सोमवार को महाकुंभ मेला आरंभ हो गया और यह अगले 45 दिन तक चलेगा। यह मेला संगठनात्मक क्षमता और सरलता की कामयाबी है। अनुमान है कि यहां 40 करोड़ लोग पहुंचेंगे जो ऐतिहासिक रूप से मनुष्यों का सबसे बड़ा जुटान होने जा रहा है। पहले दिन सुबह 9.30 बजे के पहले ही 60 लाख लोग वहां पहुंच चुके थे और उन्होंने इलाहाबाद में गंगा और यमुना के पवित्र संगम पर स्नान भी कर लिया। मंगलवार को यानी मकर संक्रांति के दिन ही इस आंकड़े के पीछे छूट जाने की पूरी संभावना है। इतनी बड़ी संख्या में लोगों का प्रबंधन करना एक असाधारण चुनौती है। परंतु भारत हर बार कुंभ या महाकुंभ के अवसर पर ऐसी चुनौती से पार पाने में सफल रहता है। कुछ लोग इसे उत्सव का अवसर मानते हैं बल्कि आशावाद का। अगर राज्य बिना किसी गड़बड़ी के इतना बड़ा और वैश्विक महत्त्व का आयोजन कर लेता है तो यकीनन शासन व्यवस्था में समग्र सुधार की भी पूरी संभावना मौजूद है।
वास्तव में यह धारणा सही नहीं है। कुंभ मेला जैसे अवसरों पर सरकार की मिशन मोड में हासिल की गई कामयाबी एक व्यापक कमजोरी का लक्षण है। भारत में राज्य क्षमता हमेशा सीमित रही है। ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो बाधाओं को दूर करने के लिए क्षमताओं में व्यापक विस्तार करने या राज्य कार्यकारियों को कौशल संपन्न बनाने का काम नहीं किया गया है बल्कि इसके लिए मिशन तैयार करने को प्राथमिकता दी गई। सन 1970 और 1980 के दशक में भारत में वन्य जीव संरक्षण के लिए प्रोजेक्ट टाइगर और डेरी क्षेत्र के लिए ऑपरेशन फ्लड की शुरुआत की गई। इसके बाद तिलहन मिशन आया, दिल्ली मेट्रो आई जिसने खुद की एक प्रशासनिक जगह बनाई। इसके अलावा भी कई उदाहरण हमारे सामने हैं। इन सफलताओं से बहुत सीमित लक्ष्य प्राप्त हुए।
परंतु उनके कारण हमेशा विशेषज्ञता का अन्य संबंधित नीतिगत और शासन संबंधी क्षेत्रों में व्यापक प्रसार नहीं हुआ। अक्सर इनमें सरकार के सबसे अधिक कुशल, अनुभवी और अग्रगामी सोच वाले लोग खप गए। उनकी कामयाबी इस तथ्य को परिलक्षित करती है कि राजनीतिक प्राथमिकताएं तय करने से राजनीतिक और नियामकीय बाधाएं दूर करने में मदद मिली और अस्थायी संस्थान बनाए जा सके। इन सफलताओं से गलत सबक लिए जा रहे हैं: लोग मानते हैं कि यह भारतीय राज्य की क्षमता दर्शाता है जबकि जरूरत ऐसी बाधाओं को समग्रता में दूर करने की है। विशेष आर्थिक क्षेत्र अथवा सेज के साथ भी यही समस्या आई थी। विनिर्माण और निर्यात को नुकसान पहुंचाने वाली नियामकीय समस्याओं को दूर करने के बजाय इन जरूरतों से स्थानीय स्तर पर निपटने के प्रयास किए गए।
इन बातों का अर्थ यह नहीं है कि ऐसे मिशनों की वास्तविक उपलब्धि को नकार दिया जाए। खासतौर पर महाकुंभ की उपलब्धि को। इसके बजाय जरूरत यह है कि इससे निकले सबकों का बाहर इस्तेमाल किया जाए। उदाहरण के लिए अगर मिशन को इसलिए कामयाबी मिली कि अफसरशाहों को इसमें उनकी विशेषज्ञता के कारण चुना गया तो इसे सरकार के अन्य क्षेत्रों में कैसे अपनाया जा सकता है? अगर मिशन मोड में अपनाए गए कार्यक्रम कतिपय नियमन के कारण होने वाली देरी से बचने में कामयाब रहे तो क्या उन नियामकों को हर क्षेत्र में परियोजना क्रियान्वयन पर नजर नहीं डालनी चाहिए? अगर सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच के संपर्क ऐसे मिशन मोड कार्यक्रमों में सही ढंग से प्रबंधित किए जा सकते हैं तो क्या अन्य जगहों पर इसे नहीं आजमाया जा सकता है। इसके बजाय अक्सर मिशन की कामयाबी को व्यक्तिगत श्रेय में ढाल दिया जाता है। उन्हें किन्हीं खास प्रशासकों या अफसरशाहों की कामयाबी बता दिया जाता है। जबकि इन्हें भारतीय राज्य के समस्याओं से निपटने के तरीके के रूप में देखना चाहिए। राजनेता ऐसे राज्य से संतुष्ट हो सकते हैं जो मिशन का प्रभावी क्रियान्वयन करे, भले ही वे अन्य मामलों में पिछड़ा रहे। ऐसा इसलिए कि राजनीतिक चयन और प्राथमिकताओं का महत्त्व ऐसी व्यवस्था में बढ़ जाता है। परंतु औसत नागरिक के नजरिये से देखें तो यह सही नहीं है। महाकुंभ मेले का जश्न मनाना चाहिए लेकिन इसकी कामयाबी से सही सबक लेने की भी जरूरत है।