किसी देश की दीर्घकालिक वृद्धि और विकास पर इस बात का बड़ा असर होता है कि वह अपने वित्त को कैसे संभालता है। भारत फिलहाल विकास के जिस दौर में है वहां सामाजिक और भौतिक बुनियादी ढांचे समेत विभिन्न पक्षों में सरकारी सहायता आवश्यक है। किंतु बजट की किल्लत है और सरकार को दूसरी जरूरतें भी पूरी करनी हैं। इनमें उसके अपने कामकाज का खर्च भी शामिल है और संतुलन बनाए रखना बहुत जरूरी है। यह भी जरूरी है कि बजट संतुलित हो और अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए सरकार उधारी पर बहुत अधिक निर्भर नहीं हो। इस बारे में भारतीय रिजर्व बैंक के हालिया मासिक बुलेटिन में उसके अर्थशास्त्रियों का नया शोध आलेख उल्लेखनीय है। इस आलेख में 1991 से अब तक केंद्र तथा राज्य स्तर पर सरकारी व्यय की गुणवत्ता मापी गई है और बताया गया है कि इसमें कितना अधिक सुधार हुआ है।
सार्वजनिक व्यय की गुणवत्ता को देखने के कई तरीके हैं, लेकिन दो प्रमुख तरीके हैं – सरकार द्वारा खर्च की गई पूंजी की मात्रा और राजस्व व्यय तथा पूंजीगत व्यय का अनुपात, जिसे ‘रेको’ अनुपात भी कहा जाता है। पूंजीगत व्यय में इजाफे से समूचा निवेश बढ़ता है। इससे समय के साथ बेहतर वृद्धि परिणाम दिखते हैं। पूंजीगत व्यय का कई स्थानों पर कई गुना प्रभाव होता है, जिसे मल्टीप्लायर इफेक्ट कहते हैं। यह प्रभाव राजस्व व्यय से अधिक होता है और लंबे समय तक बना रहता है। पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देने से वृद्धि टिकाऊ बनी रहती है। यह बात सभी जानते हैं मगर सरकार के लिए हमेशा पूंजीगत व्यय बढ़ाना आसान नहीं होता क्योंकि उसकी भी सीमाएं होती हैं। आर्थिक सुधार के आरंभिक वर्षों की बात करें तो में केंद्र सरकार का पूंजीगत व्यय 1991-92 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.7 फीसदी था मगर 1995-96 में घटकर 1.2 फीसदी रह गया। व्यय को काबू करने के तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी अच्छी-खासी रकम ब्याज चुकाने में ही जाती रही। जब तक राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन के नियम लागू नहीं हुए पूंजीगत व्यय कम ही रहा।
राजकोषीय सुधार से हालात बदले और केंद्र का जो पूंजीगत व्यय 2003-04 में जीडीपी का 1.2 फीसदी था वह 2007-08 तक बढ़कर 2.2 फीसदी हो गया। रेको अनुपात भी तेजी से घटा। राज्यों का पूंजीगत व्यय भी इस दौरान बढ़ गया। इसके बाद पूरा ध्यान 2008 के वित्तीय संकट से मिले झटके से निपटने में लग गया। 2013-14 से 2019-20 के बीच केंद्र का पूंजीगत व्यय 1.3 फीसदी से 1.6 फीसदी के बीच रहा। कोविड-19 महामारी के बाद पूरा ध्यान पूंजीगत व्यय पर आ गया। पूंजीगत व्यय बढ़ने से देश की अर्थव्यवस्था को महामारी के बाद मची उथलपुथल से निपटने में मदद मिली। 2024-25 के बजट अनुमान देखें तो पूंजीगत संपत्तियां तैयार करने के लिए अनुदान सहायता समेत केंद्र का प्रभावी पूंजीगत व्यय 4.6 प्रतिशत रहा। अध्ययन में यह भी पता चला कि राज्य स्तर पर व्यय की गुणवत्ता से स्वास्थ्य एवं शिक्षा में सकारात्मक परिणाम मिलते हैं।
हाल के वर्षों में व्यय की गुणवत्ता तो सुधरी है मगर राजकोषीय प्रबंधन पर चिंता होने लगी है, जिसे दूर करना जरूरी है। मसलन सरकार पर ऋण अधिक है। ऐसे में पूंजीगत व्यय की रफ्तार बनाए रखने के लिए सरकार को राजस्व संग्रह बढ़ाना होगा। वस्तु एवं सेवा कर की दरों को वाजिब बनाना एक तरीका हो सकता है। कई वर्षों तक उच्च पूंजीगत व्यय के बावजूद निजी निवेश सुस्त बना हुआ है। सरकार इन चिंताओं को दूर करे तो कारोबारी भरोसा बढ़ाने के लिहाज से अच्छा होगा। निजी निवेश में बढ़ावे से भी सरकारी वित्त पर दबाव कम होगा। अंत में राजनीतिक कारणों से विशेष तौर पर लोकलुभावन योजनाओं का चलन चिंताजनक है और इससे राजकोषीय बढ़त गंवाने का खतरा है। भारत को यह समस्या दूर करने के लिए व्यापक राजनीतिक सहमति बनाने की जरूरत है।