जुलाई में पेश की गई वित्त वर्ष 2024 की आर्थिक समीक्षा ने चीनी निवेश को भारत में अनुमति देने की वकालत की थी। इसे सरकार के तीसरी बार सत्ता में आने के बाद नीति में बदलाव के संकेत के रूप में देखा गया। हालांकि, वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने जल्द ही स्पष्ट किया कि सरकार की ओर से चीनी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) पर समर्थन को लेकर कोई बदलाव नहीं किया गया है, जिससे यह मामला शांत हो गया।
हाल के महीनों में, भारत द्वारा चीनी नागरिकों के लिए व्यापार वीज़ा प्रक्रिया को तेज करना, लद्दाख सीमा पर सैनिकों की वापसी और वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के बयानों ने भारत-चीन आर्थिक संबंधों पर नए सिरे से विचार-विमर्श का संकेत दिया है।
भारत का लक्ष्य अगले कुछ सालों में $100 अरब का सकल एफडीआई आकर्षित करना है, जो वर्तमान में लगभग $70 अरब के आसपास है। साथ ही, भारत को विनिर्माण केंद्र बनाने की कोशिशों के बीच चीनी एफडीआई को अनुमति देना या रोकना एक महत्वपूर्ण निर्णय बन गया है।
वित्त वर्ष 2024 में एफडीआई इक्विटी निवेश पांच साल के निचले स्तर $44.42 अरब पर पहुंच गया, जो साल-दर-साल 3.5 प्रतिशत की गिरावट है। हालांकि, वित्त वर्ष 2025 की पहली छमाही (अप्रैल-सितंबर) में यह 45 प्रतिशत बढ़कर $29.8 अरब हो गया है, जिससे चिंता कुछ कम हुई है।
भारत में चीनी निवेश: नियम और चुनौतियां
साल 2020 में गलवान संघर्ष के बाद भारत ने उन देशों से निवेश पर पाबंदियां लगाई, जिनसे उसकी सीमा जुड़ी है। इसका मकसद अवसरवादी अधिग्रहण को रोकना था। इसे प्रेस नोट 3 (2020) कहा गया। इसके तहत किसी भी निवेश के लिए सरकार से मंजूरी जरूरी है, खासकर जहां निवेश का लाभ किसी सीमा साझा करने वाले देश से जुड़े व्यक्ति को हो।
अप्रैल 2020 से सितंबर 2024 के बीच भारत सरकार ने चीन से सिर्फ $127.2 मिलियन के एफडीआई को मंजूरी दी। अप्रैल 2000 से सितंबर 2024 तक चीन से भारत में कुल $2.5 बिलियन का निवेश हुआ, जो भारत में आए कुल एफडीआई का सिर्फ 0.35% है। हालांकि, आंकड़ों के अनुसार, ज्यादातर चीनी निवेश सिंगापुर और मॉरीशस जैसे देशों के जरिए भारत आता है, जिससे इसका सही आकलन नहीं हो पाता।
वित्त वर्ष 2024 की आर्थिक समीक्षा में मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन ने कहा कि भारत के पास दो विकल्प हैं: चीन की सप्लाई चेन में जुड़ना या चीन से एफडीआई को बढ़ावा देना। समीक्षा में कहा गया कि चीनी एफडीआई पर फोकस करना भारत के लिए अधिक फायदेमंद हो सकता है, खासकर अमेरिका को निर्यात बढ़ाने के लिए, जैसा कि पूर्व में पूर्वी एशियाई देशों ने किया।
समीक्षा ने यह भी तर्क दिया कि जैसे-जैसे अमेरिका और यूरोप चीन से सप्लाई हटाकर वैकल्पिक स्रोत तलाश रहे हैं, यह बेहतर होगा कि चीनी कंपनियां भारत में निवेश करें और यहां से प्रोडक्ट्स को इन बाजारों में निर्यात करें। इससे भारत को ज्यादा फायदा होगा, बजाय इसके कि चीन से सामान मंगाकर उस पर थोड़ा बदलाव करके फिर से निर्यात किया जाए।
भारत-चीन व्यापार और एफडीआई पर भारत की सतर्कता
सितंबर में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि भारत चीन के साथ व्यापार के लिए बंद नहीं है। उन्होंने बर्लिन में एक सम्मेलन में कहा, “मुद्दा यह है कि आप किस क्षेत्र में व्यापार करते हैं और किन शर्तों पर करते हैं। यह काले और सफेद में बंटी सरल स्थिति नहीं है।”
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस पर अधिक सतर्क रुख अपनाया। अक्टूबर में व्हार्टन बिजनेस स्कूल में एक सत्र के दौरान उन्होंने कहा कि भारत अपने संवेदनशील पड़ोस को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय हित में एफडीआई पर प्रतिबंध लगाएगा। सीतारमण ने कहा, “मैं सिर्फ इसलिए एफडीआई स्वीकार नहीं कर सकती क्योंकि हमें निवेश की जरूरत है। हमें व्यापार और निवेश चाहिए, लेकिन सुरक्षा उपाय भी जरूरी हैं।”
उनके यह बयान रूस के कज़ान में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की द्विपक्षीय बैठक से पहले आए।
वित्त आयोग के अध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने भी जयशंकर जैसे विचार रखते हुए कहा कि भारत को सिर्फ कुछ संवेदनशील क्षेत्रों में चीनी निवेश को प्रतिबंधित करना चाहिए और अन्य क्षेत्रों को खोल देना चाहिए, जहां अन्य देश भी चीनी निवेश को स्वीकार कर रहे हैं। उन्होंने कहा, “शायद हम कुछ क्षेत्रों की पहचान कर सकते हैं और बाकी में निवेश को अनुमति दे सकते हैं। अगर अमेरिका और जर्मनी चीन से निवेश ले रहे हैं, तो मैं भी इसके लिए तैयार हूं।”
हालांकि, अमेरिका ने सेमीकंडक्टर, क्वांटम कंप्यूटिंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रक्षा और उभरती तकनीकों जैसे क्षेत्रों में चीनी निवेश पर सख्त प्रतिबंध लगाए हैं। वहीं, यूरोपीय संघ के देशों की नीति इस पर स्पष्ट नहीं है। कुछ देश एडवांस तकनीकों, रणनीतिक उद्योगों, और दूरसंचार, ऊर्जा और परिवहन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में चीनी निवेश पर कड़ी नजर रखते हैं।
रॉडियम ग्रुप की एक शोध रिपोर्ट में बताया गया कि जहां ब्राजील और तुर्की ने चीनी इलेक्ट्रिक वाहनों के आयात पर प्रतिबंध लगाए हैं, वहीं इन क्षेत्रों में चीनी एफडीआई को आकर्षित करने के लिए कदम उठाए हैं।
भारत-चीन एफडीआई: संतुलन की चुनौती
प्रेस नोट 3 के तहत ‘बेनिफिशियल ओनर’ क्लॉज के अस्पष्ट प्रावधानों ने यूरोप और अमेरिका के प्राइवेट इक्विटी व वेंचर कैपिटल फंड्स के लिए मुश्किलें खड़ी की हैं, खासकर जब इनमें सीमा साझा करने वाले देशों से वित्तीय निवेशक या सीमित भागीदार शामिल होते हैं। सर्फ एंड पार्टनर्स के वरिष्ठ भागीदार वैभव कक्कड़ ने कहा कि भले ही भारत और चीन के बीच सीमा तनाव में कमी आई हो, लेकिन भारतीय सरकार प्रेस नोट 3 को लेकर अपने कड़े रुख में ढील देती नहीं दिख रही।
देसी एंड दिवानजी की पार्टनर नताशा ट्रेजरीवाला ने कहा कि प्रेस नोट 3 की आवश्यकता को समझा जाता है, लेकिन इसे सरल बनाने और निवेशकों के लिए स्पष्टता की जरूरत है। उन्होंने सुझाव दिया कि निर्माण उपकरण, विनिर्माण, बैटरी और इलेक्ट्रिक वाहन जैसे क्षेत्रों को चीनी निवेश से काफी फायदा हो सकता है। उन्होंने कहा, “प्रेस नोट 3 को पूरी तरह रोकने की बजाय केवल उन्हीं सौदों या क्षेत्रों को इसके दायरे में लाना चाहिए, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हो सकते हैं।”
खैतान एंड कंपनी के पार्टनर अतुल पांडे ने कहा कि चीन से एफडीआई महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत अभी भी चीन से आयात पर निर्भर है। उन्होंने कहा, “चीनी कंपनियों को भारत में निवेश की अनुमति देकर, खासकर विनिर्माण क्षेत्र में, आयात बिल कम किया जा सकता है और घरेलू उत्पादन मजबूत किया जा सकता है।”
भारत कई वर्षों से चीन पर आयात निर्भरता कम करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन वित्त वर्ष 2025 के पहले छह महीनों में भारत-चीन व्यापार घाटा लगभग $50 अरब तक पहुंच गया। ऐसे में भारत को चीन से एफडीआई पर जल्दी कोई स्पष्ट निर्णय लेना होगा, खासकर जब चाइना प्लस वन रणनीति अब तक मोबाइल निर्माण जैसे कुछ क्षेत्रों को छोड़कर खास परिणाम नहीं दे सकी है।
आर्थिक सर्वेक्षण ने भी कहा है कि भारत को चीन से वस्तुओं के आयात और पूंजी (एफडीआई) के आयात के बीच सही संतुलन बनाना होगा।
मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन ने हाल ही में कहा कि यदि भारत चीन के साथ अपना व्यापार घाटा बढ़ाता रहा, तो वह उस पर निर्भर होता जाएगा। उन्होंने कहा, “यदि हम उन्हें (चीन को) निवेश के लिए प्रोत्साहित करते हैं, तो इसके अपने अलग तरह के जोखिम हैं। यह सिर्फ भारत का नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों का मुद्दा है, लेकिन भारत की स्थिति अलग और बड़ी है।”