संशयवादी चीन के साथ कारोबार में कटौती कर पाने की भारत की क्षमता को लेकर संदेह जता रहे हैं। लेकिन उन्हें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि सभी बड़े संकट अपने पीछे एक बेहद अहम विरासत भी छोड़ जाते हैं।
कोरोनावायरस की वजह से पैदा हुआ मौजूदा संकट भी इसका अपवाद नहीं होने वाला है और यह एक बार फिर घड़ी की सुइयों को 1920 की ओर ले जा रहा है।
वर्ष 1914-18 के दौरान लड़ा गया विश्व युद्ध इतना विनाशकारी था कि देश के भीतर या साम्राज्य की सीमाओं के भीतर रोजगार मुहैया कराने के लिए सारी घरेलू बचत एवं उत्पादन का इस्तेमाल जरूरी हो गया था। फिर वो हालात पैदा हुए जैसे आज दुनिया के सामने हैं।
इसका मतलब है कि अगले तीन वर्षों में हमें बड़े स्तर पर आर्थिक खुलापन को पलटने की कोशिशें नजर आ सकती हैं। वर्ष 1945 के बाद आर्थिक खुलेपन ने जोर पकड़ा था। ऐसी स्थिति रोजगार के महज एक आर्थिक परिणाम नहीं रह जाने से आएगी। आज रोजगार सबसे अहम राजनीतिक उद्देश्य बन चुका है।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद खुलापन के तकनीकी आयामों को बीसवीं सदी के महानतम अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स और एक अमेरिकी अफसरशाह ने मजबूती दी थी। वह अमेरिकी अफसर बाद में सोवियत संघ के जासूस पाए गए। किसी को भी नहीं पता कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? उनका नाम हैरी डेक्सटर व्हाइट था।
इस पहल का राजनीतिक मकसद साम्यवाद के प्रसार को थामना था। कीन्स ने 1936 में इसके लिए बौद्धिक साधन मुहैया कराते हुए कहा था कि सरकारों को भारी बेरोजगारी के दिनों में आर्थिक गतिविधियां तेज करने के लिए निश्चित रूप से सघन राजकोषीय हस्तक्षेप करना चाहिए। फिर व्हाइट ने इस मकसद को हासिल करने के लिए दो अंतरराष्ट्रीय बैंकों- अंतरराष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का गठन किया। इसका तीसरा स्तंभ व्यापार खुलापन था जिसके लिए सामान्य व्यापार एवं तटकर समझौता (गैट) लाया गया।
सोवियत संघ के वजूद में रहने तक इस दिशा में प्रगति धीमी रही क्योंकि वह एक वैकल्पिक मार्ग की आस बंधाता था। लेकिन 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद से लेकर 2016 तक दुनिया उसी तरह मुक्त बनी रही जैसी 1914 में पैसे एवं उत्पादों केे लिए हुआ करती थी।
चीन जनवादी गणराज्य (पीआरसी) जैसे दुष्ट देश की मौजूदगी में बेरोजगारी से निपटने के क्रम में यह खुलापन ही खत्म होगा। अगर दूसरे देशों को अपने यहां रोजगार अवसर बढ़ाने हैं तो ऐसा करना ही होगा। निश्चित रूप से जिस खुलेपन की वजह से सोवियत संघ का पतन हुआ, उसी खुलेपन को रोकने से पीआरसी के पतन का रास्ता तैयार होगा। ऐसा होना अवश्यंभावी है।
भले ही पुरानी सोच वाले लोग इस तरीके को लेकर शिकायत करेंगे लेकिन इसे अंजाम देना उतना मुश्किल भी नहीं होगा। असल में तो इसका ठीक उलटा होगा क्योंकि चीन से आयात रुकने पर घरेलू स्तर पर रोजगार पैदा होंगे। दूसरी बंदी वित्तीय होगी क्योंकि 1985 के बाद अमेरिका ने जो मौद्रिक नरमी बनाई वह टिकाऊ नहीं है। इसकी वजह से बहुत ज्यादा कर्ज की समस्या पैदा हुई है जो एक गहरे वित्तीय पतन की ओर इशारा करती है और उसके सामने 2008 का वित्तीय संकट महज एक गड़बड़ी जैसा दिखता है। इसके लिए बस एक फौरी वजह की जरूरत है।
इस तरह हम फिर से 1920 जैसे हालात की तरफ बढ़ते जाएंगे जिसमें एक देश के भीतर की समूची घरेलू बचत की जरूरत होगी। लिहाजा हमें पूंजी खाता परिवर्तनीयता को अलविदा कहने के लिए तैयार रहना होगा।
यह प्रक्रिया एक अपरिहार्यता है क्योंकि अब अपनी अर्थव्यवस्था के दरवाजे बंद करना घरेलू राजनीतिक की बुनियादी जरूरत हो चुकी है। यह चीन की घरेलू राजनीतिक जरूरतों के ठीक उलट है जहां खुलेपन की ही मांग है। चीन खुलेपन की जिस बेल के सहारे समृद्धि के शिखर तक पहुंचा है अगर उस बेल को ही काट दिया जाए तो उसे गहरी पीड़ा होगी।
हालांकि इस संदर्भ में एक और बात जोडऩे की जरूरत है और मैं सबसे पहले इसका जिक्र करना चाहूंगा: चीन उसी तरह ट्रिफिन डिलेमा का शिकार है जैसा अमेरिका रहा है। (ट्रिफिन डिलेमा का आशय अल्पकालिक घरेलू आर्थिक हितों एवं दीर्घकालिक अंतरराष्ट्रीय आर्थिक हितों के बीच टकराव से है।) इसका मतलब है कि कोई देश अपनी आरक्षित मुद्रा दुनिया को नहीं दे सकता है, फिर भी वह चालू खाता अधिशेष की स्थिति में हो।
चीन को इन दो विकल्पों में से एक चुनना होगा- उसकी मुद्रा रेनमिनबी के लिए आरक्षित चालू स्थिति हो या फिर चालू खाता घाटा हो। दूसरी स्थिति तो उसके लिए विपदा जैसी होगी। खैर, दोनों ही स्थितियां उसके लिए नुकसानदेह होंगी। भारत के पास चीन को बाहर खदेडऩे के सिवाय कोई चारा नहीं है। ऐसा होना शुरू भी हो चुका है। लेकिन चीन को भारत से बाहर रखने की इस कवायद की सही रफ्तार रखनी महत्त्वपूर्ण है। इसे काफी सोच-समझकर अंजाम देना है।
मुझे लगता है कि करीब एक साल बाद यानी 1 जुलाई, 2021 तक हमारा लक्ष्य चीन से होने वाले आयात को आधा करने का होना चाहिए। चीन की कंपनियों को नए ठेके एवं करार देने पर पूरी तरह रोक लगा देनी चाहिए।
ऐसा करना आसान नहीं होगा। तुच्छ गतिविधियों में लिप्त होना कभी भी आसान नहीं होता है क्योंकि इसमें सबको कुछ-न-कुछ नुकसान होता है। लेकिन इसका विकल्प तो यही है कि सब कुछ गंवा दिया जाए क्योंकि चीन तो यह खेल इसी तरह खेलना चाहता है। इसी वजह से हमें अपने लक्ष्य पर निगाह बनाए रखनी है। हमें फिर से लचीले बाजार बनाने की जरूरत है। चीन के पास यही तो है- अनमनीय राजनीति एवं लचीला अर्थशास्त्र। वहीं भारत के पास इसकी उलट स्थिति है। इसी वजह से हम यहां है और चीन कहां खड़ा है। चीन कभी भी राजनीतिक रूप से उदार नहीं होगा। लेकिन हम आर्थिक रूप से तो उदार हो सकते हैं।