वर्ष1978 में चीन में तंग श्याओफिंग ने एक नया विकास मॉडल प्रस्तुत किया। एक केंद्रीय नियोजित, सरकारी क्षेत्र पर बल देने वाली तथा अंतर्मुखी अर्थव्यवस्था को बदलकर एक ऐसी व्यवस्था बनाई गई जो विदेशी कंपनियों को निवेश के लिए आकर्षित करने, स्थानीय निजी कंपनियों को प्रोत्साहित करने तथा तीव्र निर्यात वृद्धि पर आधारित थी। भारत में बड़ा नीतिगत बदलाव बाद में वर्ष 1991 में हुआ जब लाइसेंस व्यवस्था समाप्त की गई। वित्तीय क्षेत्र में बड़े सुधार किए गए और वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं से रिश्तों को मजबूत किया गया।
इन बुनियादी नीतिगत बदलावों के कारण दोनों अर्थव्यवस्थाओं के बीच में अंतर बढ़ता चला गया। 1978 तक चीन का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) भारत से कम था। उसके बाद वह तेजी से बढ़ा और 1992 तक भारत के दोगुना हो गया। प्रति व्यक्ति जीडीपी अनुपात में यह अंतर भारत के उदारीकरण के अपनाए जाने के बाद भी बढ़ता रहा और 2000 तक यह तीन गुना, 2007 में चार गुना और 2012 में पांच गुना हो गया। वर्ष 2024 तक आते-आते यह भारत के साढ़े पांच गुना हो गया।
माना जाता है कि चीन की वृद्धि के भारत से आगे निकलने का मुख्य कारण वहां विनिर्माण क्षेत्र का असाधारण रूप से तीव्र विस्तार है। वर्ष 2023 में वैश्विक विनिर्माण में चीन की हिस्सेदारी बढ़कर 28 से 30 फीसदी तक पहुंच गई, जबकि भारत की हिस्सेदारी मात्र 3 फीसदी थी। यहां सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात है 1978 के बाद चीन में निजी क्षेत्र का विस्तार। याद रहे उस समय चीन में निजी क्षेत्र का कोई महत्त्वपूर्ण उपक्रम नहीं था। सन 1978 के बाद चीन में निजी क्षेत्र के उपक्रमों की वृद्धि नए कारोबारियों की बदौलत हुई। ये अक्सर तकनीकी कौशल वाले व्यक्ति थे जो तेज वृद्धि पर जोर देते थे।
वास्तव में, कहा जाता है कि निजी उद्यमों का तीव्र उदय प्रारंभ में केंद्रीय सरकार द्वारा न तो परिकल्पित किया गया था और न ही प्रोत्साहित। शुरुआती सरकारी फंडिंग का अधिकांश हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को गया। उदारीकरण संबंधी सुधार की शुरुआत में निजी क्षेत्र का विकास उन नए उद्यमों द्वारा संचालित था जिन्हें स्थानीय सरकारों के समर्थन से स्थापित किया गया था। अधिकांश निजी क्षेत्र की कंपनियां, जो अब न केवल चीन में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी बड़ा नाम हैं, 1995 के बाद स्थापित हुईं।
भारत में उदारीरकरण के पहले के दौर में सार्वजनिक क्षेत्र पर ध्यान होने के बावजूद अच्छी खासी संख्या में निजी क्षेत्र के उपक्रम और कारोबारी समूह थे। उदारीकरण के बाद भी, स्थापित निजी कॉरपोरेट क्षेत्र, विशेष रूप से बड़े समूहों की मौजूदगी ने विनिर्माण क्षेत्र में नए खिलाड़ियों के उभार को सीमित कर दिया। जहां नए उद्यम उभरे और बड़े बने, वह मुख्यतः सेवा क्षेत्र था, विशेषकर कौशल-प्रधान सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र। संभवतः यही कारण है कि भारत की सेवाओं का निर्यात मात्रा में चीन के बराबर है, जबकि उसका विनिर्माण निर्यात चीन के केवल दसवें हिस्से के बराबर हैं।
इससे संकेत मिलता है कि हमारी वृद्धि दर बढ़ाने के लिए चीन की वृद्धि संबंधी उछाल और हमारे सूचना प्रौद्योगिकी उछाल से एक सबक यह है कि सरकार का वित्तीय और नीतिगत समर्थन नए उद्यमियों की ओर दृढ़ता से निर्देशित होना चाहिए, स्थापित समूहों के समर्थन से हटना चाहिए और प्रतिस्पर्धा के माध्यम से नए खिलाड़ियों पर भरोसा करना चाहिए ताकि उन्हें बढ़ावा दिया जा सके। इससे जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा निजी विनिर्माण विकास को समर्थन देने के लिए सरकारी व्यय है। ‘मेक इन इंडिया’ योजना में कई कार्यक्रम शामिल हैं, जिनमें प्रमुख हैं उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना और इलेक्ट्रॉनिक घटकों एवं सेमीकंडक्टरों को बढ़ावा देने की योजना। इन दोनों का संयुक्त बजट लगभग 36 अरब डॉलर है।
अगर इसकी तुलना मेक इन चाइना के तहत होने वाले सरकारी व्यय से की जाए तो उसके तहत विनिर्माण उपक्रमों की मदद के लिए 330 अरब डॉलर की फंडिंग की व्यवस्था थी। नए विनिर्माण उपक्रमों को बढ़ावा देने में करीब 10 गुना फंड का यह अंतर ही दोनों देशों के प्रदर्शन में इतने बड़े अंतर की वजह है। यानी चीन के अनुभव से एक सबक यह भी है कि हमें अधिक सावधानीपूर्वक योजना बनानी चाहिए और नई शुरुआत करने वालों को अधिक महत्त्वपूर्ण वित्तीय मदद देनी चाहिए।
चीन से तीसरा सबक यह है कि स्थानीय प्रशासन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। चीन में स्थानीय राजनीतिक कुलीन वर्ग ने नए उद्यमियों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने में बड़ी भूमिका निभाई, जिससे रोजगार और स्थानीय वित्तीय विकास के लिए स्वागत योग्य विकल्प उपलब्ध हुए, भले ही यह केंद्रीय सरकार की औपचारिक नीति का हिस्सा न रहा हो। जब निजी क्षेत्र का विकास आधिकारिक रणनीति का हिस्सा स्वीकार कर लिया गया, तब यह प्रक्रिया प्रांतीय सरकार के स्तर पर भी जारी रही। विशेष रूप से ध्यान देने योग्य बिंदु शहरी सरकारों की भूमिका है, जिन्होंने चीन में उद्योग को बढ़ावा दिया। उदाहरण के लिए हाल ही में इलेक्ट्रिक वाहन कंपनियों के विकास में।
भारत में निजी उद्यमों की फंडिंग और औपचारिक सहयोग पर नियंत्रण मुख्यतः केंद्र सरकार के पास है, यद्यपि राज्य सरकारें भूमि अधिग्रहण और कंपनियों को आवश्यक स्थानीय बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराने में प्रत्यक्ष भागीदारी के माध्यम से कुछ प्रभाव डालती हैं। लेकिन विशिष्ट निजी परियोजनाओं को चुनने और उन्हें समर्थन देने में संघ सरकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका बड़े समूहों और राष्ट्रीय स्तर की कॉरपोरेट संस्थाओं को स्थानीय उद्यमों, विशेषकर छोटे और मध्यम स्तर के नए उद्यमियों की तुलना में लाभ देती है। चीन के अनुभव से सीखते हुए, भारत को परियोजनाओं के सहयोग की जिम्मेदारी राज्यों को सौंपनी चाहिए। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि हमारे नगर निकायों को सशक्त और सक्षम बनाया जाए ताकि वे स्थानीय उद्यमिता को बढ़ावा देने में कहीं अधिक सक्रिय भूमिका निभा सकें।
एक अन्य क्षेत्र जहां चीन और भारत के बीच बड़ा अंतर है वह है शोध एवं विकास को सरकार द्वारा दिया जाने वाला प्रोत्साहन। वर्ष 1999 तक दोनों देशों के जीडीपी का लगभग समान हिस्सा शोध एवं विकास पर व्यय किया जाता था। चीन में यह 0.75 फीसदी था और भारत में 0.72 फीसदी। चीन की औद्योगिक रणनीति सौर व पवन ऊर्जा, चिप निर्माण, रोबोटिक्स तथा बाद में आर्टिफिशल इंटेलिजेंस और इलेक्ट्रिक वाहनों पर केंद्रित हो गई। इसके साथ ही शोध एवं विकास में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, जो वर्ष 2020 तक जीडीपी के 2.4 फीसदी तक पहुंच गई। इसके विपरीत, भारत में जीडीपी के अनुपात में शोध एवं विकास की हिस्सेदारी 2008 के 0.85 फीसदी से घटकर 2020 में 0.64 फीसदी रह गई। कुल मिलाकर देखें तो दोनों देशों में शोध एवं विकास निवेश में अंतर लगभग 20 अनुपात एक का है।
चीन ने शोध संस्थानों, उत्पादन उपक्रमों और विश्वविद्यालयों के बीच संबंधों को भी मजबूत किया। उसके 8 से 10 विश्वविद्यालय वैश्विक शीर्ष-100 विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल हो गए हैं। भारत में ऐसा नहीं हुआ है। हमारे लिए अहम सबक यही है कि शोध एवं विकास व्यय बढ़ाया जाए और शोध संस्थानों, उत्पादन उद्यमों तथा आईआईटी एवं अन्य विश्वविद्यालयों के बीच संबंधों को सुधारा जाए। स्कूल और कॉलेज शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने पर अधिक ध्यान देना आवश्यक है।
चीन की रणनीति के कुछ पहलू ऐसे हैं जिन्हें भारत न तो अपना सकता है और न ही उसे अपनाना चाहिए। भारत एक लोकतंत्र है, और इसकी सरकारें चीन सरकार की तरह अधिनायकवादी नहीं हो सकतीं। हमारे यहां संघीय सरकार कुछ चुनिंदा क्षेत्रों का पक्ष नहीं ले सकती या श्रमिकों के क्षेत्रीय प्रवासन को नियंत्रित नहीं कर सकती, जैसा कि चीन की सरकार ने किया। लेकिन केंद्र सरकार को नए उद्यमियों को समर्थन देने, अफसरशाही की लालफीताशाही को कम करके निर्णय लेने की गति बढ़ाने, सार्वजनिक संस्थानों द्वारा शोध एवं विकास पहलों को उल्लेखनीय रूप से तेज करने और निजी उद्यमों, विशेषकर बड़े समूहों, पर भी ऐसा करने का दबाव डालने पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए।