बांग्लादेश के घटनाक्रम ने एक बार फिर भारत के पड़ोस को सुर्खियों में ला दिया है। साथ ही ऐसी स्थितियों से निपटने के मोदी सरकार के रिकॉर्ड पर भी सबकी नजर है। आज के हालात पर गहराई से नजर डालने के लिए हमें चौथाई सदी पहले जाना होगा, जब अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर की बस यात्रा कर पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने की बड़ी पहल की थी। उन्होंने कहा था कि हम अपने मित्र चुन सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं।
वर्ष 2008 में मनमोहन सिंह ने एक कदम आगे बढ़ाया और ‘पड़ोसी प्रथम’ का नारा दिया। 2014 में नरेंद्र मोदी ने भी इस पर मुहर लगाई और अपने शपथ ग्रहण समारोह में भारतीय उपमहाद्वीप के सभी देशों के नेताओं को आमंत्रित किया। इसके बाद उन्होंने पड़ोसी मुल्कों की यात्रा की। एक बार तो उनकी यात्रा बेहद नाटकीय रही, जब वह बिना किसी को बताए पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पोती की शादी में मुबारकबाद देने लाहौर पहुंच गए।
उस समय उम्मीद जगी थी। 25 साल में पहली बार बहुमत की सरकार चला रहे देश का मुखिया अगर ऐसे सात संप्रभु देशों के बीच रिश्तों में सुधार के लिए इतना प्रतिबद्ध है, जिनके बीच कई मतभेद थे तो मतभेदों और टकरावों को दूर कर सभी के बीच सेतु बनाना मुमकिन था। हालांकि इन देशों के बीच कुछ मतभेद विचारधारा के कारण थे, जो समय के साथ गहरे हो गए थे। शीतयुद्ध के दौर के पूर्वग्रह भी इनके बीच थे। इन समस्याओं से निजात पाकर राह बनाना बड़ी चुनौती थी, जिसके लिए मोदी आगे बढ़ रहे थे।
अब मोदी सरकार का तीसरा कार्यकाल चल रहा है तो देखना होगा कि उनका प्रदर्शन कैसा रहा है? बांग्लादेश अब तक के सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है। बीते 15 सालों से बांग्लादेश भारत का सबसे करीबी सहयोगी रहा है। भारत के लिए सुरक्षित पूर्वोत्तर की धुरी ढाका में है क्योंकि म्यांमार में शक्ति का केंद्र कहां है, कोई नहीं जानता। इस बीच पाकिस्तान में नाटकीय बदलाव आए हैं। वहां नया सत्ता प्रतिष्ठान है और 5 अगस्त, 2019 को जम्मू कश्मीर में हुए बदलावों के बाद भारत के साथ उसके संबंध लगभग समाप्त हो चुके हैं।
नेपाल में अविश्वास इतना बढ़ चुका है कि उसने अपने राष्ट्रीय मानचित्र में बदलाव करके सामरिक महत्त्व के उस भारतीय भूभाग को अपना हिस्सा दिखा दिया, जहां से कैलास-मानसरोवर तीर्थ यात्रा का मार्ग गुजरता है। नेपाल की संसद में इस मानचित्र को सर्वसम्मति से मंजूरी भी मिल गई।
श्रीलंका में आर्थिक संकट के बाद एक अलग किस्म की क्रांति हुई। हंबनटोटा जैसे उसके प्रमुख बंदरगाह का चीन ने अधिग्रहण कर लिया। मालदीव में मोहम्मद मुइज्जू के उभार के पीछे ‘भारत भगाओ’ का नारा रहा और यह हाल ही की बात है। भूटान पर सीमा विवाद ‘हल’ करने का चीनी दबाव लगातार बना हुआ है और उससे कहा जा रहा है कि इसमें ‘भारत के हितों की परवाह नहीं की जाए’।
क्या यह नाटकीय और बदतर दौर पूरी तरह भारत की गलतियों का नतीजा है? या भारत पीड़ित है? मगर इतने रसूख वाला भारत पीड़ित होने का दावा कैसे कर सकता है? आज हमारा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) शेष उपमहाद्वीप के कुल जीडीपी का चार गुना है। हमारी आबादी उनकी तीन गुना और वैश्विक शक्ति कई गुना है। भारत की जनता ने अपने गणतंत्र को पड़ोसी मुल्कों की तुलना में विशिष्ट बनाया है: एक संवैधानिक लोकतंत्र बनाया है, जहां सब कुछ लोकतांत्रिक, शांतिपूर्ण और विश्वसनीय तरीके से होता है। इसलिए पीड़ित होने की बात छोड़ ही दीजिए।
दुनिया में सबसे अस्थिर पड़ोस हमारा ही है। ज्यादातर पड़ोसियों की आबादी बहुत अधिक है और शहरों में भीड़भाड़ है। उनकी आबादी में युवा ज्यादा हैं और अफ्रीकी देशों के उलट ज्यादातर ने लोकतंत्र को अपनाया है। बड़ी युवा आबादी और लोकतंत्र का अर्थ है कि जनता की राय मायने रखती है।
शेख हसीना और उनके मित्र के रूप में भारत ने बांग्लादेश में इसी बात की अनदेखी की। ये ऐसे देश नहीं हैं जहां कोई बेहद ताकतवर तानाशाह जनता की राय के खिलाफ जा सकता है। उनमें से हर एक देश का लोकतंत्र हमारी तुलना में अपूर्ण है लेकिन उनमें से किसी में पूरी तरह तानाशाही भी नहीं है। इन सभी देशों में आपको शासन और जनता के विचारों दोनों का ध्यान रखना होता है।
जनमत के लिए संप्रभुता भी मायने रखती है। अगर भारत दबाव बनाता नजर आएगा तो अच्छी प्रतिक्रिया नहीं होगी। हम नेपाल, मालदीव, श्रीलंका और बांग्लादेश में ऐसा होते देख चुके हैं। 2015 की नाकेबंदी ने गहरा जख्म दिया है। विदेश मंत्रालय यह जानता है और अक्सर सही बात कहता है। परंतु हमारा मीडिया खासकर सरकार के मित्रवत कहलाने वाले हिंदी समाचार चैनलों पर आने वाली खबरों पर गहरी नजर रखी जाती है। चरम राष्ट्रवादी सोशल मीडिया हैंडल उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं।
कुछ हैंडल तो बांग्लादेश में सेना भेजने, वहां रहने वाले 1.4 करोड़ हिंदुओं के लिए सीमाएं खोल देने और रंगपुर में उनके लिए बस्ती बनाने की सलाह तक दे रहे हैं।
मालदीव के साथ बिगड़ रहे संबंध सुधारने के लिए वहां गए विदेश मंत्री एस जयशंकर जिस दिन लौटे उसी दिन अफवाह फैल गई कि मालदीव ने 28 द्वीप भारत को सौंप दिए। कुछ हिंदी चैनलों के प्राइम टाइम में इस पर बहस तक हो गई। किसी ने कह डाला कि ‘मुइज्जु ने घुटने टेक दिए।’ हमारे लिए यह मजाक हो सकता है, मालदीव के लोगों के लिए नहीं। करीब 50 लाख की आबादी और सात अरब डॉलर जीडीपी वाला वह देश भी हमारी तरह संप्रभु है।
आखिर में विदेश मंत्रालय ने सभी ट्वीट डिलीट कराए मगर तब तक देर हो चुकी थी। खुद को उस पड़ोसी की जगह रखकर देखिए। वे यही सुनते समझते होंगे कि भारत बहुत दबंगई से काम करता है। दबंगई अच्छी है लेकिन मानसिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और बौद्धिक गुणों का क्या? स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में कहा था विनम्रता के साथ क्षेत्र में शिक्षक बनना होगा। क्या हमारे शिक्षा संस्थान इतने अच्छे हैं कि वे पड़ोसी देशों के उन हजारों विद्यार्थियों को लुभा सकें, जो शिक्षा के लिए विदेशों में जाते हैं? क्या हम चाहते हैं कि वे आएं?
चरम राष्ट्रवादी मीडिया द्वारा अपमान की जगह छात्रवृत्ति, इंटर्नशिप, सांस्कृतिक प्रदर्शन और फिल्में हों तो कैसा हो? इकलौती महाशक्तियों का इतिहास बताता है कि सॉफ्ट पावर असल में हार्ड पावर या असली ताकत की सहायक नहीं है बल्कि उसके लिए बहुत जरूरी है। क्या भारत में ऐसे थिंक टैंक हैं जो पड़ोसी देशों के विद्वानों को जगह दें, उन्हें सम्मेलनों के लिए बुलाएं, खुद की ट्रैक-2 प्रक्रिया चलाएं? ऐसा नहीं है कि भारत को यह सब पता नहीं है। इसीलिए हम नेपाल और भूटान से तो बिजली खरीदते हैं लेकिन बांग्लादेश को बिजली निर्यात करते हैं।
दूसरा पहलू है हिंदू कार्ड का जरूरत से अधिक प्रयोग। प्रधानमंत्री की नेपाल और बांग्लादेश यात्राओं के दौरान मंदिर भ्रमण को खास तौर पर प्रचारित किया गया। मगर हकीकत यह है कि हमारी सबसे लंबी सीमाएं मुस्लिम बहुल देशों के साथ मिलती हैं। जब हम उनसे कहते हैं कि अल्पसंख्यकों के साथ अच्छा व्यवहार करें तो वे हमारी ओर सवालिया ढंग से देखते हैं। यह गजब ही है कि जब बांग्लादेश उबल रहा है और हमारी कूटनीति हालात संभालने में लगी है ठीक उसी समय एक बांग्लादेशी हिंदू को असम में सीएए के तहत नागरिकता प्रदान की गई।
पांच वर्ष से और खासकर यूक्रेन युद्ध के शुरू होने के बाद से भारत बहुध्रुवीयता, सामरिक स्वायत्तता और बहु-संबद्धता की बात करता रहा है। मगर हमारे पड़ोसी भी इस पर चल सकते हैं। अगर हम चीन के खिलाफ अमेरिका का इस्तेमाल कर सकते हैं तो उन सभी के पास हमारे विरुद्ध चीन है।
ताकतवर अमेरिका भी अपने पड़ोसी देश क्यूबा को नहीं झुका सका। वेनेजुएला को भी नहीं। पड़ोसियों के साथ हमारी नीति वही होनी चाहिए जो वाजपेयी ने बनाई, मनमोहन सिंह ने अपनाई और जिसे मोदी ने ऊर्जा प्रदान की। हमें बस घरेलू राजनीति और अंध धार्मिकता से बचना होगा। साथ ही पड़ोसियों के प्रति अधिक नरमी दिखानी होगी और सम्मान बरतना होगा।