वर्ष 2023-24 का वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण एक चिंताजनक प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है और वह है अनुबंध आधारित रोजगार में वृद्धि। इस समय संगठित विनिर्माण क्षेत्र में कार्यरत कुल कामगारों में से 42 फीसदी अनुबंध कार्यबल हैं। यह अनुपात 1997-98 के बाद सबसे अधिक है, जब अनुबंध कामगारों की हिस्सेदारी मात्र 16 फीसदी थी।
वास्तव में, पिछले 10 वर्षों में अनुबंध आधारित रोजगार में लगभग 8 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि फैक्टरियों द्वारा सीधे नियोजित कामगारों की हिस्सेदारी में लगातार गिरावट देखी गई है। भारत जैसे देश के लिए, जिसे श्रम-प्रधान विनिर्माण पर निर्भर रहना पड़ता है, अनुबंध आधारित रोजगार में वृद्धि इस बात का संकेत है कि नए रोजगार की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है।
अनुबंधित कामगारों को आमतौर पर फैक्टरियों द्वारा सीधे काम पर नहीं रखा जाता है बल्कि उन्हें तीसरे पक्ष की एजेंसियों के माध्यम से अनुबंध के आधार पर नियुक्त किया जाता है। प्रमाण बताते हैं कि भारतीय कंपनियों को पारंपरिक रूप से कठोर श्रम कानूनों और मजबूत रोजगार सुरक्षा प्रावधानों का सामना करना पड़ा है, जिससे मांग की स्थिति के अनुसार कार्यबल को समायोजित करना कठिन हो जाता है।
इन प्रतिबंधों से बचने के लिए कंपनियां अब तेजी से अनुबंध आधारित व्यवस्थाओं पर निर्भर हो रही हैं, जो उन्हें कामगारों के प्रबंधन में अधिक लचीलापन प्रदान करती हैं और लाभ व नौकरी सुरक्षा से जुड़े खर्चों को कम करती हैं। इस प्रवृत्ति का एक उल्लेखनीय पहलू राज्यों के बीच व्यापक अंतर है। वर्ष 2022-23 में यह देखा गया कि बिहार में औद्योगिक कर्मियों का 68.6 फीसदी हिस्सा अनुबंध श्रमिकों का है, जबकि केरल में यह आंकड़ा मात्र 23.8 फीसदी है।
इस प्रकार, राज्यों में असमान नियामक प्रवर्तन और विभिन्न औद्योगिक प्रथाएं इस चुनौती को और अधिक जटिल बना देती हैं। इसके अतिरिक्त, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच अनुबंधित कामगारों की हिस्सेदारी में स्पष्ट अंतर देखा गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित फैक्टरियों में अनुबंधित कामगारों की हिस्सेदारी शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक होने की संभावना है।
अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमण्यन और अन्य विशेषज्ञों ने यह दर्शाया है कि कंपनियां अनेक संयंत्रों वाली रणनीतियां अपनाती हैं ताकि लचीलापन बना रहे और श्रम कानूनों सहित विभिन्न नियामकीय जोखिमों से बच सकें। यह विभाजन कामगारों को प्रभावी रूप से संगठित होने से रोकता है, जिससे सामूहिक सौदेबाजी कमजोर पड़ती है और वेतन की मांगें भी कम बनी रहती हैं। हालांकि, इसके परिणामस्वरूप भारतीय कंपनियां बड़े पैमाने पर उत्पादन नहीं कर पातीं, जिससे उत्पादकता और प्रतिस्पर्धात्मकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
यही कारण है कि भारत अपने यहां श्रम की बहुलता का लाभ उठाने में असफल रहा है और श्रम-प्रधान वस्तुओं के निर्यात के मामले में अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पाया है। यहां तक कि पूंजी-प्रधान उद्योग, जिन्हें सामान्यतः कुशल कामगारों की आवश्यकता होती है, वे भी श्रम-प्रधान क्षेत्रों की तुलना में अधिक अनुबंध कामगारों को नियुक्त कर रहे हैं। इससे यह तर्क कमजोर पड़ता है कि अनुबंध आधारित रोजगार केवल अल्पकालिक या कम-कुशल कार्यों के लिए होता है। इसके बजाय, यह एक प्रणालीगत बदलाव की ओर संकेत करता है। ऐसा बदलाव जो लागत में कटौती और शक्ति के असंतुलन को ध्यान में रखते हुए अस्थिर रोजगार प्रथाओं को बढ़ावा देता है।
ये रुझान चिंताजनक हैं क्योंकि अनुबंधित कामगारों को रोजगार से जुड़े वे लाभ नहीं मिलते जो अन्य नियमित कामगारों को मिलते हैं। इसमें रोजगार की सुरक्षा न होना, सीमित बीमा या बीमा न मिलना और सवैतनिक अवकाश नहीं मिलना शामिल है। इसका परिणाम कमजोर श्रम शक्ति के रूप में सामने आ रहा है जो आर्थिक झटके नहीं झेल पाती। उसके पास संसाधन बहुत सीमित रहते हैं। इस संदर्भ में चार श्रम संहिताओं को बिना देरी किए लागू करना अहम है।
वे अनुबंधित और गिग श्रमिकों के लिए सुव्यवस्थित नियमन, बेहतर कार्य परिस्थितियां और अधिक स्थिरता का वादा करती हैं। श्रम बाजार को अधिक समावेशी और सुरक्षित बनाकर, ये उपाय औपचारिक क्षेत्र में भी रोजगार की गिरती गुणवत्ता को रोकने में मदद कर सकते हैं। व्यापक आर्थिक परिणामों के संदर्भ में, श्रम बाजार की स्थितियों में गिरावट फिर चाहे वह औपचारिक क्षेत्र में ही क्यों न हो, समग्र मांग पर प्रभाव डाल सकती हैं। भारत को श्रम बाजार में लचीलापन और रोजगार की शर्तों के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है।