कई वर्षों से भारत और चीन के बीच के रिश्तों में बर्फ जमी है और टकराव होता रहा है। डोकलाम और गलवान में सीमा पर हुई हिंसा के बाद आर्थिक संबंधों को लेकर भारत का रुख यही रहा है कि सीमा पर शांति की शर्त पर ही आर्थिक सहयोग संभव है। सितंबर 2021 में रूपा पब्लिकेशन से एक पुस्तक प्रकाशित हुई ‘राइजिंग टु द चाइना चैलेंज: विनिंग थ्रू स्ट्रैटजिक पेशंस ऐंड इकनॉमिक ग्रोथ’ (गौतम बंबावाले, विजय केलकर, आरए माशेलकर, गणेश नटराजन, अजित रानाडे और अजय शाह)।
इस पुस्तक में कहा गया: (अ) अल्पावधि में भारत अकेले चीन का सामना करना के लिहाज से कमजोर है, इसलिए दुनिया की प्रमुख लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ गठबंधन करना जरूरी है। (ब) सबसे प्रभावी विदेश नीति यही है कि भारत दीर्घकालिक आर्थिक विकास की दिशा में कामयाब हो ताकि अगले 25 साल में चीन के साथ शक्ति का असंतुलन कम हो सके।
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के रुख को देखते हुए भारत में कुछ लोग चीन के साथ रिश्तों पर नए सिरे से विचार को तैयार हैं। कुछ लोग सोवियत रूस को काबू करने के एक तरीके के रूप में रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर द्वारा चीन की ओर रुख करने की कल्पना करते हैं और सोचते हैं कि भारत भी अमेरिका पर अंकुश के लिए इसी तरह चीन के साथ जा सकता है। इसके लिए इतिहास की गहरी समझ, अतीत पर नजर रखने की क्षमता और व्यापक रणनीतिक नजरिया के साथ आगे की सोच जरूरी है।
एक अच्छी शुरुआत यह होगी कि चीनी विजय दिवस की सैन्य परेड का विश्लेषण किया जाए। इस परेड में रूस, उत्तर कोरिया, ईरान और म्यांमार जैसे देशों के विशेष अतिथि शामिल हुए, जो चीन की रणनीतिक दिशा को दर्शाते हैं। बीजिंग में हर कोने पर दो पुलिसकर्मी तैनात थे, थ्येनआनमन चौक में सैन्य उपस्थिति थी, और स्कूलों ने रिमोट यानी ऑनलाइन तरीके से संचालन की घोषणा कर दी थी। यह सब उस स्वस्थ उदार लोकतंत्र की पहचान नहीं है, जो दिखावटी सैन्य परेड नहीं करते। भारत में हमारे दिलों में एक उदार लोकतंत्र है। भारत को चीन के साथ दिखने के लिए अपना यह रुख बदलना नहीं चाहिए। वह हमारा नैसर्गिक साझेदार नहीं है।
ट्रंप अमेरिका की ऐतिहासिक गिरावट के प्रतीक हैं। किसी ने उम्मीद नहीं की थी कि अमेरिका दक्षिणपंथी लोकलुभावनवाद का शिकार हो जाएगा। आमतौर पर हम सोचते हैं कि दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाओं में महान संस्थान हैं लेकिन अमेरिका किसी उभरते बाजार की तरह ही है। इसके साथ ही हमें ट्रंप को स्थायी मानकर नहीं चलना चाहिए। दशकों तक अमेरिका में दोनों दलों ने भारत के उदय का समर्थन किया और ट्रंप के परे हम एक बेहतर अमेरिका की उम्मीद कर सकते हैं। ट्रंप के बाद भारत के साथ रिश्ते सुधरेंगे।
अधिकांश चीनी कंपनियों पर वहां की सरकार का नियंत्रण है। भारत वैसा नहीं है और अमेरिका भी नहीं है। ट्रंप के शुल्क वृद्धि की घोषणा के बाद के सप्ताहों में ऐपल तथा किंड्रिल जैसी कंपनियों ने भारत में विस्तार की घोषणा की। अमेरिकी अदालतें जिस तरह से राष्ट्रपति ट्रंप पर दबाव बना रही हैं, चीन में तो आप ऐसा होने की सोच भी नहीं सकते। यही बात भारत-अमेरिका रिश्तों को ठहराव प्रदान करती है। वह इसे राजनीतिक जोखिम से अलग करती है।
अमेरिका के साथ हमारा विवाद 50 फीसदी शुल्क को लेकर है। चीन के साथ हमारी लड़ाई इससे कहीं अधिक गंभीर है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब चीन पाकिस्तान को सैन्य समर्थन दे रहा था। तिब्बत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार और मॉरीशस में चीन के कदम भारत के हितों के विरुद्ध हैं। चीन दुनिया में बहुध्रुवीयता का उपदेश देता है लेकिन एशिया में वह अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है।
अमेरिकी बाजार सिकुड़ रहे हैं और भारत के लिए बेहतर है कि वह नए निर्यात बाजार तलाशे। ऐसा करने की नैसर्गिक जगह उन्नत अर्थव्यवस्थाएं हैं जिनमें यूरोप से लेकर कनाडा और ताइवान तक शामिल हैं। चीन का बाजार भारतीय निर्यातकों के लिए उपलब्ध नहीं है क्योंकि चीन अनेक गैर-टैरिफ बाधाओं के साथ मुक्त व्यापार के सिद्धांतों के साथ धोखाधड़ी करने का प्रमुख उदाहरण है। खुली वैश्विक व्यापार प्रणाली के धीमे पतन के लिए अगर 5 फीसदी श्रेय भारत की अनुचित नीतियों को तो 95 फीसदी श्रेय चीन को दिया जा सकता है।
भारतीय कंपनियों के लिए चीन को निर्यात बढ़ाने का कोई आसान रास्ता नहीं है, जब तक कि चीनी प्रणाली में गहरे बदलाव न किए जाएं, जो आर्थिक राष्ट्रवाद और कानून के शासन के अभाव जैसी बाधाओं से भरी हुई है। चीन की अर्थव्यवस्था एक अनोखी समस्या से जूझ रही है जो है अति-उत्पादन। उन कई उद्योगों में जहां भारत की मौजूदगी है, चीन से आयात के लिए खुलेपन का अर्थ है, चीन द्वारा अपनी बेरोजगारी का निर्यात करना।
भारत के खिलाफ चीन का आर्थिक दबाव सक्रिय और प्रभावी है। चीन की सरकार भारत के ‘चीन+1’ के रूप में उभरने में बाधा डालने की कोशिश कर रही है। उन्होंने उन कुछ निर्यातों पर प्रतिबंध लगा दिए हैं जिनमें वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला चीन पर निर्भर करती है। बंबावाले ने ज़ोर देकर कहा है, भले ही आज किसी दिखावटी समझौते के तहत ये प्रतिबंध हटाए जाएं, हमें पूरी तरह से सतर्क रहना होगा कि ये निर्यात प्रतिबंध कल फिर से लागू हो सकते हैं। इसलिए भारतीय कंपनियों के पास कोई विकल्प नहीं है। उन्हें चीन से स्वतंत्र आपूर्ति तंत्र विकसित करना ही होगा। इसलिए, इस समय कोई त्वरित समझौता वास्तव में समस्या का समाधान नहीं करता।
चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग मजबूत नहीं दिख रहे हैं। 72 वर्ष की उम्र में उनका प्रभाव घट रहा है। एक अधिनायकवादी व्यवस्था में शांतिपूर्ण उत्तराधिकार के लिए कोई स्पष्ट तंत्र नहीं होता। उनकी प्राथमिकता सत्ता बनाए रखना है, न कि चीनी जनता की समृद्धि के लिए रणनीतिक सोच रखना। यह भारत के साथ एक समझदारीपूर्ण शांति स्थापित करने की संभावनाओं के अनुरूप नहीं है।
अमेरिकी बाजार में गिरावट एक सीमित समस्या है, जिसे भारतीय कंपनियां हल कर सकती हैं। बशर्ते उन्हें तत्काल नीतिगत समर्थन मिले, जैसे व्यापार बाधाओं को हटाना, अप्रत्यक्ष कर सुधार और मुद्रा का अवमूल्यन। एक देश के रूप में अमेरिका ट्रंप से बेहतर स्थिति में है। आने वाले वर्षों में वहां सुधार होगा। भारत के हित उन्नत लोकतांत्रिक देशों के साथ जुड़े हैं।
पश्चिमी देशों में हमारे अप्रवासी भारतीय हैं, हमारे बच्चे वहां पढ़ते हैं, विदेशी पूंजी आती है, वह ज्ञान प्रवाह होता है जो भारत को महान बनाएगा। विदेशी तकनीक, जैसे सेंट्रल प्रोसेसिंग यूनिट से लेकर यूनिक्स और एलएलएम तक की वैश्विक कंपनियां भारत में काम कर रही हैं, और हमारे निर्यात बाज़ार भी वहीं हैं। हमें इसी रास्ते पर बने रहना चाहिए। अमेरिका के अलावा अन्य उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के साथ भारत की भागीदारी बढ़ाने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है, जिनका संयुक्त बाजार अमेरिका से दोगुना बड़ा है।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)