भारत में अवसरों का भूगोल धीरे-धीरे बदल रहा है। देश के मझोले शहर, भारत की शहरी और आर्थिक विस्तार की अगली लहर के केंद्र बिंदु के रूप में तेजी से उभर रहे हैं। कई दशकों तक, देश की आर्थिक विकास गाथा को बड़े शहरों ने एक स्वरूप दिया है और उसे प्रतीकात्मक तौर पर दर्शाया है। मुंबई, दिल्ली, बेंगलूरु और हैदराबाद जैसे महानगर पूंजी, प्रतिभाओं और बुनियादी ढांचे में निवेश के लिए आकर्षण का केंद्र बन गए और अब ये महानगर ही वाणिज्य और नवाचार को बढ़ावा देने वाले अहम केंद्र भी हैं।
फिर भी इस शहरी केंद्रीकरण की एक कीमत चुकानी पड़ी है जो भीड़भाड़ वाली सड़कें, महंगे घर, आवश्यकता से अधिक इस्तेमाल की गई सार्वजनिक सेवाएं, हवा की खराब होती गुणवत्ता, इन उभरते केंद्रों में मौजूद लोगों के जीवन की परिभाषित विशेषता बन गई है। हालांकि अब इन परिस्थितियों में बदलाव आना शुरू हो गया है।
रैंडस्टैड टैलेंट इनसाइट्स रिपोर्ट 2025 के ताजा आंकड़े से अंदाजा मिलता है कि रोजगार सृजन में निर्णायक बाहरी बदलाव हो रहे हैं। सितंबर 2024 और फरवरी 2025 के बीच, मझोले शहरों में नौकरियों के मौके में 42 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई जो बड़े शहरों और महानगरों में देखी गई 19 फीसदी की वृद्धि की दोगुनी से भी अधिक है। इस तेजी में कोई असामान्य बात नहीं दिखती है बल्कि यह बैंकिंग और वित्तीय सेवाओं, विनिर्माण, सूचना प्रौद्योगिकी, खुदरा और स्वास्थ्य सेवा जैसे प्रमुख क्षेत्रों में व्यापक संरचनात्मक बदलावों का परिणाम है।
जैसे-जैसे आर्थिक गतिविधि पारंपरिक शहरी केंद्रों से इतर अन्य क्षेत्रों में बढ़ती है तब इसके कारण बेहतर विचार के साथ ही सुनियोजित शहरी योजना के लिए भी मौके तैयार होते हैं। चंडीगढ़, वडोदरा, गांधीनगर, भुवनेश्वर और औरंगाबाद जैसे मझोले शहर जो कभी प्रमुख विकास केंद्रों या मुख्य बाजार से जुड़े हुए शहर रहे हैं वे भी अब न केवल उन प्रमुख केंद्रों से बराबरी कर रहे हैं बल्कि कुछ क्षेत्रों में आगे भी निकल रहे हैं। उदाहरण के तौर पर वडोदरा ने ऊर्जा और उपयोगिताओं, औषधि और ऑटोमोटिव क्षेत्रों में मजबूत वृद्धि दर्ज की है। यह बदलाव आर्थिक आवश्यकता, डिजिटल बुनियादी ढांचे और कंपनियों की व्यावहारिकता के मिले-जुले कारकों से प्रेरित है।
कंपनियां अब वास्तव में भीड़भाड़ वाले महानगरों के बाहर अपनी संचालन लागत और लाभ के पहलू को पहचान रही हैं। काम के हाइब्रिड मॉडल, ब्रॉडबैंड तक बेहतर पहुंच और शहरी-ग्रामीण क्षेत्रों में तकनीकी पहुंच में अंतर कम होने जैसे कारकों ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। अहम बात यह है कि भारत के मझोले शहरों में कार्यबल का बढ़ता दायरा खुद को कुशल और महत्त्वाकांक्षी साबित कर रहा है। रियल एस्टेट बाजार भी अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है। प्रमुख महानगरों में जमीन भी अब दुर्लभ और महंगी हो गई है, ऐसे में अब डेवलपर और निवेशक छोटे शहरों पर अपनी नजर गड़ाए हुए हैं।
भारत में आवास की मांग 2036 तक 9.3 करोड़ यूनिट तक पहुंचने का अनुमान है और इनमें से ज्यादातर मांग मझोले और छोटे शहरों से बनेंगी जहां सस्ती जमीन आसानी से उपलब्ध है। रियल एस्टेट इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट के बढ़ने से पारंपरिक शहरों के बाहर भी वाणिज्यिक एवं आवासीय विकास दिलचस्पी बढ़ी है। छोटे शहरों में आवाजाही की गतिविधियों के बुनियादी ढांचे में विस्तार हो रहा है।
देश के 29 शहरों में मेट्रो और रैपिड ट्रांजिट नेटवर्क या तो संचालित हो रहे हैं या अभी निर्माणाधीन हैं जिनका दायरा लगभग 2000 किलोमीटर तक फैला हुआ है। इस तक की नेटवर्क प्रणाली शहरी घनत्व को थोड़ा कम करने और जिन शहरी केंद्रों पर बोझ ज्यादा बढ़ रहा है उनका दबाव कम करने में मददगार साबित हो रही हैं। इस तरह की कनेक्टिविटी बेहद अहम है क्योंकि यह न केवल मझोले शहरों को अधिक रहने लायक बनाती हैं बल्कि यह इन्हें व्यापक क्षेत्रीय आर्थिक गलियारे से भी जोड़ती हैं।
इस तरह का विकेंद्रीकरण स्वचालित तरीके से संतुलित विकास में नहीं तब्दील होता है। अगर गौर किया जाए तो भारत के महानगर चेतावनी के संकेत की गाथा समेटे हुए हैं। जहां एक तरफ वायु प्रदूषण और यातायात के बोझ से दिल्ली का दम घुट रहा है वहीं चेन्नई और बेंगलूरु लगातार पानी के संकट का सामना कर रहे हैं। यहां तक कि पुणे ने वर्ष 2013 और 2022 के बीच शहरी क्षेत्रों के फैलाव और कुप्रबंधित विकास के कारण कार्बन सोखने की अपनी 34 फीसदी क्षमता खो दी।
ये फलते-फूलते महानगर अक्सर अपने ही बोझ के तले दब रहे हैं। इन गलतियों को दोहराने से बचने के लिए मझोले शहरों को किसी प्रतिक्रिया के तहत नहीं बल्कि सोच-समझकर विकास पर जोर देना चाहिए। बुनियादी ढांचे को न केवल मांग के साथ सामंजस्य बिठाना चाहिए बल्कि इसका पूर्वानुमान भी लगाना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि एकीकृत शहरी परिवहन, हरित क्षेत्रों को सुरक्षित रखने वाले क्षेत्र और डेटा के आधार पर शहर की योजना बनाने पर जोर दिया जाए।
भारत के पास शहरी विकास की योजनाएं पहले के मुकाबले काफी बेहतर है। स्मार्ट सिटी मिशन, अमृत और शहरी बुनियादी ढांचा विकास निधि जैसी योजनाएं शहरों को रहने लायक बनाने और भविष्य की चुनौतियों के अनुरूप ढलने के लिए डिजाइन की गई हैं। वर्ष 2025 की शुरुआत तक स्मार्ट सिटीज मिशन ने 1.5 लाख करोड़ रुपये की 7,479 परियोजनाएं पूरी कर ली थीं जिनमें 1,700 किलोमीटर से अधिक स्मार्ट सड़कें, 9,400 वाई-फाई हॉटस्पॉट और 100 शहरों में 35,000 से अधिक किफायती आवासीय इकाइयां हैं। हालांकि छोटे नगर निकायों में क्रियान्वयन असमान बना हुआ है।
शहरी स्थानीय निकायों के स्तर पर क्षमता निर्माण सबसे महत्त्वपूर्ण जरूरतों में से एक है। मझोले शहरों के नगर निकायों के पास अक्सर अपनी सोच को हकीकत में बदलने के लिए पर्याप्त वित्तीय साधन और मानव संसाधन नहीं होते हैं। स्थायी विकास के लिए, इन शहरों को केवल फंडिंग ही नहीं बल्कि संस्थागत सुधार, डिजिटल शासन प्रणाली, विश्वसनीय नियामकीय ढांचा तैयार करने और सार्वजनिक प्रशासन में प्रतिभाशाली लोगों को आकर्षित करने व बनाए रखने की क्षमता भी आवश्यक है। बुनियादी ढांचे से हटकर, मझोले शहरों को नियमन और नवाचार से जुड़ी अपनी सोच भी विकसित करनी होगी।
जैसे-जैसे छोटे शहरों में वित्तीय प्रौद्योगिकी और लॉजिस्टिक्स जैसे क्षेत्रों में नौकरियां बढ़ रही हैं ऐसे में नियामक लचीलापन बहुत अहम होगा।
यही कारण है कि इस बदलाव को केवल रोजगार और भर्ती के आंकड़ों के रूप में नहीं बल्कि एक संरचनात्मक शहरी परिवर्तन के रूप में देखने का समय आ गया है। भारत के पास एक अनोखा अवसर है।
यह शहरीकरण, डिजिटलीकरण और विकेंद्रीकरण तीनों एक साथ कर रहा है। इनमें से हरेक पहलू एक-दूसरे को मजबूत कर सकती है बशर्ते सही संस्थान, प्रोत्साहन और ढांचे मौजूद हों। इसके लिए कुछ मुश्किल सुधारों की जरूरत होगी: शहरी स्थानीय निकाय को वित्तीय स्वायत्तता देना, लागू करने योग्य भवन कानून बनाना, भूमि-उपयोग और परिवहन से जुड़ी योजना को एक साथ जोड़ना, शहरों की सफलता को मापने के तरीके पर फिर से सोचने जैसी कवायद शामिल है।
अब रोजगार सृजन, हवा की गुणवत्ता, आने-जाने का समय और सार्वजनिक सेवाओं की उपलब्धता जैसे मापदंडों को निर्माण की तादाद या सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि से अधिक प्राथमिकता मिलनी चाहिए। फिलहाल, संकेत आशाजनक हैं। कंपनियां छोटे शहरों में निवेश करने को तैयार हैं और प्रतिभाशाली लोग वहां रुकने के लिए भी तैयार हैं। लेकिन अगर शासन मॉडल आर्थिक बदलाव की गति से मेल नहीं खाता तब ये सभी ये लाभ निरर्थक साबित हो सकते हैं।
(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कंपेटटिवनेस के चेयरमैन हैं। लेख में मीनाक्षी अजित का भी योगदान)