ग्लोबल साउथ (विकासशील या अल्पविकसित देशों का समूह) जुमले का पहला इस्तेमाल कार्ल ऑग्लेस्बी ने कॉमनवील नामक पत्रिका के सन 1969 के विशेष अंक में किया था जो वियतनाम युद्ध पर केंद्रित था। इसे सन 1980 में जर्मनी के पूर्व चांसलर विली ब्रांड की रिपोर्ट ‘नॉर्थ साउथ: अ प्रोग्राम फॉर सरवाइवल’ से ख्याति मिली।
इस रिपोर्ट में उत्तर और दक्षिण (उन्होंने दुनिया के मानचित्र पर एक रेखा खींचकर दोनों को अलग-अलग दर्शाया) के जीवन स्तर में भारी अंतर को रेखांकित किया और जोर देकर कहा कि उत्तर के अमीर देशों (अमेरिका, यूरोप और जापान आदि) को दक्षिण के गरीब देशों को अधिकाधिक संसाधन देने चाहिए। उन्होंने उत्तर में संरक्षणवाद कम करने की भी वकालत की ताकि इस अंतर को पाटा जा सके या कम किया जा सके।
बीते 40 वर्षों में इस जुमले का प्रयोग बहुत बढ़ गया है और यह विकासशील देशों का पर्याय बन गया है। ध्यान देने वाली बात है कि दिल्ली में सितंबर 2023 में भारत की अध्यक्षता में जी20 देशों के सफल शिखर सम्मेलन के बाद इसे और अधिक लोकप्रियता मिली है। इस शिखर बैठक में चुनौतीपूर्ण हालात में विकास आधारित घोषणा तैयार की गई और यह सुनिश्चित किया गया कि अफ्रीकी यूनियन को जी20 का स्थायी सदस्य बनाया जाए।
आज की दुनिया में ग्लोबल साउथ में कौन से देश शामिल हैं और उनकी परिस्थितियां, उनके विकास के चरण, आकांक्षाएं और हित कितने अलग-अलग हैं? तमाम अन्य मिश्रित शब्दों की तरह ही इस समूह का व्यापक स्वीकार्य घटक भी समय और संदर्भ के मुताबिक बदलता रहता है।
उदाहरण के लिए सन 1960 के दशक में संयुक्त राष्ट्र के संदर्भ में इसे जी77 कहा जाता था। इस समय करीब 120-130 देशों को आसानी से ग्लोबल साउथ का हिस्सा माना जा सकता है। चीन खुद को ग्लोबल साउथ के देशों का नेता मानता है लेकिन भारत (वह भी खुद को नेता मानता है) के उलट उसे आर्थिक महाशक्ति माना जाता है जो उन अंतरराष्ट्रीय व्यापार और वित्तीय ढांचों में बुरी तरह उलझा हुआ है जिन्हें दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ग्लोबल नॉर्थ के देशों ने तैयार किया था।
शायद इससे जुड़े बुनियादी सवाल का उत्तर हासिल करने का सबसे बेहतर तरीका यह है कि ग्लोबल साउथ के देशों में से ज्यादातर की आबादी और प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों पर नजर डाली जाए। हमने ग्लोबल साउथ के सर्वाधिक आबादी वाले 50 देशों पर नजर डाली जिनकी आबादी दो करोड़ से अधिक है। ये देश एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के हैं। इन देशों पर नजर डालने से ग्लोबल साउथ के देशों के कुछ गुणधर्म सामने आते हैं:
इसमें कजाकस्तान और सऊदी अरब जैसे दो तेल निर्यातक देश शामिल हैं। बड़े अफ्रीकी देशों में से तीन इथियोपिया, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो तथा सूडान में खूनी नागरिक संघर्षों का लंबा इतिहास रहा है जिसने उनके विकास पर नकारात्मक असर डाला है।
नागरिक संघर्षों ने चार एशियाई देशों- सीरिया, इराक, यमन और म्यांमार के विकास को भी बुरी तरह प्रभावित किया लेकिन वे कम आबादी वाले एशियाई देशों में आते हैं। इनमें से तीन देश पश्चिम एशिया के उस इलाके से आते हैं जो निरंतर युद्ध से घिरा रहा है।
ग्लोबल साउथ ने वैश्विक मामलों और स्वयं की प्रगति को किस हद तक और किस तरह प्रभावित किया है? जाहिर सी बात है कि इस मामले में उनकी प्रगति अपेक्षा से बहुत कम रही है। ग्लोबल नॉर्थ में ताकत, संपत्ति और तकनीकी उन्नति को देखते हुए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं लगती। बहरहाल, बीते 70 से अधिक वर्षों में कुछ अहम प्रगति भी हुई है। ऐसा दो अलग-अलग माध्यमों से हुआ है। पहला है अमीर देशों द्वारा निर्मित अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के साथ गठबंधन करके:
उदाहरण के लिए बहुपक्षीय विकास बैंक, आईएमएफ, गैट/ डब्ल्यूटीओ और संयुक्त राष्ट्र की विशिष्ट एजेंसियां। दूसरा सीमित सदस्यता वाले संस्थान मसलन ओपेक, आसियान, ऑर्गेनाइजेशन ऑफ अमेरिकन स्टेट्स और अफ्रीकी यूनियन आदि। इनमें पहला संगठन यानी ओपेक सबसे अधिक प्रभावी रहा है। उसने सन 1970 के दशक से ही सदस्य देशों के हितों को आगे बढ़ाया है लेकिन उसने ऐसा तेल आयातक देशों की कीमत पर किया है। इसमें ग्लोबल साउथ के ढेर सारे देश भी शामिल हैं।
ग्लोबल साउथ के देशों का ऐसा कोई संगठन नहीं है जिसके पास अपना मजबूत सचिवालय हो तथा जिसकी तुलना अमीर देशों के संगठन ओईसीडी से की जा सके। साफ कहा जाए तो ग्लोबल साउथ अभी भी विकासशील देशों का पर्यायवाची ही है।
(लेखक इक्रियर के मानद प्राध्यापक और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)