वित्तीय बाजारों और राजनीतिक हलकों में हो रहे शोर शराबे से दूर बुनियादी ढांचे की कमियों से जुड़े कुछ तथ्यों पर नजर डालते हैं। इस समय इस बात की सख्त आवश्यकता है कि हम समुचित और सक्षम नियमन के माध्यम से अपनी संचार श्रृंखला की कमियों को दूर करें।
आप यह सोच सकते हैं कि इस दौर में भारत में शासन डिजिटलीकरण और डिजिटल संचार पर केंद्रित है। यह हमारी अहम बुनियादी ढांचा संबंधी आवश्यकता है जिसमें परिवहन और ऊर्जा भी शामिल हैं। डिजिटलीकरण को लेकर घोषित की गई नीतियों तथा अन्य घोषणाओं से कोई भी व्यक्ति यह अनुमान लगा सकता है कि सरकार इन क्षेत्रों को प्राथमिकता देती है। ऐसे में यह ठहराव क्यों आया है?
भारत को इस क्षेत्र में अपनी दृढ़ता पर गर्व है लेकिन इस क्षेत्र पर किए जाने वाले व्यय की जमीनी हकीकत, इसकी नीतियां और वास्तविक सुधार आदि में वह नजर नहीं आती। कई तात्कालिक आवश्यकताएं सरकारी फंड की नहीं बल्कि समय पर और उचित नीतिगत प्रतिक्रियाओं की हैं।
सन 2022 के संशोधित आंकड़ों में सड़क, रेलवे और संचार पर होने वाले व्यय पर नजर डालें तो सड़क और रेलवे पर होने वाला व्यय संचार पर होने वाले व्यय की तुलना में दोगुने से अधिक रहा। संचार के लिए अगले वर्ष भी कम बढ़ोतरी की गई है। 1.23 लाख करोड़ रुपये की राशि में से बीएसएनएल को 52,937 करोड़ रुपये मिले जबकि बाकी दूरसंचार कंपनियों को 44,642 करोड़ रुपये और डाक परियोजनाओं को 25,814 करोड़ रुपये दिए गए।
जोर इस बात पर है कि डिजिटलीकरण और संचार वास्तव में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या उल्लिखित राशि बहुत कम नहीं है? चूंकि किफायत और उत्पादकता से वृद्धि को गति मिलती है इसलिए जलवायु परिवर्तन से निपटना, जीवन जीने की परिस्थितियां और तकनीक, पूंजी, जमीन और मानव संसाधन के मिश्रण से इतर डिजिटल प्रभाव और क्षमताओं को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। हालांकि हम इस बात को सहजता से स्वीकार नहीं करते हैं कि संचार एक प्रमुख क्षमता है।
बीते कई वर्षों में कुछ परिस्थितियों से जिस प्रकार निपटा गया उससे पता चलता है कि कैसे नीतिगत कमियों से सोद्देश्य निपटा जाना चाहिए। वोडाफोन मामले से पहले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार और बाद में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार जिस प्रकार निपटीं वह समस्या को बढ़ाने वाली घटना थी। वोडाफोन मनमाने ढंग से थोपे गए अतीत से लागू कर से जूझ रही थी।
2007 में लगाए गए इस कर संबंधी निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय ने 2012 में पलट दिया। तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी एक कानून लाए थे जिसके तहत अतीत की तिथि से कानून बदलकर भारतीय कंपनियों में विदेशी हिस्सेदारी पर कर लगाया जा सकता था। वोडाफोन तथा अन्य सेवा प्रदाता लाइसेंस शुल्क के मामले से भी जूझ रहे थे जो दूरसंचार राजस्व पर लगाई गई थी। 2003 से मांगे जा रहे समेकित सकल राजस्व पर ब्याज भी बढ़ रहा था।
अगस्त 2021 में सरकार ने वोडाफोन पर अतीत से लागू कर के मामले को बंद किया जब एक पंचाट ने सरकार के खिलाफ निर्णय दिया। सितंबर 2021 में एक राहत पैकेज के माध्यम से कर्ज अदायगी के लिए चार वर्ष का समय दिया गया। जबकि गैर दूरसंचार राजस्व को लाइसेंस शुल्क की गिनती से बाहर कर दिया गया। यह राहत अस्थायी थी क्योंकि पूरे बकाये पर ब्याज लगातार बढ़ रहा था।
वोडाफोन आइडिया और भारत के उपभोक्ताओं को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। उन्हें अपेक्षित सेवाएं नहीं मिल पा रही थीं। ऐसे में गत 3 फरवरी को सरकार ने निर्णय लिया कि वोडाफोन के 16,133 करोड़ रुपये के बकाये को सरकारी हिस्सेदारी में बदला जाएगा। इस बीच वोडाफोन आइडिया के ग्राहक तेजी से कम हो रहे थे और 2.1 करोड़ ग्राहक गंवाकर नवंबर 2022 के अंत में वह 2.44 करोड़ से भी कम ग्राहकों पर सिमट गई थी।
कंपनी के कर्ज में काफी इजाफा हुआ क्योंकि सरकार को विचार आया कि सरकार द्वारा कर्ज को शेयर में बदलने के पहले वोडाफोन आइडिया को और निवेश करना चाहिए। स्पष्ट है कि भविष्य की नीतियों को स्थिर और जनहित में अच्छी तरह विचार करके बनाया जाना चाहिए।
विडंबना यह है कि ब्रिटेन और यूरोप में वोडाफोन ऑरेंज, बीटी, टेलीफोनिका और डॉयचे टेलीकॉम से बेहतरीन ढंग से मुकाबला करती है। वह 12 देशों में यूरोप का सबसे बड़ा 5जी नेटवर्क संचालित करती है। कुमार मंगलम बिड़ला समूह के साथ साझेदारी में वह भारत में इकलौती विदेशी दूरसंचार कंपनी बची है।
अगर सरकार ने अतीत से लागू कर तथा एजीआर को लेकर समय पर उचित कदम उठाए होते तो क्या होता? शायद एक अरब से अधिक ग्राहकों वाले इस बाजार में तीन मजबूत सेवा प्रदाता होते। एक और क्षेत्र है वायरलेस नीतियों और ऑप्टिकल फाइबर का।
रेटिंग फर्म इक्रा ने हाल ही में कहा था कि पूरे देश में पूर्णकालिक स्तर पर 5जी सेवाओं का प्रयोग शुरू करने के लिए करीब तीन लाख करोड़ रुपये का निवेश करना होगा। ऐसा इसलिए कि करीब दोतिहाई टावरों में फाइबर कनेक्टिविटी नहीं है। भारी निवेश की संभावना नहीं दिख रही है क्योंकि दूरसंचार कंपनियों पर मार्च 2023 तक 6.3 लाख करोड़ रुपये का कर्ज होने की आशंका है।
फाइबर की उच्च लागत को देखते हुए तथा इंस्टॉलेशन की जमीनी कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए यह बात चकित करती है कि दूरसंचार विभाग के हमारे नीति निर्माताओं ने कभी इस तात्कालिक आवश्यकता को नहीं समझा कि टावरों के लिए भी वायरलेस नीतियां बनाई जाएं। जबकि अन्य देशों में ऐसे सफल मॉडल मौजूद हैं।
विभाग ने अक्टूबर 2018 में 5 गीगाहर्ट्ज के लिए वायरलेस को सक्षम बनाने का नियमन पेश किया। हालांकि नियमन के बाद इस दिशा में आगे कदम बढ़ाए जाने जैसी कोई बात देखने को नहीं मिली। इस मामले में विभिन्न गीगाहर्ट्ज फ्रीक्वेंसी में जो अंतर मौजूद था उसे पाटना काफी महंगा पड़ने वाला था क्योंकि फाइबर ऑप्टिक केबल की कीमत काफी है।
इसके बावजूद कई अधिकारियों ने सभी तक फाइबर संचार पहुंचाने की बात की। बहरहाल हमारे देश के आकार, आबादी के वितरण और लागत-राजस्व ढांचे को देखते हुए यह किसी को भी अव्यावहारिक नजर आ सकता है।
अन्य अहम वायरलेस नियमन जिनकी जरूरत है उनमें वाई-फाई के लिए 6 गीगाहर्ट्ज को सक्षम बनाना शामिल है जिससे कि 10 गीगाहर्ट्ज की गति हासिल की जा सके तथा आयात पर निर्भर रहने के बजाय स्थानीय उत्पाद विकास और उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सके।
संसाधनों के इस्तेमाल और नियमन की बात करें तो संचार क्षेत्र पर बहुत अधिक जोर दिए जाने की आवश्यकता है ताकि समय पर सुविचारित नीतिगत हस्तक्षेप किए जा सकें। ऐसा करने से ही अर्थव्यवस्था और समाज का भला होगा।