प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘विनियमन आयोग’ का गठन करने की अपनी सरकार की प्रतिबद्धता को दोहराया है। इसका उद्देश्य मौजूदा नियमों मे कटौती करना और नए निवेश के लिए अनुकूल माहौल तैयार करना है। पुराने नियमन को हटाने की बात कुछ सप्ताह पहले संसद में पेश की गई आर्थिक समीक्षा और केंद्रीय बजट में भी कही गई थी। अब महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विनियमन का काम कितनी गहराई से और कितने टिकाऊ स्तर पर किया जाएगा। ‘जन विश्वास’ नामक एक विधेयक पहले ही पारित किया जा चुका है जो कुछ नागरिक अपराधों की आपराधिकता को समाप्त करता है। वादा किया गया है कि ऐसा ही एक अन्य विधेयक लाकर तकरीबन 100 छोटे-मोटे अपराधों की आपराधिकता समाप्त की जाएगी। उनकी जगह जुर्माने की व्यवस्था की जाएगी। ये अहम कदम हैं। परंतु इनकी बदौलत दृष्टिकोण में बदलाव नहीं आएगा बल्कि दशकों से बनी दमनकारी राज्य मशीनरी के दंडात्मक पहलुओं को कम किया जाएगा।
सरकार को नए आयोग से कहना चाहिए कि वह सभी वर्तमान नियमन का व्यापक आकलन करे। उनका हर कोण से आकलन होना चाहिए। पहला, उन्हें जिस उद्देश्य से बनाया गया था क्या वे अभी भी प्रासंगिक हैं? दूसरा, क्या वे उद्देश्य प्राप्ति में सफल रहे? तीसरा, उन्होंने नागरिकों, उद्यमियों और निवेशकों पर क्या लागत डाली। इस लागत की लाभ से तुलना करनी चाहिए ताकि पता चल सके। आदर्श स्थिति में ऐसी कवायद नियमन लाने के पहले पारदर्शी तरीके से अंजाम दी जानी चाहिए। परंतु ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि सरकार या स्वतंत्र नियामकों ने ऐसा किया हो। यह अच्छी आदत नहीं है और अन्य उदार लोकतांत्रिक देशों के विपरीत है। यहां तक कि उच्च नियमन वाले यूरोपीय देशों से भी अलग। नीतिगत बदलावों के सार्वजनिक जोखिम और पुरस्कार आकलन का अभाव और नियम निर्माण की कमी, समग्र नीतिगत ढांचे को नहीं बल्कि एक व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाता है जो अफसरशाही को मजबूत बनाता है। विनियमन आयोग को इस रुख से दूरी बनानी होगी। इस लिहाज से देखे तो आयोग के कर्मचारियों की नियुक्ति एक अहम चयन होगा। इसमें सेवानिवृत्त कर्मचारियों को नहीं भर लिया जाना चाहिए जो यही मानते हैं कि विनियमन में सुधार होना चाहिए।
किसी एक विनियमन की लागत चाहे जो भी नजर आए, उसकी वास्तविक लागत निस्संदेह तब अधिक होती है जब यह ढेर सारे कानूनों और प्रतिबंधों के समूह का हिस्सा होता है जो राज्य के रुख को दर्शाता है। समग्रता में यह टुकड़ों की तुलना में अधिक होता है। यह भारत के नियामकीय ढांचे की जटिल और आंतरिक स्तर पर विरोधाभासी स्थिति है जो किसी अन्य चीज से अधिक निवेशकों के उत्साह को कम करने और विनियमन वाले क्षेत्रों में नई पूंजी के निवेश की उनकी इच्छा को कम करती है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उदाहरण के लिए विनिर्माण क्षेत्र में ऑनलाइन खुदरा व्यापार या ऐप अर्थव्यवस्था की तुलना में बहुत कम उत्साह नजर आता है। भले ही पहला क्षेत्र सरकार की प्राथमिकता में हो लेकिन बाद वाले क्षेत्र में नियामक तंत्र बहुत कम दखल देने वाला है। सार्वजनिक निवेश को नई गति देने के लिए सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि निवेशक यह मानें कि उनके सामने एक नई पेशकश की जा रही है जो अतीत से अलग है। यह महत्त्वपूर्ण होगा कि सभी राज्य इस मिशन में सहयोग करें ताकि देश को निवेशकों के अनुकूल बनाया जा सके। बीते दशक में और इस सरकार के सत्ता में रहते यह प्रयास बार-बार किया गया है कि कारोबारियों के अनुकूल निवेशक नीतियों को प्राथमिकता के रूप में दर्शाया जाए। विनियमन को अगर सही ढंग से अंजाम दिया गया तो वह इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में मददगार होगा।