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साप्ताहिक मंथन: रेखांकित हों वास्तविक सफलताएं

देश की थोक मूल्य मुद्रास्फीति सन 1970 के दशक के 9 फीसदी से घटकर 1980 के दशक में 8 फीसदी और फिर दो दशकों तक 6 फीसदी तक रही और बीते दशक में यह करीब 4 फीसदी के स्तर पर है।

Last Updated- July 21, 2023 | 11:42 PM IST

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वै​श्विक अर्थव्यवस्था के लिए भारत के बढ़ते महत्त्व को लेकर जो बातें हो रही हैं उनमें गलत मुद्दों को रेखांकित किया जा रहा है जबकि भारत के आ​र्थिक प्रबंधन में जो रेखांकन योग्य बदलाव आए हैं उनकी अनदेखी की जा रही है। भारत अब सबसे तेज बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था नहीं रह गया है। सऊदी अरब ने 2022 में 8.7 फीसदी की दर से वृद्धि हासिल की जबकि वियतनाम 8 फीसदी वृद्धि के साथ दूसरे स्थान पर रहा। 2023 की पहली तिमाही में फिलिपींस 6.4 फीसदी वृद्धि के साथ भारत से बेहतर ​स्थिति में रहा। ये अर्थव्यवस्थाएं भारत से बहुत छोटी हैं।

सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था का आकार एक लाख करोड़ डॉलर का है जबकि अन्य दो का आकार बांग्लादेश, पाकिस्तान, ईरान, मिस्र तथा द​क्षिण अफ्रीका से बड़ा है। जहां तक ‘चाइना प्लस वन’ (चीन के अलावा एक अन्य देश को निवेश के विकल्प के तौर पर रखना) परिदृश्य की बात है तो उसका लाभार्थी भी भारत नहीं ब​ल्कि वियतनाम है। ब​ल्कि चूंकि भारत पूर्वी ए​शियाई अर्थव्यवस्थाओं से अच्छी तरह एकीकृत नहीं है और वह क्षेत्रीय व्यापक आ​र्थिक साझेदारी (आरसेप) का भी हिस्सा नहीं है इसलिए वह इस संदर्भ में थाईलैंड, मले​शिया और इंडोने​शिया जैसे देशों से बेहतर ​स्थिति में नहीं है।

जहां तक प​श्चिम को निर्यात की बात है तो अमेरिका को वस्त्र निर्यात के मामले में वियतनाम अब चीन के समान स्तर पर है। नि​श्चित तौर पर भारत एक महत्त्वपूर्ण उभरता हुआ देश है और उसके पास अन्य देशों की तुलना में कहीं अ​धिक बड़े बाजार का समर्थन है लेकिन वृद्धि रैंकिंग के क्षेत्र में अन्य देशों से अलग और आगे अपनी वि​शिष्ट पहचान बनाने के लिए उसे अतिरिक्त प्रयास करने होंगे।

लंबी अव​धि के नजरिये से भारत की वास्तविक सफलता है उसके वृहद आ​र्थिक प्रबंधन में सुधार। देश की थोक मूल्य मुद्रास्फीति सन 1970 के दशक के 9 फीसदी से घटकर 1980 के दशक में 8 फीसदी और फिर दो दशकों तक 6 फीसदी तक रही और बीते दशक में यह करीब 4 फीसदी के स्तर पर है। उपभोक्ता मूल्य आधारित मुद्रास्फीति की कहानी भी ऐसी ही है।

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बीते दशक के दौरान वह घटकर 6 फीसदी से कम हो गई जबकि उससे पिछले दो दशकों में यह 7.5 फीसदी थी। ऐसे समय में जबकि केंद्र और राज्यों का समेकित राजकोषीय घाटा काफी अ​धिक है, तब मुद्रास्फीति की दरों में इतनी महत्त्वपूर्ण गिरावट को अर्थशास्त्रियों को स्पष्ट करना चाहिए। शायद एक अंतर तो यह है कि सन 1991 के सुधारों के बाद केंद्र के घाटे की भरपाई के लिए स्वत: मुद्रा नहीं छापी जाती है।

इसके बजाय सरकार वित्तीय बाजारों से उधार लेती है जो अब गहराई हासिल कर चुका है और अब बैंकों पर कम केंद्रित है। यह भी अपने आप में एक कामयाबी है। बाहरी मोर्चे पर भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है। सन 1990 का दशक डॉलर की कमी के खात्मे का दशक रहा। सन 1992 से 2002 के दशक में चालू और पूंजी खाते का कुल संयुक्त भुगतान संतुलन 52 अरब डॉलर के अ​धिशेष में रहा।

अगले दशक में यह चार गुना बढ़कर 212 अरब डॉलर हो गया और फिर 2012 से 2022 के दशक में यह 354 अरब डॉलर तक जा पहुंचा। सहायता और विदेशी उधारी में भी तेजी से कमी आई है। इसके समेकित नतीजे रिजर्व बैंक के विदेशी मुद्रा भंडार में नजर आते हैं। ध्यान रहे कि ऐसा तब है जबकि वा​णि​​ज्यिक वस्तु व्यापार घाटा ताजा दशक में सालाना औसतन 150 अरब डॉलर रहा जबकि 1992-2002 में यह केवल 11 अरब डालर सालाना था। हालांकि उस वक्त अर्थव्यवस्था का आकार भी छोटा था। परंतु सेवा निर्यात के बढ़ते अ​धिशेष ने इस कमी को दूर किया। बीते तीन दशक में आया करीब 950 अरब डॉलर का विदेशी निवेश सोने पर सुहागा साबित हुआ।

इस बदलाव के कारण मुद्रा में ​स्थिरता आई है। डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार कमजोर हुआ है लेकिन इस कमजोरी की दर जहां सन 1966 के अवमूल्यन और 1991-92 के सुधार वाले अवमूल्यन के बीच 5.5 फीसदी थी, वहीं सुधारों के बाद यह औसतन 3 फीसदी रह गई। बीते दो दशकों में इसमें और सुधार आया तथा यह 2.4 फीसदी रही।

बीते दशकों में आए इन व्यवस्थागत बदलावों की बात करें तो इनका महत्त्व यह है कि अर्थव्यवस्था और मुद्रा अब ​स्थिर हैं और इसलिए राजनीति भी ​स्थिर है। परंतु अभी हमें तेज वृद्धि का लक्ष्य हासिल करना है क्योंकि सतत चर्चा के बावजूद हम अब तक पूर्वी ए​शियाई देशों के तर्ज पर वृद्धि हासिल नहीं कर सके हैं। ऐसा क्यों नहीं हुआ है इस पर आत्मावलोकन करने की आवश्यकता है।

First Published - July 21, 2023 | 11:31 PM IST

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