मुझे याद आता है कि 1980 के दशक के मध्य में मुंबई (उस समय बंबई) में जब मैं अपने कामकाजी जीवन के शुरुआती दशक में था तब अखबारों की सुर्खियां कुछ इस तरह होती थीं: ‘बैंक यूनियन की चेतावनी: कंप्यूटर आया तो हजारों लोग हो जाएंगे बेरोजगार’। यहां तक कि आईआईएम कलकत्ता से पढ़कर निकले और अपनी विज्ञापन एजेंसी आगे बढ़ाने के लिए बेताब मुझ जैसा युवा भी सोचने लगता: ‘क्या दुनिया खत्म होने वाली है? क्या भारत में ऐसी जनक्रांति होने वाली है जो उसकी शक्ल ही बदल देगी?’
भारी भरकम सुर्खियों और खबरों में कहा जाता था कि 80 से अधिक बड़ी कपड़ा मिलें, जो उस समय बंबई की अर्थव्यवस्था का आधार थीं, वे सूती कपड़े की जगह पॉलिएस्टर और नायलॉन आने के कारण घाटे में चल रही हैं। मजदूरों को वेतन नहीं मिल पा रहा था। हमें विज्ञापन देने वाली सबसे बड़ी ग्राहक ये कपड़ा मिलें ही थीं। अगर उन पर ताले लटक गए तो हमारे कारोबार का भविष्य क्या होगा?
आजकल मेरे कई दोस्त और परिचित भी बिल्कुल उसी हाल में दिख रहे हैं, जैसा हाल उस समय मेरा था। उनके सामने भी ऐसी ही सुर्खियां हैं: ‘बैंकिंग में एआई: कर्मचारी सुन रहे हैं कि ऑटोमेशन तेज होने के साथ ही उनका काम हो सकता है कम’। यह कम है तो तमाम संपादकीय भी हैं, जो हमें फर्जी खबरों के खतरे और बड़ी तकनीकी सेवा कंपनियों के पतन की चेतावनी दे रहे हैं।
मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता हूं कि बैंकों का कंप्यूटरीकरण ही है, जिसके कारण आज हमें अपने ही खाते से पैसा निकालने के लिए 100 मीटर लंबी लाइन में नहीं लगना पड़ता। कंप्यूटरीकरण की वजह से ही हमें जरूरी कामों के लिए पहले की तरह नकदी लेकर नहीं चलना पड़ता और कर्मचारी घटाने के बजाय बैंक अब देश की 10 फीसदी शहरी आबादी (मुख्य रूप से मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और दिल्ली) से आगे बढ़कर 85 फीसदी आबादी तक पहुंच गए हैं, जिसमें ग्रामीण भारत के लोग भी शामिल हैं। जब मैं यह सब बताता हूं तो मुझे उनके चेहरों पर चमक और राहत नजर आने लगती है।
एआई के बारे में चिंता देखकर मैं सोचने लगा हूं कि क्या इसे ‘आर्टिफिशल इंटेलिजेंस’ का नाम देना गलती थी और क्या उसका ज्यादा सटीक नाम ‘लार्ज लैंग्वेज मॉडल’ होता। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस शब्द से लगता है कि चैटजीपीटी और गूगल जेमिनाई के पास इंसानों की तरह इरादे और तर्क शक्ति हैं। लेकिन साफ है कि इसे एआई कहने से निवेशकों को उत्साहित करना और पूंजी जुटाना आसान हो जाता है। यह पहला मौका नहीं है जब निवेशकों को ध्यान में रखकर कोई नाम रखा गया है। 1970 के दशक में शतरंज खेलने वाले कंप्यूटर को एआई का प्रयोग करने वाला माना गया था। 1990 के दशक में ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकग्निशन (ओसीआर) को एआई कहा गया। अब यह तो यह आपके फोन पर ही मिल जाती है।
इसे ‘हाई डायमेंशनल पैटर्न मैचिंग’ कहना ज्यादा सही होता। हो सकता है कि जिसे आज हम एआई कहते हैं, उसे 10 साल बाद ‘सुपरफास्ट ऑटोकंप्लीट’ कहा जाए। मैं अक्सर जेमिनाई से मशविरा लेता हूं और मैंने उससे पूछा, ‘हाई-डायमेंशनल पैटर्न मैचिंग या ऐसे ही किसी नाम के बजाय एआई नाम मायने क्यों रखता है।’ मुझे जवाब मिला कि एआई का ठप्पा इसलिए जरूरी है क्योंकि यह सांख्यिकी के एक टूल को मिथकीय इकाई में बदल देता है। हम इसे हाई-डायमेंशनल पैटर्न मैचिंग कहते तो यह औजार की तरह हो जाता, जिसे पहले से भांपा जा सकता और जिस पर मानव का काबू होता। परंतु इसे इंटेलिजेंस कहकर हम मशीन को सोचने की ताकत दे देते हैं। इससे उसका आर्थिक मूल्य कई गुना बढ़ जाता है मगर उसकी जवाबदेही बहुत कम हो जाती है।
सांख्यिकीय उपकरण नाकाम हो तो हम इस्तेमाल करने वाले को दोष देते हैं मगर एआई गड़बड़ करे तो ‘ब्लैक बॉक्स’ के मत्थे तोहमत मढ़ दी जाती है। यह सब पढ़कर मैं हैरानी से सिर खुजाने पर मजबूर हो गया। जेमिनाई के जवाब साफगोई से भरे हुए थे जबकि मुझे लग रहा था कि वह मार्केटिंग को ध्यान में रखकर जवाब देगा।
आदत से मजबूर होकर मैंने अपने दूसरे साथी चैटजीपीटी से भी यही सवाल किया। इस बार मुझे जवाब मिला, ‘हम इसे ‘आर्टिफिशल इंटेलिजेंस’ इसलिए नहीं कहते कि आज की प्रणालियां मनुष्यों की तरह सोचती हैं, बल्कि इसलिए कहते हैं क्योंकि लोगों को उस व्यापक वैज्ञानिक परियोजना के लिए एक सरल और प्रभावशाली नाम चाहिए, जो बुद्धिमानी भरा व्यवहार करने वाली मशीन बनाना चाहता है। तकनीकी शब्द बताते हैं कि प्रणालियां क्या करती हैं मगर एआई बताता है कि उस क्षेत्र का लक्ष्य क्या है।’
मैं इन जवाबों की सचाई से हैरान था। थोड़ा सोचने पर स्पष्ट हो जाता है कि हम मनुष्य चैटजीपीटी, जेमिनाई और आजकल प्रचलित वैसे ही दूसरे उपकरणों के जवाबों से चकित और प्रभावित इसलिए हो जाते हैं क्योंकि वे मानवों की तरह ही संवाद करते हैं। उनके जवाबों का जो लहजा होता है या जो शब्द वे इस्तेमाल करते हैं, वे एकदम मानवों जैसे ही लगते हैं। मुझे एकाएक याद आया कि स्टीव जॉब्स ने जब आईफोन तैयार किया था तो उन्होंने ऐसा ही कुछ किया था।
उन्होंने टच यानी स्पर्श को नेविगेशन (स्वाइप, पिंच, जूम) का जरिया बनाया था जो उन्होंने प्रत्याहार (इंद्रियों को सांसारिक माया से निकालकर एकाग्र करने) के योग सिद्धांत से सीखा था। यही वजह है कि टच का आगमन हुआ और आज मोबाइल फोन पर हर चीज के लिए अक्षर टाइप करने की तकलीफ नहीं उठानी पड़ती। टच वाले फोन आज हम सभी के अटूट साथी बन गए हैं। अब वक्त आ गया है कि हम सब आराम से रहें और एआई के दौर का लुत्फ उठाएं।
(लेखक तकनीक और समाज के बीच संबंधों की गुत्थियां सुलझाते हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं)