व्यापार घाटे में इजाफे ने सरकार को प्रेरित किया कि वह आयात पर सक्रियता से प्रतिबंध लगाए। वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण भारत का वाणिज्यिक वस्तु निर्यात फरवरी में पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में 8.8 फीसदी कम होकर 33.88 अरब डॉलर रह गया।
चालू वित्त वर्ष में अब तक यानी अप्रैल से फरवरी तक वाणिज्यिक निर्यात पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में 7.55 फीसदी बढ़ा है। वहीं फरवरी में वाणिज्यिक वस्तु आयात भी 8.2 फीसदी कम हुआ और व्यापार घाटा 17.43 अरब डॉलर था।
वित्त वर्ष में अब तक का व्यापार घाटा 247.53 अरब डॉलर है। पिछले वर्ष की समान अवधि में यह लगभग 172 अरब डॉलर था। सेवा निर्यात में निरंतर मजबूत वृद्धि ने समग्र घाटे यानी वस्तु और सेवा क्षेत्र के व्यापार घाटे को कम करने में मदद की।
हालांकि विश्लेषकों का अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में चालू खाते का घाटा सकल घरेलू उत्पाद के करीब 2.5 फीसदी के बराबर रहेगा तथा आने वाले वर्ष में इसमें कुछ और अधिक मदद मिल सकती है लेकिन इसके बावजूद घाटे की भरपाई एक चुनौती बनी रहेगी।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आवक में कमी आई है और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों द्वारा निरंतर बिकवाली भी समग्र भुगतान संतुलन पर दबाव डाल सकती है। वैश्विक वित्तीय बाजारों में व्याप्त अस्थिरता और बड़े केंद्रीय बैंकों द्वारा संभावित नीतिगत कदमों को लेकर अनिश्चितता के कारण पूंजी की आवक प्रभावित होती रह सकती है।
बहरहाल, भारत के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार मौजूद है जिससे तात्कालिक चुनौतियों से निपटा जा सकता है और बाहरी मोर्चे पर स्थिरता बरकरार रखी जा सकती है। समय के साथ मुद्रा में व्यवस्थित गिरावट भी बाहरी खाते को स्थिर बनाने में मदद करेगी।
ऐसे में तात्कालिक वृहद आर्थिक स्थिरता के नजरिये से देखें तो सरकार द्वारा आयात प्रतिबंध को लेकर दिया गया उत्साह सही नहीं है। यहां तक कि दीर्घकालिक आर्थिक प्रबंधन के नजरिये से भी देखें तो यह न केवल अनावश्यक है बल्कि नुकसानदेह भी साबित हो सकता है।
केंद्रीय वाणिज्य सचिव ने बुधवार को कहा कि ‘गैर जरूरी आयात’ को सीमित करने की रणनीतियां काम आ रही हैं, और इनके कारण फरवरी में आयात कम हुआ। मूल विचार आयात प्रतिस्थापन का है। सरकार बीते कई वर्षों से लगातार प्रयास कर रही है कि आयात में कमी की जाए। यही वजह है कि अन्य गतिरोधों के साथ शुल्क दरों में भी इजाफा किया गया।
हाल ही में आई रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि सरकार अब आयात पर नियंत्रण के लिए गुणवत्ता को लेकर नए आदेश जारी कर सकती है। जैसा कि इस समाचार पत्र ने भी कहा है, सरकार ने जो रुख अपनाया है उसमें कई दिक्कतें हैं और उससे वांछित परिणाम हासिल नहीं होगा। अब तक जो भी प्रयास किए गए उनसे आयात में कोई सार्थक कमी नहीं आई।
किसी भी अफसरशाही के लिए एक सक्रिय बाजार अर्थव्यवस्था में गैर जरूरी आयात का निर्धारण करना मुश्किल होगा। इससे लागत बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धी क्षमता प्रभावित होगी। इस रुख को अपनाने से लॉबीइंग की गुंजाइश भी पैदा हो जाती है और यह बात अर्थव्यवस्था के लिए मददगार साबित नहीं होगी। उदारीकरण के पहले भी भारत दशकों तक ऐसे उपाय अपनाता रहा है और लगता नहीं कि इस बार परिणाम कुछ अलग होंगे। किसी भी बाजार अर्थव्यवस्था के लिए अपनी घरेलू क्षमता वाले क्षेत्रों में वस्तुओं और सेवाओं का आयात सामान्य बात है।
यह बात ध्यान देने वाली है कि देश का सेवा निर्यात बहुत अच्छी स्थिति में है। इसका ज्यादातर हिस्सा सूचना प्रौद्योगिकी से संबंधित है और उसे विकासशील देशों को निर्यात किया जा रहा है। जरूरी नहीं है कि उन देशों की कंपनियां भारतीय कंपनियों से इसलिए आयात कर रही हों कि उनके यहां क्षमता की कमी हो बल्कि वे ऐसा इसलिए भी कर सकती हैं कि भारत से आयात करना किफायती पड़ सकता है।
ऐसे में आयात पर बहुत अधिक ध्यान देने के बजाय भारत के नीति निर्माताओं को अपना समय और ऊर्जा आयात पर व्यय करने चाहिए। निरंतर निर्यात वृद्धि से न केवल चालू खाते के घाटे की दिक्कत दूर होगी बल्कि निजी निवेश तथा रोजगार तैयार करने में भी मदद करेगी। इससे हमें निरंतर उच्च आर्थिक वृद्धि हासिल करने में मदद करेगी।