खुदरा कारोबार की प्रकृति बदल रही है और भारत निस्संदेह वैश्विक स्तर पर इस बदलाव का अगुआ है। यह स्पष्ट है कि भारतीय उपभोक्ताओं ने ई-कॉमर्स को बहुत बड़े पैमाने पर अपनाया है। उदाहरण के लिए मेरे घर पूरी तरह ऑनलाइन ऑर्डर किए जा रहे हैं। यहां तक कि मेरी घरेलू सहायिका भी यही कर रही है। यही नहीं कई रिपोर्ट के अनुसार, मझोले और छोटे शहर, कस्बे और ग्रामीण भारत भी ऑनलाइन खरीदारी में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस यानी यूपीआई, आधार और डिजिटल अधोसंरचना के अन्य घटकों ने इस वृद्धि में मदद की है। अच्छी गुणवत्ता वाली डिजिटल अधोसंरचना तक आसान पहुंच ने भी स्टार्टअप और छोटे और मझोले उपक्रमों को इस योग्य बनाया है कि वे तकनीकी क्षमता विकसित करें।
मेरे लिए अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि उत्पादों की बड़ी तादाद अब आम लोगों के लिए आसानी से उपलब्ध है। रागी बिस्किट, पारंपरिक रूप से बना घी, ताड़ का गुड़, सेमल के तकिए, कूलर के लिए खस की मैट और अनेक अन्य उत्पाद जिन्हें पूरे भारत में आसानी से नहीं पाया जा सकता था, वे सभी अब उपलब्ध हैं। हमारा खपत व्यवहार भी तेजी से बदल रहा है और इसमें कुछ साल पहले की तुलना में काफी अंतर आया है। जैसे-जैसे खपत में अंतर बढ़ रहा है वैसे-वैसे ढेर सारे छोटे उपक्रमों, समूहों या गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) के लिए भी अवसर बढ़ रहा है जो इन वस्तुओं की आपूर्ति करते हैं।
कुछ सदी पहले तक कहा जाता था कि ग्रामीण भारत में खुदरा कारोबार बहुत कम है। वहां लेनदेन और किसी चीज के बदले दूसरी चीज के आदान प्रदान की व्यवस्था थी। यहां तक कि शहरी भारत में भी ग्राहक आमतौर पर परिचित दुकानों पर ही जाते। यह रिश्ता काफी हद तक अंतरंग होता। उनके बीच बार-बार लेनदेन होता और उधारी भी। इसके चलते खुदरा कारोबारी ऐतिहासिक रूप से भारतीय ग्राहकों को उधार देने वाले रहे। असंगठित क्षेत्र भी ऐसी शानदार सेवाएं मुहैया कराता था जो आधुनिक खुदरा कारोबार नहीं मुहैया करा पाते। ये सभी व्यवहार इसलिए चलन में आए क्योंकि पारंपरिक खुदरा कारोबारी नवाचारी थे। वे भारतीय ग्राहकों के सबसे करीब थे और उनकी जरूरतों को अच्छी तरह समझते थे।
भारतीय खुदरा कारोबारी पारंपरिक रूप से कम मार्जिन में सेवाएं देते हैं, वे आसानी से उधार देते हैं और कुछ खास जरूरतों के लिए लोग उन पर निर्भर हैं। यह परिचालन बहुत मजबूत है। उदाहरण के लिए जब नोटबंदी के दौरान नकदी गायब हो गई थी तब यही मजबूत काम में आई थी। सब्जियां बेचने वालों/खुदरा कारोबारियों और ग्राहकों के बीच के भरोसे ने खानेपीने की आपूर्ति सुनिश्चित की जबकि थोक विक्रेताओं और सब्जी कारोबारियों के रिश्ते ने यह सुनिश्चित किया कि खाद्य पदार्थों की आपूर्ति प्रभावित न हो। कोई भुगतान नहीं किया जाता था। यह सब केवल मौखिक लेनदेन था क्योंकि वह उस वक्त की जरूरत थी। कोविड के दौर में भी जब वर्दी वाले पुलिसकर्मी बाकी वेंडर को रोक देते तो खुदरा कारोबारियों के इसी समूह ने सुनिश्चित किया कि विभिन्न इलाकों में खानेपीने की चीजें पहुंचती रहें। ध्यान रहे कि लॉकडाउन के दौरान खुदरा कारोबार की इजाजत थी लेकिन झुग्गियों में और शहरों के अत्यंत अंदरूनी हिस्सों में असंगठित क्षेत्र के वेंडर्स ने ही ये चीजें पहुंचाईं। यहां बात इंसानी रुचि की नहीं है बल्कि आर्थिक अनिवार्यताओं ने कम मार्जिन और कठिनाई के बावजूद कामकाज जारी रखा।
ऐसे में हमारे सामने एक दुर्भाग्यपूर्ण दुविधा के हालात हैं। बड़े गिग इकनॉमी वाले कारोबारी कम कीमतों पर वस्तुओं की एक अद्भुत श्रृंखला प्रदान करते हैं जबकि छोटे खुदरा विक्रेता हमेशा नहीं लेकिन कभी-कभी अनौपचारिक भी होते हैं। दोनों में कुछ समानताएं भी हैं। जिस प्रकार पारंपरिक खुदरा व्यापार में कुछ लोग गतिशील होते हैं और कुछ लोग एक स्थान पर स्थिर रहते हैं, उसी प्रकार ई-कॉमर्स भी ऐसे विकल्प प्रदान करता है। जिस तरह पारंपरिक खुदरा कारोबार हमेशा नवाचार करता है (घर-घर आपूर्ति) उसी तरह ई-कॉमर्स भी बदल रहा है। इसमें त्वरित व्यापार और 10 मिनट में डिलिवरी जैसे नवाचार नजर आ रहे हैं। प्रश्न यह है कि फिर इनमें अंतर क्या है?
दोनों में सबसे बड़ा अंतर यह है कि पारंपरिक खुदरा कारोबार जहां बाजार के तय ढांचे में रहकर काम करता है, जहां कई वेंडर होते हैं और कई लोग होते हैं जो जिनसे वस्तुएं ली जा सकती हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस क्षेत्र में प्रवेश की राह में सीमित बाधाएं हैं। इससे उच्च स्तरीय प्रतिस्पर्धा और सीमित मार्जिन तय होते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि इस तरह का खुदरा कारोबार पर्याप्त नवाचारी नहीं होता है क्योंकि इसमें कभी पर्याप्त अधिशेष नहीं तैयार होता है जो नवाचार को गति प्रदान करे। वहीं नया ई-कॉमर्स क्षेत्र चुनिंदा बड़े कारोबारियों का क्षेत्र है जो एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं और साथ ही पारंपरिक खुदरा उद्योग से भी। उनके पास कम लागत में चीजें खरीदने की क्षमता है। इसके बावजूद अधिकांश ई-कॉमर्स कंपनियां लाभ में नहीं हैं। वे घाटा उठाकर भी पारंपरिक खुदरा कारोबार को खत्म करने की रणनीति पर काम कर रही हैं। कहा जाता है कि बाद में वे कीमतें बढ़ा देंगी। अगर यह सही है तो बेहतर यही होगा कि उन पर कर ज्यादा लिया जाए या फिर नियामकीय या नीतिगत कदम उठाए जाएं। वहीं दूसरी ओर अगर ऐसा नहीं है तो फिर इस बात का अध्ययन किया जाना चाहिए कि खुदरा के इस नए स्वरूप में रोजगार, नवाचार और मूल्यों आदि को कैसे सुनिश्चित किया जाए?
अर्थशास्त्र से जुड़ी सामग्री कुछ अंतद़ृष्टि प्रदान करती है। पहले का संबंध प्रतिस्पर्धा के स्वरूप से है। कंपनियों के लिए उस समय उच्च लाभ हासिल करना मुश्किल होता है जब वे कीमतों को लेकर प्रतिस्पर्धा कर रही हों। ई-कॉमर्स के क्षेत्र में उच्च लाभ सुनिश्चित करने के लिए सेवाओं में विशिष्टता हासिल करना बहुत जरूरी है। दूसरा, लंबी अवधि में तभी लाभ होगा जब उस क्षेत्र में प्रवेश मुश्किल हो। चूंकि घरेलू और वैश्विक दोनों ही प्रकार की अनेक कंपनियां हैं, इसलिए इस बात का पहले ही ध्यान रखा जा चुका है – जब तक कि मौजूदा कंपनियां आपस में मिलकर विभिन्न ग्राहक या उत्पाद खंडों को आपस में बांट न लें। तीसरा, यदि वास्तव में उद्देश्य पारंपरिक खुदरा व्यापार को समाप्त करने का है तो भविष्य में छोटे खुदरा विक्रेताओं के प्रवेश को रोकना होगा। छोटे उद्यमियों की गतिशीलता को देखते हुए यह कैसे तय किया जा सकता है। प्रथम दृष्टया देखें तो उपरोक्त तीनों प्रश्नों के उत्तर स्वतः स्पष्ट हैं। लेकिन इस समीकरण में एक और प्रश्न जोड़ना आवश्यक है। नीतियां कैसे सुनिश्चित कर सकती हैं कि पारंपरिक खुदरा व्यापार नवाचार करे और समृद्ध हो? ध्यान दें कि पारंपरिक खुदरा व्यापार, चाहे वह किराना हो या अनौपचारिक क्षेत्र में, अधिशेष पैदा करता है, ग्राहकों की सेवा करता है, नवाचार करता है और निश्चित रूप से, बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन करता है। इसलिए, एक अच्छी खुदरा नीति उन्हें अधिक गतिशील बनाने में सक्षम बनाएगी। ऐसी नीतियों में संभवतः कई जाने-माने समाधान शामिल होंगे, जिनमें पर्याप्त स्थान, आसान ऋण, भ्रष्ट नगर निरीक्षकों और स्थानीय पुलिसकर्मियों से मुक्ति, और कम नियमन शामिल हैं।
लेकिन यकीनन सबसे महत्त्वपूर्ण नीतिगत योगदान पारंपरिक खुदरा और ई-कॉमर्स को एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने के लिए सशक्त बनाना होगा। उदाहरण के लिए, पारंपरिक खुदरा विक्रेताओं को ई-कॉमर्स फर्मों के लिए उपलब्ध कम लागत वाले उत्पादों तक पहुंच कैसे मिल सकती है? इसी तरह, ई-कॉमर्स कंपनियों को स्थानीय खुदरा विक्रेताओं के ग्राहक ज्ञान और नेटवर्क तक पहुंच कैसे मिल सकती है? अगर यह संभव होता, तो पारंपरिक खुदरा विक्रेताओं के दीर्घकालिक भरोसेमंद संबंधों और ग्राहक ज्ञान का लाभ ई-कॉमर्स की पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं और प्रक्रिया-संचालित तरीकों का पूरक बन सकता था। हम पहले से ही ऐसे मॉडलों का परीक्षण होते देख रहे हैं। सवाल यह है कि नीतियां इनके क्रियान्वयन में कैसे मदद कर सकती हैं?
(लेखक सीएसईपी रिसर्च फाउंडेशन के प्रमुख हैं। लेख में उनके व्यक्तिगत विचार हैं।)