भारत के वेतनभोगी वर्ग का बड़ा हिस्सा किसी भी तरह के सामाजिक सुरक्षा लाभ में शामिल नहीं है। खासकर महामारी के बाद यह संख्या बढ़ी है। 2022-23 में वेतन वाली नौकरी या नियमित काम के लिए कॉन्ट्रैक्ट करने वालों की संख्या 21 प्रतिशत रही, जबकि महामारी के पहले 2019-20 में 23 प्रतिशत थी। सामाजिक सुरक्षा का लाभ पाने के पात्र न होने वाले वेतनभोगी कर्मचारियों की संख्या बढ़ी है।
नियमित/वेतनभोगी नौकरियों में से लगभग 54 प्रतिशत लोग वित्त वर्ष 23 में किसी भी सामाजिक सुरक्षा के पात्र नहीं थे, जबकि 5 साल पहले यह आंकड़ा 52 प्रतिशत था। सामाजिक सुरक्षा में बीमा योजना, पेंशन, स्वास्थ्य बीमा, मातृत्व लाभ और ग्रैच्यूटी शामिल हैं।
ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी आफ बाथ में सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज में अर्थशास्त्र के विजिटिंग प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा ने कहा कि महामारी के बाद अर्थव्यवस्था में सृजित रोजगार की गुणवत्ता को समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा, ‘गैर कृषि नौकरियों की वृद्धि सुस्त हुई है। यह उस दर से नहीं बढ़ी, जिसकी युवाओं को जरूरत है।’
उन्होंने कहा कि गैर कृषि वाली नौकरियों में वास्तविक वेतन स्थिर है या गिर रहा है। सामाजिक सुरक्षा लाभों में गिरावट काम की गुणवत्ता खराब होने और इस तरह की नौकरियों की संख्या में कमी को दर्शाता है।
उन्होंने कहा कि युवाओं, खासकर महिलाओं में शिक्षा के स्तर में सुधार का मतलब है कि वे कार्यबल में शामिल होने को इच्छुक हैं, लेकिन ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि नियमित काम की गुणवत्ता में कमी आई है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के पूर्व कार्यकारी चेयरमैन पीसी मोहनन ने कहा, ‘छोटे उद्यमों की आम धारणा कर्मचारियों की संख्या घोषित न करने की होती है, जिससे वे भविष्य निधि और अन्य सामाजिक सुरक्षा लाभों का भुगतान नहीं करते। हालांकि वे अपने कर्मचारियों को नियमित रूप से वेतन देते हैं।’ उन्होंने कहा कि 20 से ज्यादा कर्मचारी रखने वाले उद्यम अपने कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा लाभों का भुगतान देने के लिए बाध्य हैं।
सामाजिक सुरक्षा कवरेज में गिरावट शहरी केंद्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा है। हालांकि महामारी के दौरान शहरी इलाकों में किसी भी लाभ के लिए अपात्र कर्मचारियों की हिस्सेदारी बढ़ी है, जो वित्त वर्ष 23 में 49.4 प्रतिशत थी और यह वित्त वर्ष 2019 के समान थी। इसके विपरीत ग्रामीण इलाकों में अपात्रता वित्त वर्ष 19 में 56 प्रतिशत थी, जो वित्त वर्ष 2023 में बढ़कर 60 प्रतिशत हो गई है।
मेहरोत्रा ने कहा, ‘कोविड के दौरान 3 चक्रों में आवधिक श्रम बल सर्वे (पीएलएसएफ) चला। इस अवधि के दौरान करीब 5.9 करोड़ लोग कृषि क्षेत्र में जोड़े गए। कुल रोजगार में कृषि की हिस्सेदारी 2018-19 के 42 प्रतिशत से बढ़कर 2022-23 में 46 प्रतिशत हो गई।’ उन्होंने आगे कहा कि अब गांवों में तमाम श्रमिक हैं तो नौकरियां तलाश रहे हैं। इसलिए उन्हें कोई भी बदतर शर्तों में उन्हें रोजगार दे सकता है। उन्होंने कहा, ‘ग्रामीण इलाकों में श्रम बाजार मंदी में है, यही वजह है कि मनरेगा की मांग कम नहीं हुई है और सरकार अब इसका आवंटन बढ़ा रही है।’
मेहरोत्रा का कहना है कि कृषि क्षेत्र में नौकरियों का सृजन बढ़ा है और विकासशील अर्थव्यवस्था में जैसा होना चाहिए, यह उसके विपरीत है।
इसी तरह से लैंगिक आधार पर विश्लेषण से पता चलता है कि सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों में कुछ ही महिला कामगार शामिल है। नियमित नौकरियों/वेतन पर काम करने वाली महिलाओं में करीब 57 प्रतिशत किसी सामाजिक बीमा कार्यक्रम का लाभ नहीं पातीं। पुरुषों के मामले में यह आंकड़ा 53 प्रतिशत रहा है। राज्यवार भी स्थिति में अंतर है।
उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ में महज 15 प्रतिशत लोग वेतन वाली नौकरी कर रहे हैं और इनमें से 70 प्रतिशत सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम में शामिल नहीं हैं। इसकी तुलना में मिजोरम में वेतनभोगी कर्मचारियों की संख्या करीब 26 प्रतिशत है और उनकी सामाजिक सुरक्षा कवरेज बेहतर है। हालांकि, पंजाब में, जहाँ 33.4 प्रतिशत रोज़गार नियमित/वेतनभोगी नौकरियों से उत्पन्न होता है, सामाजिक सुरक्षा कवरेज कम है। उत्तर प्रदेश व राजस्थान जैसे राज्यों का भी बुरा हाल है।
मोहनन का कहना है कि छोटे राज्य व केंद्रशासित प्रदेशों जैसे मिजोरम में लोग नियमित काम करने वाले सामान्यतया संगठित क्षेत्र में हैं, जिससे उन्हें सामाजिक सुरक्षा का बेहतर लाभ मिल रहा है। उन्होंने कहा, ‘लेकिन बड़े राज्यों और दिल्ली जैसे शहरों में लोग छोटे उद्यमों में काम कर रहे हैं और वे ईपीएफओ व इस तरह की योजनाओं के पात्र नहीं हैं।’