भारतीय इलेक्ट्रिक वाहन निर्माता कंपनियां चीन द्वारा दुर्लभ खनिज मैग्नेट पर लगाई पाबंदियों का दंश महसूस करने लगी हैं। ये मैग्नेट इलेक्ट्रिक मोटर वाहन एवं अन्य वाहन पुर्जों के लिए काफी महत्त्वपूर्ण होती हैं। चीन ने 4 अप्रैल को मैग्नेट के निर्यात पर पाबंदी लगा दी थी और समाचार पत्रों की खबरों के अनुसार भारतीय वाहन पुर्जा एवं वाहन कंपनियों के पास इनका उपलब्ध भंडार समाप्त होने की कगार पर पहुंच गया है। वाहन एवं सहायक उद्योग का एक प्रतिनिधिमंडल संभवतः चीन जाकर इस बात का पता लगाना चाहता है कि दुर्लभ खनिज की आपूर्ति की राह में रोड़ा बनने वाली नई प्रक्रियात्मक बाधाओं का बातचीत के जरिये समाधान निकल सकता है या नहीं। भारतीय ईवी कंपनियां मदद के लिए केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के अधिकारियों से भी गुहार लगा रही हैं।
मैग्नेट की आपूर्ति से जुड़ी यह समस्या स्पष्ट संकेत है कि भारत के ईवी एवं स्वच्छ ऊर्जा से जुड़े बड़े लक्ष्य किस तरह आयात (ज्यादातर) पर निर्भर हैं। केवल मैग्नेट ही नहीं बल्कि भारत दुर्लभ तत्त्वों (17 खनिजों का समूह जिसे आवर्त सारणी में लैंथेनाइड के रूप में वर्गीकृत किया गया है) के लिए आयात पर निर्भर है। दुर्लभ खनिज कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे हरित ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स (रक्षा इलेक्ट्रॉनिक्स सहित) एवं कई अन्य के लिए अति आवश्यक माने जाते हैं। हालांकि, इन खनिजों की काफी कम मात्रा की जरूरत होती है मगर तब भी वे काफी जरूरी होते हैं।
भारत के लिए मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होतीं। स्वच्छ ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाने के लिए जरूरी खनिज जैसे लीथियम, कोबाल्ट, ग्रेफाइट और निकल की आपूर्ति में आने वाली बाधाएं भी भारत को पीछे धकेल सकती हैं। भारत महत्त्वपूर्ण धातु एवं खनिजों की आपूर्ति व्यवस्था सुनिश्चित करने में कामयाब नहीं रहा है और इस बात को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। यह स्थिति तब है जब भारत में उन खनिजों के बड़े भंडार हैं जिनका वह आयात करता है। केंद्र एवं राज्य सरकारें खनिजों की खोज एवं उनके खनन में पिछले कई दशकों से सुस्त रही है और लालफीताशाही का शिकार रही हैं। सबसे अफसोसनाक बात यह रही है कि सरकार ने महत्त्वपूर्ण खनिजों के प्रसंस्करण की पूरी तरह अनदेखी की है। इसका सीधा असर यह होगा कि भारत जब तक युद्ध स्तर पर इस दिशा में आगे नहीं बढ़ेगा तब तक आयात पर उसकी निर्भरता बनी रहेगी। हाल में सरकार ने दुर्लभ धातुओं सहित खनिजों की खोज एवं उनका खनन तेज करने के लिए कुछ घोषणाएं की हैं। मगर ये सब सामान्य घोषणाएं हैं जिनसे बड़ा फर्क पड़ता नहीं दिखाई दे रहा है इसलिए सरकार को नए सिरे से सोचने की जरूरत है। लीथियम, दुर्लभ खनिजों, ग्रेफाइट और कोबाल्ट सहित कई खनिजों के प्रसंस्करण में भारत को एकदम नए सिरे से काम करना होगा।
पिछले कुछ वर्षों से वैश्विक स्तर पर लीथियम, दुर्लभ खनिज तत्व, कोबाल्ट, निकल और ग्रेफाइट पर चीन की पकड़ बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और भारत सहित अधिकांश देश चीन से आपूर्ति तंत्र में आने वाले व्यवधानों के जोखिम से अछूते नहीं रहे हैं। अब वे धीरे-धीरे चीन पर निर्भरता कम करने के लिए कदम उठा रहे हैं मगर इसमें कई वर्ष लग जाएंगे।
भारत जिन महत्त्वपूर्ण खनिजों का आयात करता है उनमें कुछ (जैसे कोबाल्ट और दुर्लभ खनिजों) के विशाल भंडार यहां उपलब्ध हैं। बताया जा रहा है कि भारत में कोबाल्ट का एक चौथाई या पांचवां सबसे बड़ा अनुमानित भंडार उपलब्ध है। दुर्लभ खनिजों में दिलचस्पी बढ़ने के बाद देश के कई हिस्सों में इन तत्त्वों की खोज हुई है।
लीथियम जैसे दूसरे खनिजों की बात करें तो भारत और चीन दोनों में कहीं भी ज्ञात विशाल भंडार नहीं है। ऑस्ट्रेलिया, अर्जेन्टीना, बोलीविया और चिली में लीथियम के बड़े भंडार उपलब्ध हैं और अमेरिका में भी इसकी कमी नहीं हैं मगर चीन की इसलिए तूती बोलती है क्योंकि उसने लीथियम और कोबाल्ट दोनों के ही सबसे बड़े प्रसंस्करण संयंत्र स्थापित किए हैं। डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो में कोबाल्ट का सबसे बड़ा ज्ञात भंडार है मगर चीन ने वहां बड़े खदानों पर नियंत्रण कर एक मजबूत आपूर्ति व्यवस्था विकसित कर ली है। इसके साथ ही चीन ने कोबाल्ट के परिष्करण के लिए एक बड़ी प्रसंस्करण क्षमता भी स्थापित कर ली है। दुर्लभ खनिजों और ग्रेफाइट में चीन खनन और प्रसंस्करण दोनों में ही आगे है।
पिछले कई दशकों के दौरान भारत ने जरूरी खनिजों की खोज एवं उनके खनन पर काफी कम ध्यान दिया है। इन खनिजों की खोज एवं उनके खनन की जिम्मेदारी कुछ गिनी-चुनी सरकारी कंपनियों को दी गई है। हालांकि, भारत में भी अब नीलामी के जरिये निजी क्षेत्र को अनुमति देने का सिलसिला शुरू हो गया है मगर इस प्रक्रिया को बहुत अधिक सफलता नहीं मिली है। वैश्विक निजी कंपनियां खोज एवं अन्वेषण में बड़े जोखिम लेने के लिए अधिक मुनाफे की मांग कर रही हैं और अब तक भारत में नीलामी का ढांचा उन्हें आकर्षित करने में कामयाब नहीं लग रहा है।
यह भी सच है कि भारत ने प्रसंस्करण क्षेत्र पर भी ध्यान नहीं दिया है। प्रसंस्करण क्षेत्र पर ध्यान देने से आयात पर निर्भरता कम करने में मदद मिलेगी। हमें इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक सुनियोजित उत्पादन-संबंधी प्रोत्साहनों (पीएलआई) योजना की जरूरत है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रसंस्करण कार्यों से देश में उत्सर्जन बढ़ता है मगर उपयुक्त नीतियों के जरिये इस समस्या का असर कम किया जा सकता है। लीथियम, कोबाल्ट या दुर्लभ खनिजों के साथ प्राकृतिक हाइड्रोजन भंडारों और थोरियम (परमाणु ऊर्जा में इसकी उपयोगिता को देखते हुए) को भी खोज एवं खनन की प्राथमिकताओं में शामिल किया जाना चाहिए। ये अगले कुछ दशकों में ऊर्जा उत्पादन क्षमताओं को नई दिशा देंगे। पहला थोरियम आधारित बिजली संयंत्र चीन में तैयार हो चुका है और अमेरिका भी थोरियम आधारित परमाणु ऊर्जा में शोध कर रहा है। यह खनिज भविष्य में काफी उपयोगी होगा और अच्छी बात यह है कि भारत में थोरियम का बड़ा भंडार मौजूद है।
प्राकृतिक हाइड्रोजन किसी भी हरित हाइड्रोजन परियोजना की तुलना में काफी सस्ता होगा। इसमें आत्मनिर्भरता सुनिश्चित नहीं करने की स्थिति में भारत को चीन एवं उन दूसरे देशों पर निर्भर रहना होगा जो इन क्षेत्रों में प्रसंस्करण एवं खनन क्षमता विकसित कर रहे हैं। वर्ष 2030 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर आगे बढ़ता दिख रहा भारत दूसरे देशों पर निर्भर रहने का जोखिम मोल नहीं ले सकता।
(लेखक बिजनेस टुडे और बिजनेसवर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजेक व्यू के संस्थापक हैं।)