनेंगे। हालांकि इस सुझाई गई नीति का अर्थ यह नहीं है कि एटीएम पर प्रतिबंध लगा दिया जाए बल्कि कुछ स्थानों पर एटीएम की अत्यधिक मौजूदगी को कम करना है।

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अगर नीतियां अलग होतीं और एटीएम के इस्तेमाल के लिए सीधे शुल्क का प्रावधान किया गया होता तब इन एटीएम की मांग कम हो जाती और अगर बैंकों ने एटीएम में कम निवेश किया होता तब वे कहीं और निवेश कर सकते थे या ऋण दे सकते थे। । उदाहरण के तौर पर बैंक सीधे या परोक्ष रूप से सिलाई मशीनों की खरीद के लिए ही धन दे सकते थे।

इसकी एक बेहद सरल गणना कुछ इस तरह की जा सकती है। अगर 2,50,000 एटीएम में से 1,50,000 ‘गैर-जरूरी’ हैं और एक एटीएम की कीमत जहां 4,00,000 रुपये है वहीं एक सिलाई मशीन की कीमत 8,000 रुपये है। ऐसे में एक व्यक्ति एक सिलाई मशीन पर काम कर रोजगार शुरू कर सकता है और तब इसके माध्यम से 75 लाख रोजगार के मौके तैयार हो सकते हैं।

इस मामले में सिलाई मशीनों से जुड़े अतिरिक्त रोजगार, उन ‘गैर-जरूरी’ 1,50,000 एटीएम की जगह लेने वाले माइक्रो-एटीएम से मिलने वाले अतिरिक्त शुद्ध रोजगार से ज्यादा हैं। लेकिन मुद्दा इससे भी व्यापक हो सकता है। एटीएम से माइक्रो-एटीएम और फिर इस रकम का सिलाई मशीन की तरफ मुड़ना सिर्फ एक उदाहरण भर है! लेकिन ऐसे और भी कई उदाहरण मिल सकते हैं।

सीमित पूंजी का बेहतर इस्तेमाल करना, दरअसल श्रम-प्रधान तकनीकों और अधिक रोजगार की दिशा में किया जाने वाला सुधार ही है। इससे भारत पिछड़ेगा नहीं बल्कि आर्थिक पहलू के लिहाज से भी यही बात जरूरी है। सुझाए गए समाधान सार्वजनिक पूंजी नहीं बल्कि सार्वजनिक नीतियों के जरिये ही बताए गए हैं।

(लेखक स्वतंत्र अर्थशास्त्री हैं। वह अशोक विश्वविद्यालय, आईएसआई (दिल्ली) और जेएनयू में अध्यापन से जुड़े हैं)

First Published - January 14, 2024 | 9:06 PM IST

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