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ट्रंप का टैरिफ झटका: भारत के लिए चेतावनी, चुनौतियां बढ़ीं; सरकार को नए कदम उठाने होंगे

टैरिफ का झटका सिर्फ व्यापार को ही प्रभावित नहीं करेगा, बल्कि यह निवेशकों के भरोसे को हिला देगा और इससे आपूर्ति श्रृंखला भी बाधित होगी

Last Updated- August 31, 2025 | 10:57 PM IST
Trump Tariffs

भारतीय निर्यात पर अब अमेरिका में 50 फीसदी का आयात शुल्क (टैरिफ) लग रहा है। यह दुनिया के लगभग किसी भी अन्य देश की तुलना में एक बड़ी बाधा है। नतीजतन, सरकार को यह विचार करना होगा कि इससे कैसे निपटा जाए। हालांकि सरकार को राजनीतिक पहलुओं को भी ध्यान में रखना होगा, लेकिन आर्थिक दृष्टिकोण से यह लक्ष्य स्पष्ट है कि नुकसान कम करना है ताकि भारत तेजी से विकास के रास्ते पर लौट सके। हालांकि यह काम जटिल है क्योंकि घरेलू अर्थव्यवस्था में चुनौती के साथ विदेशी बाजारों में भी संभावनाएं कम हो गई हैं।

आखिर टैरिफ का झटका वास्तव में कितना गंभीर है? कई विश्लेषकों का तर्क है कि इसका असर सीमित होगा। वे बताते हैं कि अमेरिका को होने वाला वस्तुओं का निर्यात भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का सिर्फ 2 फीसदी है और इसमें से भी केवल दो-तिहाई ही प्रभावित होगा, क्योंकि दवाओं, इलेक्ट्रॉनिक्स और पेट्रोलियम उत्पादों को छूट दी गई है।

हालांकि, यह तर्क बड़ी तस्वीर को अनदेखा करता है। अमेरिका सिर्फ भारत का सबसे बड़ा निर्यात बाजार नहीं है बल्कि यह एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक भागीदार भी है। नतीजतन, टैरिफ का झटका सिर्फ व्यापार को ही प्रभावित नहीं करेगा, बल्कि यह निवेशकों के भरोसे को हिला देगा और इससे आपूर्ति श्रृंखला भी बाधित होगी और भारत की दीर्घकालिक निर्यात प्रतिस्पर्धा भी कमजोर होगी। असली जोखिम इन दूरगामी प्रभावों में निहित है, जो तात्कालिक आंकड़ों से कहीं अधिक है। यह समझने के लिए कि ऐसा क्यों है, तीन तरह की कंपनियों की स्थिति पर विचार करते हैं।

इस कड़ी में सबसे पहले और स्पष्ट तौर पर प्रभावित होने वालों में वैश्विक निर्माता कंपनियां शामिल हैं। भारत खुद को अगले वैश्विक विनिर्माण केंद्र के रूप में पेश कर रहा था, खासतौर पर उन कंपनियों के लिए जो अमेरिका को निर्यात करती हैं या चीन से अपनी विनिर्माण इकाइयां हटाना चाहती हैं। इसे भारत की वृद्धि के लिए संभावित तौर पर खेल में बदलाव लाने वाली रणनीति के तौर पर देखा जा रहा था। एक युवा और तेजी से कुशल हो रहे कार्यबल तथा लोकतांत्रिक स्थिरता के साथ, यह लाभ स्पष्ट रूप से दिख रहा था। हालांकि, 50 फीसदी के अमेरिकी शुल्क ने अब इस फायदे को खत्म कर दिया है।

अमेरिका ने 7 अगस्त को जो जवाबी 25 फीसदी का टैरिफ लगाया था अगर उतना ही रहे तो भी भारत अपने एशियाई प्रतिस्पर्द्धियों की तुलना में कम प्रतिस्पर्धी रहेगा क्योंकि उनके अमेरिकी निर्यात पर केवल 19-20 फीसदी टैरिफ लगता है। यदि यह अंतर बना रहता है, तब भारत के लिए दुनिया का विनिर्माण केंद्र बनने का एक दुर्लभ मौका खोने का जोखिम बना हुआ है।

सिर्फ माल निर्यातकों को ही नुकसान नहीं होगा। इसका असर सेवा निर्यातकों पर भी दिख सकता है। भारत के 1,700 से अधिक ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर में से लगभग 60 फीसदी का मुख्यालय अमेरिका में है। हालांकि टैरिफ सीधे तौर पर उन्हें प्रभावित नहीं करते, लेकिन अमेरिका-भारत संबंधों की बिगड़ती स्थिति को देखते हुए ये मूल कंपनियां यहां अपना कारोबार बढ़ाने में सतर्कता बरत सकती हैं। यह वास्तव में एक गंभीर झटका होगा क्योंकि कोविड के बाद भारत के विकास में सेवा निर्यात एक प्रमुख आधार रहा है।

आखिर में घरेलू विनिर्माताओं पर विचार करते हैं। वे भले ही ज्यादा निर्यात न करते हों, लेकिन इनमें से कई विदेशी कच्चे माल पर बहुत अधिक निर्भर हैं। अगर भारत अमेरिका पर जवाबी कार्रवाई करने के बारे में सोचता है तब इससे उनके निवेश की योजनाएं और भी रुक सकती हैं।

ऐसे में, टैरिफ का यह झटका पूरी अर्थव्यवस्था में फैलने का जोखिम रखता है। इसके अलावा, तेजी से सामने आने वाले आंकड़े भी पहले से ही आर्थिक सुस्ती की ओर इशारा कर रहे हैं। गैर-खाद्य बैंक ऋण वृद्धि एक साल पहले के 14 फीसदी से घटकर 10 फीसदी पर आ गई है। अप्रैल-जून में वस्तुओं का निर्यात केवल 2 फीसदी बढ़ा है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संग्रह में बढ़त 11 फीसदी से घटकर 6 फीसदी हो गया है। यात्री वाहनों की बिक्री में भारी गिरावट आई है, जो शहरी मांग में सुस्ती को दर्शाती है। पिछले कुछ सालों की रियल एस्टेट में आई तेजी थम सी गई है जिससे प्रमुख शहरों में वैसे घरों की तादाद बढ़ रही है जो बिके नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, अमेरिका का यह टैरिफ झटका ऐसे समय में आया है, जब स्थिति पहले से ही बहुत खराब है।

भारत को कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए? सबसे पहले और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत को आत्मनिर्भर होने की आत्ममुग्धता में नहीं पड़ना चाहिए। संरक्षणवाद से कभी भी तेज विकास नहीं हुआ है और 1991 से पहले के भारत का अपना रिकॉर्ड इसका प्रमाण है और किसी भी अन्य देश को उस तरह से सफलता नहीं मिली है। भले ही अमेरिका का झुकाव अब संरक्षणवाद की ओर हो रहा हो, लेकिन भारत इस गलती को दोहरा नहीं सकता।

आत्मनिर्भर होने के बजाय, भारत को कई अन्य देशों के साथ व्यापार संबंधों को गहरा करके अपने निर्यातकों की मदद करनी चाहिए। ब्रिटेन के साथ हुआ समझौता एक स्वागत योग्य कदम है जबकि यूरोपीय संघ (ईयू) के साथ बातचीत बेहद महत्त्वपूर्ण है और इसे तेजी से पूरा किया जाना चाहिए। भारत को पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया के साथ भी समझौते करने चाहिए ताकि वह वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में और मजबूती से जुड़ सके। इसका मतलब होगा कि भारत को अपनी टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाएं कम करनी होंगी जो एशिया में सबसे ज्यादा हैं। आज की आपस में जुड़ी हुई दुनिया में आत्मनिर्भरता की रणनीति खुद को हराने वाली साबित होगी।

इसी के साथ, भारतीय नीति-निर्माताओं को सिर्फ समस्याओं से निपटने के बजाय ऐसे सुधारों को लागू करना चाहिए जो भारत की विकास क्षमता को उजागर करें। इसके साथ ही निजी निवेश को फिर से बढ़ाने, विनिर्माण की प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाने और बड़े पैमाने पर रोजगार के मौके तैयार करने के लिए सरकारी लालफीताशाही को कम करना, नियमों को सरल बनाना, व्यापार सुगमता की स्थिति को बेहतर बनाने के साथ ही सिर्फ भौतिक बुनियादी ढांचे में ही नहीं, बल्कि कौशल विकास में भी निवेश करना जरूरी होगा। हाल की घोषणाएं जैसे कि जीएसटी दरों को तर्कसंगत बनाना और एक सुधार समिति का गठन करना बेहद उत्साहजनक हैं, लेकिन असली परीक्षा इन सुधारों के ब्योरे और सबसे बढ़कर इनके क्रियान्वयन में होगी।

अंत में, इस झटके के कारण भारत को अमेरिका-विरोधी रुख अपनाने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। ऐसे संबंधों में टकराव होना तय है लेकिन अमेरिका एक आर्थिक भागीदार के रूप में इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसे दरकिनार नहीं किया जा सकता है। भारत का दीर्घकालिक उद्देश्य, बेहतर और व्यापक व्यापार समझौतों पर बातचीत करके अमेरिका के साथ अपने आर्थिक जुड़ाव को मजबूत करना होना चाहिए, न कि उसे कमजोर करने पर होना चाहिए।

कई मायनों में, यह भारत के लिए यह दूसरा 1991 जैसा क्षण हो सकता है। इस बार संकट उतना दिखाई नहीं दे रहा है, लेकिन दांव उतने ही बड़े हैं। अर्थव्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर है और अभी की गई कोई भी नीतिगत गलती भारत को दशकों तक निम्न-मध्यम-आय वाले देश के दर्जे में रहने के लिए मजबूर कर सकती है।


(लेखिका आईजीआईडीआर में अर्थशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

First Published - August 31, 2025 | 10:57 PM IST

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