भारतीय कारोबारी जगत ने कई नाकामियों का सामना किया है, इसके बावजूद एक बात जो नहीं होनी चाहिए वह है राजनीतिक दलों या बुद्धिजीवियों द्वारा उन पर कीचड़ उछालना या उन्हें गलत ठहराना। जब बड़े राजनेता उन पर हमला करते हैं (इस समय राहुल गांधी और अतीत में अरविंद केजरीवाल ऐसा कर चुके हैं) तो इससे देश का कोई भला नहीं होता। भले ही उद्योग जगत ने गलतियां की हों लेकिन ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। अदाणी और अंबानी के बारे में अंतहीन प्रलाप करना और फिर उन्हीं कारोबारी घरानों से यह उम्मीद करना कि वे निवेश करेंगे और भारत को वैश्विक छवि प्रदान करेंगे, यह मूर्खतापूर्ण है। एकाधिकार को रोकना एक बात है और यह मानना एकदम दूसरी बात है कि भारत को दिग्गज कारोबारी समूहों की आवश्यकता नहीं है।
बड़े कारोबारी घरानों की आलोचना विदेशी ताकतों को प्रेरित करेगी कि वे भी भारत के हितों को सीमित करने के लिए ऐसा ही करें। यह महज संयोग नहीं है कि अमेरिकी प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग और हिंडनबर्ग रिसर्च ने गौतम अदाणी को निशाना बनाया जबकि उनके कदमों से किसी अमेरिकी नागरिक के अधिकार प्रभावित नहीं हुए थे। हाल ही में अमेरिका के वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट द्वारा दिया गया बयान भी इसी श्रेणी में आता है, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि भारत (यानी रिलायंस) सस्ते रूसी तेल को रिफाइन कर पश्चिमी देशों को निर्यात करता है और इससे मुनाफा कमा रहा है। व्हाइट हाउस के व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने इससे भी आगे बढ़ते हुए भारत को रूस का लॉन्ड्रोमैट यानी धुलाई केंद्र कह दिया। उन्होंने कई और गंभीर आरोप लगाए।
अगर यूक्रेन युद्ध से किसी को लाभ हुआ है तो वह अमेरिका के सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ को क्योंकि यूरोप और यूक्रेन दोनों ने उससे अधिक रक्षा साजोसामान खरीदे। अगर कोई अर्थव्यवस्था वाकई धुलाई केंद्र है तो वह अमेरिका है। दुनिया का कोई भी ऐसा मादक पदार्थ गठजोड़ या अवैध कारोबार नहीं है जो अमेरिकी डॉलर की मदद से काला धन सफेद नहीं करता हो। फेडरल रिजर्व बैंक ऑफ सेंट लुई के 2022 के एक शोध पत्र के मुताबिक 1.1 लाख करोड़ डॉलर की अमेरिकी नकदी में 100 डॉलर के नोटों का दो तिहाई विदेश में केंद्रीय बैंकों से परे रखा हुआ है। क्रिप्टो के आगमन के बाद इसमें बदलाव आ रहा है लेकिन डॉनल्ड ट्रंप अब क्रिप्टो कारोबार में भी नजर आ रहे हैं।
अंबानी की आलोचना करने वाले एक महत्त्वपूर्ण सच्चाई को नजरअंदाज कर देते हैं। वह यह कि निजी कंपनियां सस्ते रूसी तेल के उपलब्ध होने से पहले ही कच्चा तेल आयात कर परिष्कृत उत्पादों का निर्यात करती रही हैं। भारत की सरकारी तेल कंपनियां मूल्य निर्धारण के नियमों से बंधी होती हैं, जबकि निजी क्षेत्र को इससे छूट प्राप्त है। इसका परिणाम यह है कि निजी रिफाइनिंग क्षमता का एक बड़ा हिस्सा निर्यात के लिए उपयोग होता है। यदि तेल की कीमतें वास्तव में मुक्त हों, तो अधिक परिष्कृत उत्पाद भारत में ही बेचे जा सकते हैं।
इससे भी अधिक नुकसानदेह है कई बुद्धिजीवियों मसलन प्रताप भानु मेहता जैसे लोगों द्वारा की जाने वाली आलोचना। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में अपने स्तंभ में लिखा कि भारतीय पूंजीवाद का उदय मुख्य रूप से कारोबारियों से हुआ जो मूल्य में अंतर से तो खूब लाभ कमाते हैं लेकिन वे निर्माण और सृजन में सक्षम नहीं रहे। शोध में कम निवेश करने और केवल मुनाफे पर काम करने के लिए भारतीय कंपनियों की आलोचना करना उचित है लेकिन यह मोटे तौर पर लाइसेंस परमिट राज का परिणाम है। अब वही नियामकों के राज में हो रहा है। राजनेता और अफसरशाह दोनों ही उद्योग जगत पर भरोसा नहीं करते। अगर यह बदलता है तो कारोबार अधिक भारतीय बौद्धिक संपदा अधिकारों, प्लेटफॉर्म, उत्पादों का निर्माण करेंगे और आर्थिक ताकतों को मजबूत करेंगे।
व्यापारिक मानसिकता के लिए केवल भारतीय कारोबारों को दोष देना सही नहीं। अमेरिका और यूरोप का पूरा खुदरा क्षेत्र इसी मॉडल पर काम कर रहा है। यानी सस्ते चीनी उत्पाद खरीदकर उनको देश में बेचना। कारोबार के लिए व्यापार और निर्माण दोनों आवश्यक हैं। जब आप प्रतिस्पर्धी नहीं रहते तो आप व्यापार से पैसे कमाते हैं। वह आपको अपना ग्राहक वर्ग बनाने का अवसर देता है ताकि आप अपना उत्पाद तैयार कर सकें। बात केवल अंबानी, अदाणी, बिरला या टाटा की नहीं है। ध्यान दीजिए कि मोबाइल फोन और अन्य वस्तुओं में क्या हो रहा है। एक दशक पहले भारतीय ब्रांड मसलन माइक्रोमैक्स और कार्बन आदि बाजार में काफी हिस्सेदारी रखते थे और ये चीन से आयातित कलपुर्जों से बनते थे। परंतु वे चीन की कीमतों का मुकाबला नहीं कर पाए। अब वीवो और श्याओमी जैसी चीनी कंपनियां उस बाजार पर काबिज हैं।
देश की आईटी कंपनियां भी कारोबार में हैं। वे सस्ते भारतीय कोडरों की मदद से अमेरिका और यूरोप के उच्च मार्जिन वाले बाजारों में काम करती हैं। वे भी व्यापारियों से अलग नहीं हैं। जब व्यापार करना लाभकारी होता है, तो अधिकांश व्यवसाय उसे अपनाते हैं। लेकिन जब व्यापार में लाभ नहीं दिखता, तो वे निर्माण की ओर रुख कर सकते हैं। जब सरकार और व्यवसाय का समीकरण भरोसे में बदल जाएगा, तो भारत की कंपनियां पीछे नहीं रहेंगी।
अब ऐसा ही हो रहा है। रक्षा से लेकर निजी क्षेत्र अब सैन्य साजोसामान बना भी रहा है और निर्यात भी कर रहा है। जोमैटो के संस्थापक अपने दो करोड़ डॉलर निवेश करके गैस टर्बाइन इंजन बना रहे हैं जो छोटी जगह से उड़ान भरने और उतरने में सक्षम विमान और मानवरहित विमान बनाने में इस्तेमाल होंगे। टाटा और महिंद्रा ने भारत के साथ वैश्विक बाजारों के लिए कार प्लेटफॉर्म बनाने शुरू कर दिए हैं। इसी अखबार के मुताबिक कुछ दोपहिया वाहन कंपनियों ने शोध एंव विकास पर 1,000 करोड़ रुपये से अधिक का निवेश आरंभ कर दिया है।
मुकेश अंबानी की रिलायंस ने भी सोलर और हाइड्रोजन तकनीक में भारी निवेश की योजना घोषित की है जबकि अदाणी अन्य क्षेत्रों में ऐसा ही करेंगे। लार्सन ऐंड टूब्रो, गोदरेज, टाटा, बिरला और कई छोटे स्टार्टअप्स भी एरोस्पेस, रक्षा उपकरणों और ड्रोन में निवेश कर रहे हैं। सेमीकंडक्टर चिप और फैब्स तो हैं ही।
नियमन के अलावा, उन कंपनियों के लिए जो गहन तकनीक, उत्पादों और प्लेटफार्म में निवेश करने की क्षमता रखती हैं, शेयर बाजार ध्यान भटकाने वाला तत्व बन गया है। इन्फोसिस, टीसीएस और एचसीएल टेक जैसी कंपनियों के पास भारी नकदी है जिसे आसानी से भारत के मालिकाने वाले बौद्धिक संपदा अधिकार के विकास में लगाया जा सकता है। लेकिन इसके बजाय वे इसका उपयोग अपने अंशधारकों को प्रसन्न करने में लगाती हैं। या तो इन कंपनियों को लाभांश भुगतान कम करना चाहिए और उस बचत को बौद्धिक संपदा अधिकार के निर्माण में लगाना चाहिए, या फिर उनके संस्थापकों को अपनी संपत्ति का उपयोग करके बड़े प्लेटफार्म और उत्पाद बनाने चाहिए।
अगर जोमैटो के दीपेंद्र गोयल अपनी निजी संपत्ति से शोध एवं विकास में निवेश कर सकते हैं, तो बाकी अरबपति क्यों नहीं कर सकते? कुछ सूचीबद्ध कंपनियां सूचीबद्धता समाप्त करने पर विचार कर सकती हैं ताकि वे दीर्घकालिक बौद्धिक संपदा परियोजनाओं को आगे बढ़ा सकें।
भारत की कंपनियों में विश्वास बनाए रखना बेहद ज़रूरी है। अविश्वास और व्यापारिक मानसिकता के आरोपों से कोई मदद नहीं मिलेगी। माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और एमेजॉन जैसी वैश्विक ताकतों का मुकाबला अगर कोई कर सकता है, तो वे हैं अडाणी, अंबानी, बिड़ला और टाटा जैसे भारतीय उद्योगपति। हमारे बड़े व्यवसायों को उनकी खामियों के बावजूद संरक्षण देना चाहिए। अगर वे कोई गलती करते हैं, तो हमें उसे यहीं सुलझाना चाहिए। विदेशियों को उन्हें कमजोर करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)