एक पल के लिए अपनी नजरें गाजा में मची तबाही, लाल सागर में मची उथल पुथल और ईरान-पाकिस्तान के बीच हो रही आपसी बमबारी और उसके बाद अविश्वसनीय भाईचारे की घटनाओं पर से हटा लीजिए। गहरी सांस लीजिए और दिन की सुर्खियों से नजर हटाइए। आपके नजरिये के मुताबिक आपको यह नजर आएगा कि वैश्विक इस्लाम सबसे मजबूत स्थिति में है या सबसे कमजोर स्थिति में।
अधिक स्पष्टता के लिए हम यह कह सकते हैं कि यहां आस्था के विषय इस्लाम के नहीं है। यहां बात राजनीतिक इस्लाम की हो रही है जहां आस्था तो राज्य का धर्म होती है, एक राष्ट्र को परिभाषित करती है और/अथवा उनके प्राय: अनिर्वाचित नेताओं को सत्ता में रखती है तथा उनकी रणनीतिक प्रतिक्रिया निर्धारित करती है।
इसलिए भारत, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया और कई अन्य देशों में मुस्लिम समुदाय और उनके नेता इसमें शामिल नहीं हैं। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर, और खाड़ी के कुछ देश तथा ईरान, पाकिस्तान, तुर्किये और एशिया तथा अफ्रीका के कई देश सियासी इस्लाम का दबदबा रचते हैं जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं।
कई ऐसे भी कारक हैं जो किसी देश से जुड़े नहीं हैं। उनमें से कुछ मसलन हूती और हिजबुल्लाह के पास तो कई देशों से भी अधिक हथियार हैं। हकीकत में तो हथियारबंद सैनिकों, मिसाइलों, ड्रोन और हूती की बात करें तो टैंक के मामले में भी वे ज्यादातर यूरोपीय देशों से आगे हैं। कई छोटे समूह भी हैं।
यही बड़े समूह जिनमें विभिन्न देशों और बिना देशों से जुड़े कारक शामिल हैं, इस्लाम के नाम पर राज करता है और देश की सीमाओं से परे जाकर अपना असर छोड़ता है। अपनी बातचीत में इसे ही हम राजनीतिक इस्लाम की दुनिया के रूप में परिभाषित करते हैं। इस इस्लामिक शक्ति ने दुनिया को जिस तरह चुनौती दी है और अस्थिर किया है वैसा इतिहास में इससे पहले कभी नहीं हुआ है। सन 1973 में यॉम किप्पुर युद्ध, दो खाड़ी युद्ध, अमेरिका में 9/11 का हमला, अल कायदा, आईएसआईएस तथा कई अन्य ऐसे विद्रोह हुआ। इनमें से हर एक का भौगोलिक विस्तार, रणनीतिक पहुंच और हिंसा की तीव्रता सीमित थी।
प्रतिबंधों से जूझ रहे ईरान का क्षेत्रीय और कट्टरपंथी ताकत के रूप में अस्वाभाविक उभार एक अहम बिंदु है। अब उसका असर पश्चिम एशिया से परे जा रहा है और यहां तक कि रूस भी हथियारों की खेप के लिए बेताब है। हमास, हिजबुल्लाह और हूती आदि का आकार किसी देश से कम नहीं है और उसके साथ हैं। उसके उभार की एक प्रमुख वजह यह है कि राजनीतिक इस्लाम की दुनिया दशकों से नेताविहीन और शक्तिविहीन है। 9/11 के हमले, अल कायदा और आईएसआईएस ने इसे कमजोर किया क्योंकि उन्होंने अमेरिका को सैन्य कार्रवाई की वैधता दी।
अपने-अपने अच्छे दिनों में अल-कायदा और आईएस दोनों ने इस क्षेत्र का नेतृत्व संभालने की कोशिश की है। शुरुआत में पश्चिमी ताकतों और उदार प्रतिष्ठानों ने अरब क्रांति का स्वागत और समर्थन किया और यह इसी दौरान मजबूत होती गई। तानाशाही से दूर जाकर निर्वाचित लोकतंत्र को चुनना आकर्षक विचार है। परंतु मुस्लिम ब्रदरहुड या उसके समकक्ष संस्थान एक के बाद एक देशों में चुने जाने लगे और पश्चिम का उत्साह कम होने लगा। परिणामस्वरूप तानाशाही की वापसी हुई। मिस्र में पुरानी व्यवस्था बहाल हो गई और ट्यूनीशिया में भी यही हुआ। सीरिया और लीबिया में टूटी-बिखरी व्यवस्था कायम हुई और यूरोप में शरणार्थियों की बाढ़ आ गई।
इसके समांतर अफ्रीका में भी ऐसी ही अस्थिरता आई। पश्चिमी ताकतें इतनी ज्यादा थक चुकी थीं कि कज्जाफी की हत्या और लीबिया को संकट में डालने के बाद बराक ओबामा परदे के पीछे से नेतृत्व करने की बात करने लगे। इन बातों ने राज्य, रणनीतिक और नैतिक प्राधिकार में बड़ा निर्वात पैदा किया। ईरान ने इस जगह को भर दिया। उसके गैर राज्य कारक यानी भाड़े के सैनिक इस क्षेत्र के कई देशों की सेनाओं से भी बड़ी तादाद में हैं। हूती इसका उदाहरण हैं।
हम सभी ‘नदी से समुद्र तक’ नारे से परिचित हैं जो फिलिस्तीनियों को उत्साहित और इजरायलियों को नाराज करता है। आज की भूराजनीति में ‘भूमध्य सागर से लाल सागर के रास्ते अरब सागर तक’ जैसे नारे की जरूरत होगी।
एक कठोर तथ्य यह है कि अमेरिकी नेतृत्व वाली सभी पश्चिमी शक्तियां जिन्हें भारत समेत मित्र देशों का समर्थन हासिल है, वे अपने अहम समुद्री मार्गों को सुरक्षित नहीं रख पा रहे हैं। ऐसा तब है जब वे सैन्य शक्ति जुटा रहे हैं हिंद-प्रशांत तथा दक्षिण चीन सागर को सुरक्षित रखने के लिए प्रयासरत हैं। इस विविधतापूर्ण लेकिन सुसंगत इस्लामिक चुनौती के उभार ने बड़ी सैन्य शक्तियों की सीमाओं को उजागर कर दिया। यहां बात केवल ईरान की नहीं है। अन्य शक्तियों का भी उभार हो रहा है जिनमें कतर सबसे प्रमुख है।
इसकी अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह अमेरिका, ईरान, हमास और इजरायल सभी के लिए एक साथ महत्वपूर्ण है। मिस्र के अब्दुल फतह अल-सीसी ने तो अमेरिकी राजनयिकों तक को इंतजार करवा दिया। उनके बिना गाजा से आगे रफाह क्रॉसिंग नहीं खुल सकती। वे चुनाव जीतने में कामयाब रहे। ये सारी बातें शीत युद्ध के अंत के बाद पश्चिमी ताकतों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन रही हैं।
सवाल यह है कि तब हम यह कैसे कह सकते हैं कि सियासी इस्लाम इस वक्त सबसे कमजोर स्थिति में है? पहली बात, यह लड़ाई और उथलपुथल चाहे जितनी लंबी चले, अंतत: यह समाप्त होगी और इस्लामिक समूह जीतेंगे नहीं। गोला-बारूद को छोड़ दें तो उनके पास जीतने के लिए जरूरी सुसंगतता ही नहीं है। अगर एक बार ईरान और उसका समर्थन हासिल गुटों के जीतने की संभावना समाप्त हो जाए तो इस क्षेत्र में केवल खाड़ी देश और तुर्किए ही बचते हैं। वे पहले की तुलना में कमजोर हैं और वे गाजा को लेकर अपना पक्ष नहीं चुन सकते।
रेचेप तैयप एर्दोआन ने तुर्किये को एक सौदेबाजी वाले देश के रूप में पेश कर दिया है जिसके पास तेल या गैस नहीं है। अब वह भारतीय उपमहाद्वीप में प्रभाव तलाश रहे हैं जिससे उनकी महत्त्वाकांक्षाओं की सीमा स्पष्ट होती है। ऐसे में दुनिया के वास्तविक अजेय युद्ध इस्लामिक देशों के बीच ही हैं।
ईरान-पाकिस्तान के बीच हुई गोलाबारी तो बस ताजा नजारा है। जनरल जिया उल हक के बाद लोकतंत्र ने पाकिस्तान को यह अवसर दिया था कि वह छोटे से आधुनिक, शिक्षित और कुलीन तबके के साथ इस्लामीकरण से दूरी बनाए और स्वयं को इंडोनेशिया जैसा बनाए या बांग्लादेश से सबक लें। उसने हाइब्रिड लेकिन जरूरी तौर पर इस्लामिक राज्य बनाया। परंतु वैश्विक प्रभाव के मौजूदा संघर्ष में वह पराजितों में गिना जाएगा।
आखिर में एक श्रेणी जिसके बारे में हमने अधिक बात नहीं। दुनिया के अधिकांश मुस्लिम इस समूह के बाहर के देशों में शांति से रह रहे हैं। ये देश हैं मलेशिया, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और भारत। इनमें से पहले दो में इस्लाम राज धर्म है लेकिन वे इस्लामिक राष्ट्रवाद के पैरोकार नहीं हैं। इन तथा ऐसे अन्य देशों में रहने वाले मुस्लिमों की आबादी करीब एक अरब है। ये मुस्लिम समुदाय बिना किसी से लड़े ही विजेता हैं।
उनकी सबसे बड़ी खूबी है अपेक्षाकृत गैर राजनीतिक आस्था। यही वजह है कि अमेरिका जो मिस्र को लेकर पलक तक नहीं झपकाता, खाड़ी के तानाशाहों को पसंद करता है और पाकिस्तानी सेना द्वारा चुनाव प्रभावित करने पर खुश होता है वहीं उसे बांग्लादेश के दोषपूर्ण चुनाव देखकर उसका पेट दर्द होने लगता है। बांग्लादेश 90 फीसदी से अधिक मुस्लिम आबादी के बावजूद खुद को इस्लामिक गणराज्य नहीं कहता।