दुनिया भर में ’15 मिनट सिटी’ बनाने की कोशिश हो रही है, जहां शहर के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचने में केवल 15 मिनट लगें। लेकिन भारतीय महानगरों में एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक पहुंचना जंग जीतने से कम नहीं है, जिसमें 2 घंटे या उससे भी ज्यादा लग जाते हैं। हम हरित इमारतों (ग्रीन-सर्टिफाइड बिल्डिंग) का जश्न मना रहे हैं और औसत शहरवासी लचर व्यवस्था से बुरी तरह उकताया हुआ है। यह अजीब विरोधाभास है।
हरित इमारतों को बढ़ावा देने में भारतीय शहर काफी आगे हैं। हाल में ही 1,400 हरित इमारत परियोजनाओं को मंजूरी देकर उत्तर प्रदेश सुर्खियों में रहा। ये परियोजनाएं 1.6 अरब वर्ग फुट में बनेंगी। दिल्ली में भी साइबर हब और साइबर पार्क ग्रीन सर्टिफिकेशन यानी पर्यावरण के अनुकूब होने का प्रमाणपत्र मिलने पर इतराए पड़े है। मगर सवाल यह है कि ऊर्जा बचाने वाली ऐसी लीड सर्टिफाइड मीनारों का क्या फायदा, जिनमें बने दफ्तरों के कर्मचारी रोजाना दो-दो घंटों तक संकरी और भीड़ भरी सड़कों पर फंसे रहें, गंदी हवा में सांस लेते रहें और पेट्रोल-डीजल जलाते रहें? पर्यावरण की चिंता केवल इमारतों के भीतर नहीं बल्कि पूरे शहर के काम करने के तरीके में दिखनी चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) का अनुमान है कि दुनिया भर में 30 फीसदी ऊर्जा इमारतों के रखरखाव में खर्च होती है और 26 फीसदी उत्सर्जन भी उन्हीं से होता है। कुल मिलाकर एक तिहाई ऊर्जा खपत और उत्सर्जन दुनिया भर की इमारतों से ही होता है, जिसमें इमारतें बनाना, उन्हें गर्म या ठंडा रखना, घर-दफ्तर रोशन करना तथा उनमें लगे उपकरण चलाना भी शामिल है। इसलिए शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत और दुनिया में हरित इमारतें बहुत जरूरी हैं। उन्हें ऐसे बनाया जाता है कि कम से कम ऊर्जा में अधिक से अधिक काम हो जाए, जल संरक्षण तथा संसाधन प्रबंधन बेहतर हो ताकि पर्यावरण पर कम से कम असर पड़े। हरित इमारतें पैसिव कूलिंग (ऊर्जा के बजाय कुदरती तरीकों से इमारत ठंडी रखना) तकनीक, नवीकरणीय ऊर्जा और पर्यावरण के अनूकूल सामग्री का इस्तेमाल कर कार्बन उत्सर्जन घटाती हैं तथा रहने वालों को ज्यादा आराम दिलाती हैं।
भारत भी इस मुहिम में जुट गया है और यूएस ग्रीन बिल्डिंग काउंसिल हर साल लीड (लीडरशिप इन एनर्जी ऐंड एनवायरन्मेंट डिजाइन) के मामले में शीर्ष 10 देशों और क्षेत्रों की जो सालाना सूची जारी करती है, उसमें इस समय वह तीसरे स्थान पर है। 2024 में भारत में कुल 85 लाख वर्ग मीटर क्षेत्रफल वाली 370 परियोजनाओं को लीड से प्रमाणपत्र मिले। भारतीय हरित भवन परिषद (आईजीबीसी) और अन्य प्रमाणन संस्थाओं ने लीड, गृह (ग्रीन रेटिंग फॉर इंटीग्रेटेड हैबिटेट असेसमेंट) तथा एज रेटिंग वाली व्यावसायिक एवं रिहायशी इमारतों के निर्माण को बढ़ावा देकर इस अभियान को आगे बढ़ाया है। कन्फेडरेशन ऑफ रियल स्टेट डेवलपर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (क्रेडाई) ने 2030 तक 4,000 प्रमाणित हरित आवासीय परियोजनाओं को बढ़ावा देने के मकसद से आईडीबीसी के साथ हाथ मिलाया है।
हरित भवन जरूरी हैं मगर रामबाण नहीं हैं और पर्यावरण का ख्याल रखने वाले शहरीकरण की कोशिश में हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए। पर्यावरण को ताक पर रखने वाले शहर में हरित इमारत बना देना कोई मार्के की उपलब्धि नहीं कही जाएगी। टिकाऊपन का मतलब यह कतई नहीं है कि कोई इमारत ऊर्जा का कितना कारगर इस्तेमाल करती है बल्कि मतलब इस बात से है कि लोग शहर में कैसे आते-जाते हैं काम करते हैं और रहते हैं। अगर हम वास्तव में हरित शहर बनाने के लिए गंभीर हैं तो हमें प्रमाणन के साथ शहरी नियोजन पर भी दोबारा विचार करना होगा। हमें कम ऊर्जा खाने वाली इमारतों के साथ शहर को पैदल चलने लायक, सुगम और एकीकृत जन परिवहन वाला बनाने को तरजीह देनी होगी।
दिल्ली हो, बेंगलूरु हो या मुंबई हो, भारतीय महानगरों में दफ्तरी इलाके, बाजार और रिहायशी इलाके एक-दूसरे से मीलों दूर बने होते हैं। अब कोपेनहेगन जैसे शहर देखिए, जहां रोजाना 50 फीसदी आवाजाही साइकल पर होती है या सिंगापुर में बेमिसाल जन परिवहन व्यवस्था की वजह से शहरों में आवागमन बेहद कम कार्बन उत्सर्जन के साथ हो जाता है। इसलिए टिकाऊपन का मतलब यह नहीं है कि किसी इमारत के भीतर क्या हो रहा है बल्कि यह है कि बड़ी शहरी व्यवस्था में पर्यावरण की चिंता कैसे हो रही है। मगर भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में यह बदलाव आसान नहीं है। हां, शुरुआत जरूर की जा सकती है। जन परिवहन और यातायात को जोड़ना जरूरी है क्योंकि हरित इमारतें बेशक कार्बन उत्सर्जन घटाती हैं मगर शहर टिकाऊ तभी बनेंगे जब यह काम बहुत बड़े स्तर पर होगा।
दिल्ली, मुंबई और बेंगलूरु में मेट्रो का जाल फैल रहा है मगर घर से मेट्रो स्टेशन तक पहुंचना अब भी आसान नहीं है। बेतरतीब फुटपाथ, अनाप-शनाप किराये और साइकल लेन नहीं होने के कारण जन परिवहन में बहुत असुविधा होती है तथा लोग अपने वाहन से ही आना-जाना पसंद करते हैं। इतिहास टटोलें तो शहर वहां रहने वाले लोगों के लिए बनाए जाते थे। जयपुर, वाराणसी और हैदराबाद की पुरानी इमारतें बाजार, मंदिर और चौक के आसपास बनाई जाती थीं, जिससे लोग दफ्तर, बाजार या मनोरंजन के लिए पैदल ही चले जाते थे। आज देखिए तो भारत के शहर एकदम उलटे हो गए हैं। सड़कें बनती हैं, फुटपाथ दिखते ही नहीं हैं और हरियाली नई इमारतों की भेंट चढ़ती जा रही है। सुनियोजित और चलने लायक शहर में लोग थोड़ी दूर चलकर या साइकल चलाकर दफ्तर, स्कूल तथा पार्क पहुंच सकते हैं और रोजमर्रा की जरूरतें पूरी कर सकते हैं। शहर में पर्यावरण, जन स्वास्थ्य और आर्थिक किफायत के लिए यह जरूरी है। जरा सोचिए कि आने-जाने में ही कई घंटे खर्च कर देने पर लोगों की उत्पादकता कितनी कम होती होगी, मनोरंजन कहां मिलता होगा और शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ता होगा।
समय आ गया है कि हम हरित इमारतों की ही बात नहीं करें बल्कि उनके बीच शहरी जीवन को सहज, सरल बनाने पर भी ध्यान दें। लोग कैसे आते-जाते हैं, कैसे सार्वजनिक स्थानों तक पहुंचते हैं और शहरों को कैसे गाड़ियों या रियल्टी डेवलपरों नहीं बल्कि हर किसी के लिए बेहतर बनाया जाए। टिकाऊ शहर के लिए ऊर्जा की किफायत के साथ यह भी जरूरी है कि लोग उनमें आसानी से चल-फिर पाएं, जन परिवहन आसानी से मिले और शहरी ताने-बाने में हरियाली भी शामिल हो। चुनोती केवल बेहतर इमारत बनाने की नहीं है बल्कि शहरों को अधिक समावेशी, सेहतमंद तथा मजबूत बनाने की भी है।
(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कंपैटटिवनेस के अध्यक्ष हैं। आलेख में मीनाक्षी अजित का भी योगदान है)