सरकार ने हाल के वर्षों में कहा है कि भारत व्यापार और आर्थिक एकीकरण को लेकर समझदारी भरा रुख अपना रहा है। उसने मौजूदा मुक्त व्यापार समझौतों का बेहतर इस्तेमाल करने का प्रयास किया है और ऐसे नए समझौतों की संभावना तलाश कर रहा है। आंशिक तौर पर ऐसा इसलिए हुआ कि उसने यह बात समझ ली है कि विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए भारत को वैश्विक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनना होगा। परंतु इसके साथ ही उसने एक नई लाइसेंस-परमिट व्यवस्था भी पेश की जिससे विभिन्न क्षेत्रों के कारोबारियों को निपटना होगा।
गुणवत्ता नियंत्रण ऑर्डर (क्यूसीओ) की तादाद बढ़ी है। ये कुछ खास प्रमाणन के बिना आयात को प्रतिबंधित करते हैं। खासतौर पर भारतीय मानक ब्यूरो के प्रमाणन के बिना। इस बारे में सरकार का दावा यह है कि भारतीय उपभोक्ताओं को खराब गुणवत्ता वाली वस्तुओं से बचाने की आवश्यकता है। परंतु ऐसा भी हो सकता है कि इसका इस्तेमाल भारत की आपूर्ति श्रृंखला में चीनी उत्पादों की मौजूदगी को नियंत्रित करने के लिए किया जाए। परंतु तथ्य यह है कि नए गैर टैरिफ अवरोध खड़े किए गए हैं जो उपभोक्ता हितों के खिलाफ हैं और कारोबारियों तथा विनिर्माताओं दोनों को परेशानी में डालते हैं।
स्टील का उदाहरण लेते हैं। उद्योग जगत स्वाभाविक रूप से चीन की अतिरिक्त क्षमता को लेकर चिंतित है जो भारत में बने स्टील को गैर प्रतिस्पर्धी बना सकता है। परंतु चीन द्वारा स्टील को डंप किए जाने की समस्या को क्यूसीओ के अतिरिक्त इस्तेमाल से ही खत्म नहीं किया जा सकता है। कई प्रकार के स्टील को लेकर मनमाने ढंग से ऑर्डर जारी किए गए हैं। इस बात ने अन्य विनिर्माण कंपनियों को भी प्रभावित किया है जिन्हें शायद अपनी वस्तुएं निर्मित करने के लिए आयातित या विशेष तरह के स्टील की जरूरत होगी। इसमें निर्यात से जुड़ी वस्तुएं भी शामिल हैं। बीआईएस लाइसेंस हासिल करना महंगी और समय खपाऊ प्रक्रिया है। अगर क्यूसीओ द्वारा नहीं कवर किया जाए तो भी आयातकों से ‘अनापत्ति प्रमाण पत्र’ हासिल करने की उम्मीद तो की जाती है। कई लोग इनसे निपटने के बजाय कम गुणवत्ता वाले इस्पात का इस्तेमाल कर लेंगे। यह बात उन्हें कीमत और गुणवत्ता दोनों ही मामलों में कम प्रतिस्पर्धी बनाएगी। यह विश्वस्तरीय घरेलू विनिर्माण क्षेत्र विकसित करने का तरीका नहीं है।
यह छोटे और मझोले उपक्रमों के लिए भी खास नुकसानदेह है। बड़ी कंपनियां जिनके पास आयात के बड़े ऑर्डर हैं उनके लिए अफसरशाही बाधाओं से निपटना किफायती हो सकता है लेकिन छोटी कंपनियां स्वाभाविक रूप से इसे मुश्किल पाएंगी। ऐसे में उनके लिए यह तुलनात्मक रूप से महंगा होगा और उनकी वस्तुओं की गुणवत्ता खराब होगी। चूंकि सरकार की प्राथमिकता सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों यानी एमएसएमई को बढ़ावा देने और वैश्विक मूल्य श्रृंखला में उनकी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना है इसलिए बड़ी तादाद में क्यूसीओ का होना नुकसानदेह साबित हो सकता है।
श्रम गहन कारोबार योग्य वस्तुओं मसलन टेक्सटाइल आदि को कच्चे माल में क्यूसीओ के अनचाहे परिणाम बड़े पैमाने पर भुगतने पड़े हैं। अब वे देश में ही इन उत्पादों के उत्पादन पर एकाधिकार कर चुकी कंपनियों की दया पर हैं। बाजार में इस नए तरह के अफसरशाही हस्तक्षेप से देश के उद्योग जगत का संरक्षण नहीं होगा क्योंकि बिना कच्चे माल के वह वैसे भी ठप पड़ जाएगा। बल्कि यह देश में विनिर्माण में निवेश कम करने वाला साबित होगा क्योंकि कम ही लोग ऐसे समय में क्षमता विस्तार करना चाहेंगे जबकि जरूरी कच्चे माल तक पहुंच इतनी मुश्किल हो।
सरकार विनियमन और सुधारों को लेकर अपने प्रदर्शन पर गर्व कर सकती है। हालांकि वह खराब गुणवत्ता वाली चीनी वस्तुओं से निपटने के नाम पर अफसरशाही नियंत्रण लागू करके अपनी ही उपलब्धियों को कम कर रही है। इससे पहले सरकार ने कहा था कि क्यूसीओ में 2,500 वस्तुओं को कवर किया जाएगा। इससे भारत की विदेश नीति ऐसे हालात की ओर लौटेगी जहां भारत की उत्पादकता और गुणवत्ता प्रभावित होगी। उपभोक्ता कल्याण पर भी इसका बुरा असर होगा। सरकार के हस्तक्षेप की इस अवांछनीय प्रवृत्ति पर पुनर्विचार जरूरी है।