अमेरिका में अगस्त माह में उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति की दर एक वर्ष में सबसे तेज गति से बढ़ी है। इससे संकेत मिलता है कि फेडरल रिजर्व का मुद्रास्फीति से निपटने की कोशिश का आखिरी चरण आसान नहीं होगा। सालाना दर जुलाई माह के 3.2 फीसदी की तुलना में 3.7 फीसदी हो गई। हालांकि हेडलाइन मुद्रास्फीति आंशिक तौर पर ईंधन की उच्च कीमतों के कारण बढ़ी हुई थी लेकिन कोर मुद्रास्फीति में भी तेजी देखने को मिली।
मुद्रास्फीति से अपनी लड़ाई की प्रक्रिया में फेडरल रिजर्व ने भी अपने मानक नीतिगत दर के दायरे को भी 5.25-5.5 फीसदी करके ढाई दशक के उच्चतम स्तर पर कर दिया। हालांकि वित्तीय बाजारों को उम्मीद है कि फेडरल रिजर्व सितंबर की आगामी बैठक में नीतिगत दरों को अपरिवर्तित रखेगा लेकिन विश्लेषकों का अनुमान है कि वर्तमान चक्र में एक और बार दरों में इजाफा हो सकता है।
बहरहाल, फेड नीतिगत दरों में इजाफा चाहे जब करे लेकिन चूंकि वह मुद्रास्फीति को दो फीसदी के लक्ष्य के आसपास लाना चाहता है इसलिए ब्याज दरें कुछ समय तक ऊंची बनी रह सकती हैं।
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अमेरिकी नीतिगत दरों के लंबी अवधि तक ऊंचे स्तर पर बने रहने का असर अमेरिका और वैश्विक बाजार दोनों पर होगा। हालांकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था अब तक काफी मजबूत रही है लेकिन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आने वाले दिनों में उसमें कमजोरी आ सकती है।
अगर अमेरिकी ब्याज दरें भी लंबे समय तक ऊंचे स्तर पर बनी रहती हैं तो यह बात पूंजी की आवक और मुद्रा बाजार दोनों को प्रभावित करेगी। उदाहरण के लिए चीन की मुद्रा युआन की बात करें तो वह गत सप्ताह अमेरिकी डॉलर की तुलना में एक दशक के निचले स्तर पर है। तब से मुद्रा बाजार में चीन के केंद्रीय बैंक की मदद से सुधार हुआ है।
निश्चित रूप से युआन चीन की अर्थव्यवस्था की कमजोरी को भी दर्शा रहा है। अचल संपत्ति बाजार में कमजोरी और कई अन्य क्षेत्रों के मुश्किल में होने से भी वृद्धि संभावना पर असर पड़ा है। इसके अलावा जुलाई में गिरावट के बाद अगस्त में खुदरा महंगाई 0.01 फीसदी पर रही।
चीन का केंद्रीय बैंक मौद्रिक समायोजन के साथ अर्थव्यवस्था का समर्थन कर रहा है। हालांकि उच्च ब्याज दर वाले इस दौर में पूंजी चीन से बाहर उच्च प्रतिफल वाले बाजारों का रुख कर सकती है। खबरों के मुताबिक वैश्विक फंड प्रबंधक भी विकल्पों की तलाश कर रहे हैं और भारत को इसका लाभ मिल सकता है। इस बीच जापानी येन भी दबाव में है। आंशिक तौर पर ऐसा दरों में अंतर के कारण है।
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येन के 10 वर्ष के सरकारी बॉन्ड का प्रतिफल 0.7 फीसदी के करीब है जबकि समान अवधि के अमेरिकी सरकारी बॉन्ड का प्रतिफल 4.3 फीसदी है। अमेरिका में कम अवधि में प्रतिफल और अधिक है। दरों में अंतर को देखते हुए मुद्रा बाजार में अस्थिरता नजर आ सकती है। डॉलर सूचकांक जुलाई के मध्य से अब तक करीब 5 फीसदी ऊपर गया है।
इन बातों का भारत के लिए क्या अर्थ है? इस सप्ताह जारी आंकड़े बताते हैं कि देश में खुदरा मुद्रास्फीति की दर अगस्त में कम होकर 6.8 फीसदी रह गई जबकि जुलाई में यह 7.4 फीसदी थी। यह कमी मुख्यत: खाद्यान्न कीमतों में गिरावट के कारण आई। इसके बावजूद यह रिजर्व बैंक के तय दायरे से ऊपर बनी रही।
मौद्रिक नीति समिति ने अपनी पिछली बैठक में मुद्रास्फीति में इजाफे की अनदेखी करने का निर्णय लिया था जो कि खाद्य कीमतों के कारण बढ़ी थी लेकिन निरंतर उच्च खाद्यान्न महंगाई जटिलताएं उत्पन्न कर सकती है। कच्चे तेल की कीमतें भी बढ़ी हैं और उनके ऊंचे स्तर पर बने रहने की उम्मीद है।
इससे अतिरिक्त दबाव उत्पन्न हो सकता है। उच्च तेल कीमतें व्यापार घाटा भी बढ़ा सकती हैं। हालांकि रुपया हाल के दिनों में अपेक्षाकृत स्थिर रहा है लेकिन व्यापक आर्थिक परिदृश्य और मुद्रा बाजार में अस्थिरता को देखते हुए उस पर भी नीचे की ओर दबाव देखने को मिल सकता है।