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आर्थिक परिवर्तन और गरीब-अमीर देश

उभरती अर्थव्यवस्थाओं को जोखिम के गलत मूल्यांकन को लेकर ठोस कदम उठाने चाहिए। आर्थिक बदलाव के लिए धन मुहैया कराए जाने के क्षेत्र में जो दिक्कतें आ रही हैं उनके मूल में यही है।

Last Updated- June 28, 2023 | 7:42 PM IST
Economic change and poor-rich countries
इलस्ट्रेशन-बिनय सिन्हा

आर्थिक परिवर्तन के लिए वित्तीय संसाधन मुहैया कराने की समकालीन समस्या का हल बहुत आसान है। विकसित देशों की उम्रदराज होती आबादी को उन गरीब देशों में निवेश करना चाहिए जहां युवा श्रम शक्ति मौजूद है जो उनकी पूंजी पर अधिक प्रतिफल दिला सकती है। अगर बाजार काम करें तो वित्तीय मदद अमीर देशों से गरीब देशों की ओर आनी चाहिए।

परंतु ऐसा नहीं हुआ। अमीर देश गरीब इलाकों को कारोबारी लिहाज से जोखिम भरा मानते हैं। यही वजह है कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचा ऐसे पूंजी प्रवाह पर ‘क्षेत्र’ और ‘देश’ की सीमाएं लागू करता है। किसी देश की प्रति व्यक्ति आय उसकी जोखिम रेटिंग में सबसे अधिक मायने रखती है। यानी कोई देश जितना अधिक गरीब होता है, उतना ही कम पैसा उसे मिलता है।

परियोजना के स्तर पर वृहद आर्थिकी और संस्थागत स्तर पर जोखिम विकासशील देशों में किए जाने वाले निवेश पर उच्च जोखिम प्रीमियम तैयार करते हैं। इसका प्रभावी तौर पर अर्थ यह हुआ कि किसी अमीर देश में क्रियान्वित होने वाली किसी भी परियोजना को गरीब देश में चलने वाली वैसी ही परियोजना की तुलना में काफी रियायती दर पर ऋण प्राप्त होता है। यह सही नतीजा नहीं है लेकिन अमीर देश बीते 50 वर्षों से इसी से संतुष्ट हैं। जोखिम के इस गलत मूल्यांकन का नकारात्मक प्रभाव विकासशील देशों को महसूस करना पड़ा।

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बहरहाल, अब इस गलत आकलन का असर अमीर देशों के बच्चों की बेहतरी पर नजर आ रहा है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए गरीब देशों को बहुत बड़े पैमाने पर वित्तीय मदद मुहैया कराने की आवश्यकता है। परंतु जिस ढांचे ने विकासशील देशों को वित्तीय मदद के प्रवाह का दम घोंटा वही अब जलवायु परिवर्तन संबंधी निवेश को गति देने में बाधा का काम कर रही है।

वित्तीय सहायता को लेकर शिखर बैठकें आयोजित हो रही हैं लेकिन वैश्विक नेताओं के लुभावने वक्तव्यों को हटा दिया जाए तो जोखिम के गलत मूल्यांकन के बुनियादी सवाल से निपटने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है। मैं लंबे समय से इस बात का हिमायती रहा हूं कि जोखिम में ऐसी कमी को लेकर बाधाओं के खिलाफ कदम उठाए जाएं।

भारत इस मायने में खुशकिस्मत है कि हमारी संप्रभु उधारी प्राय: भारतीय रुपये में है। विदेशी भारत का सरकारी ऋण रुपये में खरीद सकते हैं। उन्हें इसे रुपये में ही चुकाना होता है और वे उसे उस समय की विनिमय दर के आधार पर डॉलर में बदल सकते हैं। इसका इकलौता अपवाद बहुपक्षीय विकास बैंक हैं। विश्व बैंक इसका एक उदाहरण है।

दुर्भाग्य की बात है कि अधिकांश विकासशील देशों को ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं है। उनकी उधारी का 8 फीसदी हिस्सा विदेशी मुद्रा में होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जब उनकी मुद्रा का अवमूल्यन होता है तब ऋण की लागत बढ़ जाती है। ऐसा कई बाहरी कारणों से हो सकता है। यही मुद्रा का जोखिम है।

इसका राजकोषीय अदूरदर्शिता या खराब आर्थिक प्रबंधन से कोई लेनादेना नहीं है। जबकि देनदारी में चूक की लगभग सभी स्थितियों में ऐसा ही हुआ। अविनाश प्रसाद दिखाते हैं कि ऐसे जोखिम को लेकर निरंतर जरूरत से बढ़चढ़कर आकलन किया जा रहा है।

इस समस्या के कई प्रस्तावित हल हैं। सोनी कपूर एक बहुपक्षीय फंड की बात करती हैं जो कम लागत वाला हेजिंग समर्थन मुहैया कराए। टीसीएक्स एक ऐसी पहल है जो जोखिम को कम करके स्थानीय मुद्रा में जारी ऋण की हेजिंग को अधिक व्यावहारिक बनाती है।

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प्रसाद इससे मिलता जुलता प्रस्ताव रखते हैं। वह चाहते हैं कि बहुपक्षीय विकास बैंक ऐसा करने के लिए एक एजेंसी स्थापित करें। हां, फर्क बस यह है कि ये उत्सर्जन का जोखिम कम करने के लिए जलवायु के अनुकूल परियोजनाओं का चयन करेगी।

ये प्रस्ताव सराहनीय हैं लेकिन शक्ति संतुलन के मामले में ये भी विकासशील देशों को अधीनस्थ समझना जारी रखते हैं। इन मामलों में भी अमीर देशों की ओर से जोखिम की बढ़ी हुई चाह की आवश्यकता नहीं होती है। संभावना इस बात की रहती है कि विकासशील देशों को इसकी पेशकश जलवायु परिवर्तन को सीमित रखने की शर्त पर की जाएगी।

इसके लिए जरूरी है कि पश्चिम के देश विकासशील देशों में तेजी से निवेश करें। वे वृहद आर्थिक जोखिम पर हेजिंग के जरिये नियंत्रण करेंगे लेकिन जोखिम के गलत मूल्यांकन की समस्या को हल नहीं करेंगे जो कि मूल दिक्कत है।

उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश इस मुद्दे को हल करने के लिए काफी कुछ कर सकते हैं। जबकि अब तक वे बस चुपचाप खड़े देखते रहे हैं। भारत और इंडोनेशिया की जी 20 की अध्यक्षता में ऐसे सवालों पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया:

बहुपक्षीय विकास बैंकों को मुद्रा का पूरा जोखिम विकासशील देशों पर क्यों थोपना चाहिए?

क्या यह उनकी मुद्रा का बेहतर उपयोग नहीं होगा कि परियोजनाएं तैयार करने और विदेशी मुद्रा में सुशासन और संस्थागत सुधार संबंधी ऋण के बजाय मुद्रा के जोखिम का बोझ लिया जाए?

हम इस डिफॉल्ट प्रतिक्रिया को क्यों स्वीकार करें कि इससे उनकी एएए रेटिंग प्रभावित होगी। स्थानीय मुद्रा में ऋण देने से काफी मात्रा में पूंजी उपलब्ध होगी।

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जी 20 की उभरती अर्थव्यवस्थाएं भी अपनी तरह से काफी कुछ कर सकती हैं। जब श्रीलंका कर्ज संकट से जूझ रहा था, मैंने दलील दी थी कि भारत को उसका कर्ज रुपये में अधिग्रहीत कर लेना चाहिए और श्रीलंका का भविष्य का कर्ज रुपये में होना चाहिए। यह देखना अच्छा रहा कि कुछ हद तक ऐसा हुआ है।

अफ्रीकी देश अपने मौद्रिक संगठनों का इस्तेमाल करके स्थानीय मुद्रा में ऋण जारी कर सकते हैं। मैक्सिको और ब्राजील दक्षिण अमेरिका में ऐसा ही कर सकते हैं। अगर इस प्रस्ताव को सार्वभौमिक बनाया गया तो उभरते देशों की अर्थव्यवस्थाओं को भी अपने वृहद आर्थिक प्रबंधन की जिम्मेदारी लेनी होगी।

वृहद आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय मुद्रा में ऋण अहम है। ऐसा करने से जोखिम में और कमी की जा सकती है। भारत इसका सशक्त उदाहरण है। आकार की समस्या हल की जा सकती है और कई तरह के हलों की अपेक्षा की जा सकती है। लेकिन तब अमीर देशों को ‘हमारे साझा ग्रह’ के बचाव में सत्ता सौंपनी होगी। गरीबी, स्वास्थ्य, शिक्षा और समृद्धि आदि ने उन्हें ऐसा करने के लिए पर्याप्त प्रेरणा नहीं दी। हमें देखना होगा कि क्या जलवायु परिवर्तन से बचने की बात अमीर देशों को इस बात के लिए प्रेरित करती है कि वे अपने बच्चों के हित में काम करें।

(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं)

First Published - June 28, 2023 | 7:10 PM IST

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