गुणवत्ता नियंत्रण आदेशों (क्यूसीओ) का लक्ष्य था उत्पाद गुणवत्ता का संरक्षण करना लेकिन अब भारतीय बाजार में वे प्रतिस्पर्धा के साथ छेड़खानी कर रहे हैं। पहले कोई भी व्यक्ति आयात शुल्क चुकाकर या लाइसेंस हासिल करके वस्तुओं का आयात कर सकता था लेकिन अब भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) यह तय करता है कि कौन आयात कर सकता है और किस कारखाने से आयात कर सकता है। अब नियम रातोंरात बदल भी सकते हैं। इससे अनुपालन महंगा होता है, आपूर्तिकर्ताओं की तादाद कम होती है और एक ऐसी जोखिम वाली व्यवस्था बनती है जो पुराने लाइसेंसिंग राज से भी बुरी है। छोटे कारोबारी बड़ी कंपनियों के सामने हार मान लेते हैं क्योंकि वे बहुत प्रभावशाली होती हैं।
एक ताजा उदाहरण है इस्पात मंत्रालय का 13 जून का आदेश। इसके मुताबिक न केवल पूरी तरह तैयार या आधे तैयार स्टील उत्पादों बल्कि उन्हें बनाने में प्रयोग किए जाने वाले कच्चे माल को भी बीआईएस से गुणवत्ता प्रमाणपत्र हासिल होना जरूरी है। यह नियम बमुश्किल एक दिन के नोटिस पर लागू कर दिया गया। इसकी वजह से तमाम ऑर्डर बंदरगाहों पर फंस कर रह गए, अनुबंध निरस्त किए गए और अदालती मामले शुरू हो गए। स्टील संबंधी आदेश इकलौता नहीं है बल्कि यह एक प्रवृत्ति ही बन गई है जहां क्यूसीओ का इस्तेमाल बाजार में बदलाव और चुनिंदा कारोबारियों का पक्ष लेने में किया जा रहा है। आइए पहले स्टील संबंधी आदेश को एक केस स्टडी के रूप में देखते हैं।
केस स्टडी: एक छोटी भारतीय कंपनी इंडोनेशिया की एक्स फैक्टरी से स्टील के उत्पाद आयात करती है। ऐसे उत्पाद भारत की विदेशी विनिर्माता प्रमाणन योजना (एफएमसीएस) के अधीन आते हैं जो बीआईएस को यह इजाजत देती है कि वह भारत को निर्यात करने वाली विदेशी कंपनियों की जांच और प्रमाणन कर सके। एफएमसीएस के अधीन, बीआईएस के ऑडिटर विदेशी इकाइयों का दौरा करते हैं ताकि उत्पादन प्रक्रिया का प्रमाणन कर सकें और यह तय कर सकें कि कच्चा माल भारतीय मानकों के अनुरूप है। एक बार संतुष्ट होने के बाद बीआईएस लाइसेंस जारी करता है ताकि फैक्टरी आईएसआई मार्क को अपना सके, लेकिन निगरानी प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है।
बहरहाल, 13 जून का आदेश हालात को पूरी तरह बदलने वाला है। अब कच्चे माल का हर आपूर्तिकर्ता भले ही वह किसी तीसरे देश में हो, उसे भी बीआईएस का प्रमाणन हासिल करना होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी विदेशी फैक्टरी को भी बीआईएस लाइसेंस हासिल करना होगा। बिना इसके एक्स नामक फैक्टरी भारत को निर्यात नहीं कर सकती भले ही उसके पास प्रमाणन हो अथवा नहीं।
प्रमाणन का बोझ: यह नीति दोहरे प्रमाणन की आवश्यकता उत्पन्न करती है। पहला प्रमाणन, जो मायने रखता है, अंतिम रूप से तैयार उत्पाद के लिए है और वह एफएमसीएस के तहत पहले से लागू है। दूसरा, नया प्रमाणन कच्चे माल के आपूर्तिकर्ताओं के लिए है जो अक्सर तीसरे देश में होते हैं और भारतीय बाजार से काफी दूर होते हैं।
बीआईएस प्रमाणन हासिल करने में 6 से 18 महीने लगते हैं, इसमें मोटी फीस शामिल होती है और प्रदर्शन की गारंटी और अनुपालन का अंकेक्षण शामिल होता है। छोटी विदेशी मिलें जो किसी मध्यवर्ती निर्यातक के लिए मामूली चीजें बना रही होती हैं, उनके पास प्रमाणन के लिए समय और धन निवेश करने का कोई प्रोत्साहन नहीं होता है।
इसका मतलब है, भारतीय खरीदारों के लिए विदेशी आपूर्तिकर्ताओं की संख्या को सीमित करना। भारत हर वर्ष जितना स्टील तैयार करता है उससे करीब 15 लाख टन अधिक इस्तेमाल करता है। देश का सबसे बड़ा इस्पात निर्माता भी जितना इस्पात बेचता है उसका 30 फीसदी से अधिक आयात करता है। आपूर्ति को सीमित करने और आयात को बीआईएस के नियंत्रण में डालने से स्टील आयात आदेश छोटे कारोबारियों के लिए कारोबार को लगभग असंभव कर देता है और कारोबार चुनिंदा बड़े कारोबारियों के हाथों में सिमट जाता है।
कानूनी पहलू: आदेश को पहले ही न्यायालय में चुनौती दी जा चुकी है। 17 जुलाई को मद्रास उच्च न्यायालय ने एक अंतरिम स्थगन आदेश दे दिया क्योंकि यह आदेश बिना मशविरे के या बदलाव के लिए उपयुक्त समय दिए बिना जारी कर दिया गया था। इस्पात मंत्रालय ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की और कहा कि घरेलू उत्पादकों और आयातकों के बीच समता सुनिश्चित करने के लिए तथा कम गुणवत्ता वाले स्टील से बचाव के लिए यह उपाय आवश्यक था। 30 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन आदेश समाप्त कर दिया लेकिन मामले को उचित निर्णय के लिए वापस उच्च न्यायालय भेज दिया गया।
इसके बावजूद मंत्रालय के तर्कों में दम नहीं है। एफएमसीएस के मुताबिक पहले ही यह आवश्यक है कि बीआईएस प्रमाणित फैक्टरी में इस्तेमाल किया जाने वाला कच्चा माल भारतीय मानकों के अनुरूप हो। कच्चे माल के आपूर्तिकर्ताओं के लिए अतिरिक्त लाइसेंसिंग कोई ठोस गुणवत्ता सुनिश्चित नहीं करती। पहले से मौजूद सुरक्षा उपाय मसलन मिल टेस्ट प्रमाणपत्र, बंदरगाह स्तर पर पॉजिटिव मटीरियल आइडेंटिफिकेशन (पीएमआई) परीक्षण, और सीमा शुल्क निरीक्षण पहले ही खराब आयात को रोकने में सक्षम हैं।
डब्ल्यूटीओ के जोखिम: अमेरिका, यूरोपीय संघ या जापान, किसी बड़ी स्टील उत्पादक अर्थव्यवस्था को कच्चे माल के अलग प्रमाणन की आवश्यकता नहीं होती है बशर्ते कि अंतिम उत्पाद राष्ट्रीय मानकों को पूरा करता हो। इसके बजाय वे मिल टेस्ट प्रमाणपत्रों, तीसरे पक्ष के अधिमान्य परीक्षण और साझा मान्यता समझौतों पर भरोसा करते हैं।
भारत का दोहरा प्रमाणन मॉडल इन मानकों से काफी अलग है और इसे विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों के तहत एक गैर-शुल्क बाधा के रूप में वर्गीकृत किए जाने का खतरा है। इससे भारत को व्यापार विवादों या प्रतिशोधात्मक उपायों का सामना करना पड़ सकता है। नेपाल पहले ही इस मॉडल के कारण क्षेत्रीय आपूर्ति श्रृंखलाओं में उत्पन्न बाधाओं को लेकर चिंता व्यक्त कर चुका है।
इस आदेश को लागू करने का समय और चयनात्मक प्रकृति ने नियामक नियंत्रण की आशंका को जन्म दिया है। बताया जाता है कि एक प्रमुख स्टेनलेस स्टील निर्माता ने 13 जून से ठीक पहले अपने विदेशी आपूर्तिकर्ताओं के लिए बीआईएस प्रमाणन प्राप्त कर लिया और आदेश जारी होने के तुरंत बाद कीमतें बढ़ा दीं। चिकित्सा उपकरण क्षेत्र को मिली छूट, जो उद्योग की लॉबिंग के बाद हासिल हुई, यह दर्शाती है कि सरकार इस नीति से होने वाले नुकसान को समझती है। फिर भी ऑटो पार्ट्स से लेकर निर्माण क्षेत्र तक कई अन्य उद्योग अब भी इस नियामक जकड़ में फंसे हुए हैं।
कमजोर ढंग से तैयार नीति: ऐसे आपूर्तिकर्ताओं को, जिनका भारत में कोई व्यावसायिक हित नहीं है, जबरन प्रमाणन प्रक्रिया से गुजरने के लिए मजबूर करके सरकार ने अनावश्यक लागत जोड़ दी है और भारत की एक विश्वसनीय विनिर्माण साझेदार के रूप में छवि को खतरे में डाल दिया है। यदि सरकार को यह तरीका आवश्यक लगता है, तो यह कहां जाकर रुकेगा? क्या अब लौह अयस्क और कोयला खदानों को भी बीआईएस लाइसेंस लेना होगा?
आगे की राह: भारत को तत्काल उच्चस्तरीय समीक्षा और पारदर्शी नियमों की आवश्यकता है। 13 जून का आदेश तब तक स्थगित रहना चाहिए जब तक कि यह समीक्षा पूरी नहीं हो जाती है। सरकार को सभी प्रभावित पक्षों से बातचीत करने के बाद ही नीतिगत बदलाव करने चाहिए और भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग को स्टील उत्पाद श्रृंखला में किसी भी तरह की मिलीभगत के संकेतों की जांच करनी चाहिए।
अब जबकि भारत के लिए अमेरिकी बाजार लगभग बंद हैं तथा यूरोपीय संघ ज्यादा संरक्षणवादी हो चुका है तो भारत और अधिक अनिश्चितता नहीं झेल सकता है। क्यूसीओ के नियम अनुमान लगाने लायक, पारदर्शी और संतुलित होने चाहिए।
(लेखक जीटीआरआई के संस्थापक हैं)