पुरानी दिल्ली में स्थित डिलाइट सिनेमाघर में चौथे सप्ताह भी शाहरुख खान की फिल्म पठान का जलवा बरकरार है। हालांकि मॉर्निंग शो में लोगों की भीड़ कम है, लेकिन वे काफी उत्साहित दिखाई देते हैं।
मध्यातंर के समय कुछ लोग बाहर निकलकर स्नैक्स आदि का आनंद लेते दिखाई पड़ते हैं, जबकि कुछ लोग फिल्म के पोस्टर के साथ सेल्फी लेने में तल्लीन थे।
इसी तरह की भीड़ यहां से कुछ दूरी पर स्थित करोल बाग के लिबर्टी सिनेमा में भी दिखती है। वैलेन्टाइंस डे पर मैटिनी शो के दौरान यहां इस फिल्म को देखने के लिए कई जोड़े पहुंचे थे।
मल्टीप्लेक्स और ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) के इस दौर में जहां आशंका थी कि सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल का युग खत्म हो जाएगा पठान जैसी ब्लॉकबस्टर सिनेमा ने इसे जीवनदान दे दिया है।
लिबर्टी सिनेमा के मालिक राजन गुप्ता कहते हैं कोविड के झटके के बाद सिनेमाघरों को सामान्य स्थिति में वापसी का अहसास हुआ। लेकिन अच्छी फिल्मों की कमी के कारण व्यापार में भारी गिरावट आई । वह कहते हैं, ‘पठान के बाद यह स्पष्ट हो गया कि लोग सिनेमाघरों में नहीं आ रहे थे क्योंकि फिल्में अच्छी नहीं थीं।’
25 जनवरी को शाहरुख खान अभिनीत पठान रिलीज होने के नौ दिनों बाद तक लिबर्टी में सभी शो हाउसफुल थे।
गुप्ता कहते हैं, ‘हम हाशिये पर हैं और समय बताएगा कि क्या हम फिर से मुनाफा कमाने लगेंगे। लेकिन पठान ने जो किया है, वह दिखाता है कि बड़े पैमाने पर अच्छी फिल्में वास्तव में आवश्यक हैं। मल्टीप्लेक्स में भी पठान का व्यवसाय तमाम फिल्मों से कहीं ज्यादा है।’
डिलाइट के मालिक राज कुमार मेहरोत्रा कहते हैं कि 2019 उनके लिए सर्वश्रेष्ठ साल था क्योंकि उस साल 13 से 14 फिल्मों ने 100 करोड़ रुपये की बॉक्स ऑफिस कमाई की और प्रत्येक ने उन्हें अच्छा व्यवसाय दिया।
द कश्मीर फाइल्स और सूर्यवंशी जैसी फिल्मों के साथ साल 2022 की भी अच्छी शुरुआत हुई। हालांकि, पिछले छह महीनों में कई फ्लॉप फिल्मों ने चीजों में खटास ला दी। मेहरोत्रा कहते हैं, ‘लेकिन पठान के साथ वापसी हुई है और तीन सप्ताह के भीतर हमारे पास 1.10 करोड़ रुपये का संग्रह था, जो असाधारण है।’
सिंगल-स्क्रीन व्यवसाय अभी भी इस विश्वास पर कायम हैं कि मनोरंजन के बदलते पारिस्थितिकी तंत्र में उनका अपना स्थान बना रहेगा।
गुप्ता का मानना है कि एक मल्टीप्लेक्स में भीड़ की वह प्रतिक्रिया नहीं दिखती जो सिंगल स्क्रीन थिएटर करता है। वह कहते हैं, ‘सिंगल स्क्रीन के दर्शक बगल में कौन बैठा है और वह क्या सोचेगा इसकी बगैर परवाह किए खुलकर सीटियां और तालियां बजा सकते हैं।’
कीमतें सिंगल स्क्रीन की यूएसपी हैं। उदाहरण के लिए डिलाइट में टिकट की अधिकतम कीमत 210 रुपये हैं। इनमें अधिकांश टिकट 185 रुपये के करीब बिकती हैं और सुबह का शो महज 85 रुपये का रहता है।
गुप्ता हरियाणा के अंबाला में एक और सिंगल स्क्रीन थिएटर के मालिक हैं। यह महामारी के बाद से बंद पड़ा है। वह कहते हैं कि जनता क्या वहन करती है और क्या चाहती है और मल्टीप्लेक्स क्या प्रदान कर सकता है के बीच एक अंतर है। उन्होंने कहा कि केवल सिंगल स्क्रीन ही इस कमी को पूरा कर सकते हैं।
साथ ही सिंगल स्क्रीन भी मल्टीप्लेक्स की तुलना में दर्शकों को देखने के अनुभव को लेकर लुभाने की कोशिश करते हैं। डिलाइट भी 2006 में एक और दूसरी छोटी स्क्रीन जोड़ने के बाद एक मल्टीप्लेक्स की तरह की काम करता है।
मेहरोत्रा समझाते हैं, ‘मल्टीप्लेक्स का जब प्रवेश हुआ तो एक वर्ग विशेष वर्ग के लिए फिल्में सिंगल स्क्रीन से गायब हो गईं। इसलिए, हमने सोचा कि क्यों न छोटे दर्शकों के लिए 150 सीटों वाला एक और हॉल बना दिया जाए।’
सुपरहिट फिल्मों का आना जरूरी
पठान की सफलता के बावजूद, सिनेमा मालिकों का कहना है कि एक हिट फिल्म सिंगल स्क्रीन के भाग्य को पुनर्जीवित या बदल नहीं सकती है।
सिनेमा ओनर्स ऐंड एक्जिबिटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष नितिन दातार का कहना है कि कोविड-19 से पहले देश में टूरिंग सिनेमा सहित लगभग 6,500 सिंगल स्क्रीन थे। कोविड के बाद इनमें से कुछ 20-25 फीसदी फिर से नहीं खुले हैं।
दिल्ली के वितरकों के अनुसार, राष्ट्रीय राजधानी में चार सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर चल रहे हैं, जबकि पिछले एक दशक में लगभग 10 से 11 बंद हो गए हैं।
दातार कहते हैं कि भारत में हर साल विभिन्न भाषाओं में लगभग 1,800 फिल्में बनती हैं। इनमें से 250 हिंदी की रहती हैं। वह कहते हैं, ‘अधिसंख्य फिल्में फ्लॉप रहने के कारण सिंगल स्क्रीन के लिए एक हिट फिल्म मायने नहीं रखती। अच्छा कारोबार करने और टिके रहने के लिए हमें एक साल में करीब 40 सुपरहिट फिल्मों की जरूरत है।’
दातार कहते हैं, ‘महामारी के बाद सिंगल-स्क्रीन दर्शकों ने भी ओटीटी प्लेटफार्मों की ओर रुख किया है, जिन्हें स्मार्टफोन सहित छोटी स्क्रीन के माध्यम से एक्सेस किया जा सकता है।’ उन्होंने कहा कि मल्टीप्लेक्स से पहले के युग में जब सिंगल-स्क्रीन थिएटरों का कारोबार फलफूल रहा था, तब औसत सीट ऑक्यूपेंसी 80 फीसदी तक हुआ करती थी। अब यह घटकर 8-10 फीसदी रह सकती है।
दातार ने कहा, ‘हम शायद ही कोई पैसा कमाते हैं और मुनाफे का बड़ा हिस्सा रिलीज होने वाली बड़ी फिल्मों द्वारा ले लिया जाता है। वह मल्टीप्लेक्स के विपरीत, सिंगल स्क्रीन के लिए शायद ही कुछ भुगतान करते हैं, जो संग्रह का 50 फीसदी प्राप्त करते हैं। सिंगल स्क्रीन को कुल संग्रह का 10-15 फीसदी हिस्सा मिलता है; बाकी वितरकों द्वारा लिया जाता है। सालाना लगभग 200 सिंगल स्क्रीन अपना संचालन बंद कर देते हैं।’
सिंगल स्क्रीन के मालिक भी उनकी गिरावट के प्राथमिक कारण के रूप में सरकारी समर्थन की कमी की ओर इशारा करते हैं और पारंपरिक सिनेमाघरों के मल्टीप्लेक्स में रूपांतरण को एक सम्मोहक विकल्प के रूप में देखते हैं। इस बीच मल्टीप्लेक्स स्क्रीन की संख्या भारत में लगभग 3,500 के करीब हैं।
सरकारी उदासीनता का हवाला देते हुए, दातार कहते हैं, ‘दिल्ली और महाराष्ट्र में सरकार सिनेमा मालिकों को कोई अन्य व्यवसाय करने की अनुमति नहीं देती है। आपको एक छोटा सा सिनेमा बनाए रखना है, जिससे नुकसान भी हो रहा है। मुझे नहीं लगता कि सिंगल स्क्रीन 10-15 साल से ज्यादा टिक पाएंगे। अधिसंख्य को मल्टीप्लेक्स में बदलना पड़ सकता है।’
उन्होंने कहा कि विभिन्न राज्यों में मल्टीप्लेक्स के उदय में मदद करने के लिए नीतियां थीं, जिनमें कर छूट शामिल थी। उनका कहना है, ‘शहरों में मल्टीप्लेक्स को प्रोत्साहित करने के बजाय सरकार की नीतियों को अधिक लोगों को सस्ती दर पर सिनेमा देखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।’
उन्होंने कहा कि परिवर्तन अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। वह कहते हैं, ‘अधिसंख्य सिंगल स्क्रीन घनी आबादी वाले क्षेत्रों में स्थित थे। पार्किंग की सुविधा के बिना कोई व्यवसाय संभव नहीं है। प्रोजेक्टर, स्क्रीन और साज-सज्जा की लागत करीब 2 करोड़ रुपये तक बढ़ जाएगी, अगर ऑक्युपेंसी 20-25 फीसदी तक बढ़ जाती है तो यह व्यवहार्य निवेश नहीं है।’
उनका सुझाव है कि सरकारी सब्सिडी के साथ दो से तीन स्क्रीन होनी चाहिए। बड़ी, 1,000 सीटों वाली स्क्रीन को दो स्क्रीन में बदला जा सकता है, लेकिन 600 की क्षमता वाले लोगों के लिए मल्टीप्लेक्स में बदलना बहुत मुश्किल है।