मौजूदा सरकार, करीब एक दशक पहले सरकारी स्वामित्व वाली अस्थिर संपत्तियों के निजीकरण का लक्ष्य लेकर आई थी। लेकिन इस बीच व्यापार जगत में हुई कई गतिविधियों के चलते निजीकरण का लक्ष्य मुश्किल में दिख रहा है।
ब्लूमबर्ग की खबर के अनुसार, पहले से ही संघर्ष से जुझ रहा प्रधानमंत्री मोदी का विनिवेश अभियान अभी और बाधाओं का सामना कर रहा है। इस साल देश के कुछ बिजनेस टाइकून जांच के घेरे में आ गए है। इनमें गौतम अदाणी और अनिल अग्रवाल का नाम प्रमुख हैं। इन घटनाओं से प्रधानमंत्री मोदी के विनिवेश योजनाओं को झटका लग सकता है। वर्ष 2014 के बाद से, भारत में केवल एक प्रमुख कंपनी का निजीकरण किया गया है और हाल ही में कई उम्मीदवारों को रोक दिया गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि स्थिति भारत के लिए एक समस्या है क्योंकि दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश सार्वजनिक वित्त को बढ़ावा देने और वैश्विक मौद्रिक तंगी और बैंकिंग उथल-पुथल के प्रभाव को कम करने के तरीकों की तलाश कर रहा है। ब्लूमबर्ग की गणना के अनुसार, निजीकरण के लिए चिह्नित सात लिस्टेड कंपनियों का बाजार पूंजीकरण करीब 25 अरब डॉलर है।
विनिवेश की प्रक्रिया की जानकारी रखने वाले एक व्यक्ति ने पहचान न उजागर करने की शर्त पर कहा, IDBI बैंक की बिक्री के अलावा, जो पहले से ही चल रही है, अन्य कंपनियों के लिए विनिवेश की प्रगति धीमी हो गई है।
उस व्यक्ति ने आगे कहा, अगले साल भारत में होने वाले आम चुनाव बिक्री को और सुस्त कर सकते हैं, विशेष रूप से कानूनी या श्रमिक मुद्दों का सामना करने वाली कंपनियों के लिए। बाजार पर नजर रखने वालों को अब संदेह है कि सरकार अपने अभियान में निजीकरण को प्राथमिकता देगी।
2014 के बाद से, सरकार की कुल विनिवेश आय 4.7 ट्रिलियन रुपये है। दूसरे शब्दों में कहे तो वर्ष 2023 के लिए अपने प्रस्तावित व्यय बजट का लगभग 10वां हिस्सा रहा है। ब्लूमबर्ग की गणना के अनुसार, वर्तमान बाजार मूल्यांकन पर, सात सूचीबद्ध कंपनियों को बेचने से भारत सरकार को केवल 13 अरब डॉलर प्राप्त होगा।