Regulatory fee: बंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) ने स्टॉक एक्सचेंजों को जानकारी दी कि भारतीय प्रतिभूति एवं विनियामक बोर्ड (सेबी) ने उसे सालाना कारोबार पर नियामकीय शुल्क का भुगतान करने का निर्देश दिया है। बीएसई ने कहा कि विकल्प अनुबंध (ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट) में सांकेतिक मूल्य पर विचार करने के बाद सेबी ने यह आदेश दिया है।
सेबी ने बीएसई को यह शुल्क पिछली अवधि यानी वित्त वर्ष 2006-07 से 15 प्रतिशत ब्याज के साथ चुकाने के लिए कहा है। यह रकम 70 करोड़ रुपये तक हो सकती है। वित्तीय एवं राजकोषीय विशेषज्ञ सेबी के इस निर्देश को अनुचित मानते हैं।
किसी नियामक को आर्थिक संसाधन की प्राप्ति कहां से होती है? नियामक की स्थापना कई कारणों से की जाती है और उनमें एक नियामकीय कार्यों को राजनीति और निर्वाचित सरकार के प्रभाव से बचाए रखना। परंतु, नियामक की स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए उन्हें वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर बनाना पड़ता है।
स्वायत्त नियामकों को अपने व्यय के लिए सरकार पर निर्भर नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे उनकी निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित हो सकती है। वित्तीय संसाधन के अभाव में नियामकों को उन लोगों की इच्छा के अनुरूप निर्णय लेने पड़ सकते हैं जिनके ऊपर उन्हें आर्थिक संसाधन के लिए निर्भर रहना पड़ता है। अगर नियामक निर्णय लेने का प्रक्रिया में औपचारिक स्वतंत्रता बरकरार रखता है तो भी वित्तीय निर्भरता उसकी सोच दूसरी दिशा में मोड़ सकती है।
एक स्वतंत्र नियामक गठित करने का मकसद निजी निवेशकों को यह विश्वास दिलाना है कि नियम-कायदे बखूबी काम करेंगे और उनकी दशा एवं दिशा को लेकर अनिश्चितता जैसी स्थिति नहीं रहेगी। लिहाजा ऐसा ढांचा तैयार करना जरूरी है जिससे नियामकों के लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधन सुनिश्चित करने में मदद मिले। नियामकों को आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए शुल्क लगाने के अधिकार दिए गए हैं।
लोक नीति के पीछे एकमात्र बड़ा उद्देश्य यह है कि सरकार की प्रत्येक संस्था को नियंत्रण एवं संतुलन के दायरे में लाया जाना चाहिए। पंरतु, भारत में जब नियामक शुल्क लगाते हैं तब नियंत्रण एवं संतुलन का अभाव दिखता है। इसका नतीजा यह हुआ है कि आत्ममुग्धता की स्थिति बनती जा रही है। ऊंचे शुल्क, व्यापक व्यय कार्यक्रम और संसाधनों का भंडार जमा करने की ललक बढ़ती जा रही है। शुल्कों से जुड़े बीएसई के मामले इस बढ़ते चलन के संदर्भ में देखा जा सकता है।
उदाहरण के लिए पिछले पांच वर्षों में सेबी का व्यय (पूंजीगत व्यय सहित) उसकी आय की तुलना में कम रहा है। वर्ष 2022-23 में सेबी की कुल आय 1,004 करोड़ रुपये थी, जिनमें लगभग 86 प्रतिशत हिस्सा इकाइयों से फीस/सबस्क्रिप्शन के रूप में आया था। यह रकम ने केवल सेबी के नियामकीय दायित्व पूरा करने के लिए पर्याप्त थी बल्कि व्यय के बाद उसके पास 500 करोड़ रुपये से अधिक राशि बच गई।
वास्तव में उक्त वित्त वर्ष में इसके खाते में 4,508 करोड़ रुपये (क्लोजिंग बैलेंस) बच गए। वित्त वर्ष 2022 में अधिशेष रकम लगभग 484 करोड़ रुपये, वित्त वर्ष 2021 में 158 करोड़ रुपये, वित्त वर्ष 2020 में 225 करोड़ रुपये और वित्त वर्ष 2029 में 471 करोड़ रुपये थी। सेबी की आय और उसका मुनाफा कई वित्तीय कंपनियों की तुलना में अधिक है। हम हालात कैसे बेहतर बना सकते हैं? नियामकों को अपना आर्थिक साम्राज्य खड़ा करने की अनुमति दिए बिना उनकी स्वायत्तता कैसे सुनिश्चित की जा सकती है?
- भारतीय न्यायालयों ने लगातार सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा लिए जाने वाले कर और शुल्क में अंतर स्पष्ट किया है। आयकर कानूनों के तहत कर भुगतान अनिवार्य है जिसका इस्तेमाल सार्वजनिक हित के लिए होता है। दूसरी तरफ, शुल्क तब लिया जाता है जब कोई सेवा दी जाती है। शुल्क में व्यक्तिगत भुगतानकर्ता और सार्वजनिक प्राधिकरण के बीच आपसी हित जुड़े हो सकते हैं मगर कर के मामले में ऐसी बात नहीं होती है। इसका मतलब है कि यथामूल्य (एड-वेलोरम) कर युक्तिसंगत नहीं है। अगर सेबी किसी एक संगठन (जैसे बीएसई) पर शुल्क लगाता है तो यह नियमन पर आए खर्च से जुड़ा होना चाहिए। यह कोई नया विषय नहीं है। कुछ वर्षों पहले सेबी ने कुछ विनियमित इकाइयों के सालाना पंजीकरण पर यथामूल्य कर बढ़ाने का प्रस्ताव दिया था। सेबी के निदेशकमंडल की बैठक में इस शुल्क और सेबी द्वारा दी जाने वाली सेवा के बीच संबंध पर सवाल उठाए गए। सेबी को विवश होकर शुल्क घटाना पड़ा और तब से सेबी यथामूल्य कर के बजाय पंजीयनों एवं नवीनीकरणों के लिए नियत शुल्क लगाना शुरू कर दिया है।
- ऊंचे शुल्क वसूलने और मोटी रकम जमा करने वाला कोई सरकारी संगठन संभवतः अत्यधिक व्यय भी करता है। इन संगठनों का बजट काफी सावधानी से तय करने की जरूरत है। अगर सेबी के पास खर्च करने के लिए अधिक संसाधन सीमित होंगे तो वह महत्त्वपूर्ण नियमन तैयार करने और निगरानी के मामले में अधिक सधा रवैया अपनाएगा।
- संगठन का निदेशक मंडल ऐसी जगह होती है जहां इन विषयों पर चर्चा होती है। नियमन पर आधुनिक सोच निदेशक मंडल की भूमिका एवं संरचना के महत्त्व को रेखांकित करती है। हरेक संगठन के निदेशक मंडल का मकसद पूर्णकालिक कर्मचारियों के हितों के खिलाफ अंशधारकों एवं संबंधित पक्षों के हितों को सुरक्षित रखना है। निदेशक मंडल को निश्चित तौर पर संवैधानिक सिद्धांत लागू करना और यथामूल्य शुल्कों पर रोक लगानी चाहिए। निदेशक मंडल को संसाधनों का भंडार संगठन से निकालकर वित्त मंत्रालय के नियंत्रण में देना चाहिए। निदेशक मंडल को पूरे वर्ष बजट प्रक्रिया जारी रखनी चाहिए। इस प्रक्रिया में लागत को नियंत्रित किया जाना चाहिए और बजट बढ़ने की सूरत में संगठन की कार्यशैली में सुधार सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधकों को उत्तरदायित्व ठहराया जाना चाहिए।
- भारत में सार्वजनिक वित्त के लिए सरकारी ढांचे में कई कोषों का भंडार रखना बुद्धिमानी नहीं है। इसे देखते हुए ही संसद ने वित्त अधिनियम, 2019 के अंतर्गत अधिशेष रकम के अंतरण के लिए सेबी अधिनियम में संशोधन किया था। मगर विचारणीय है कि संसद द्वारा पारित होने और राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद सेबी ने यह संशोधन अधिसूचित नहीं किया है। सेबी ने भारत की संचित निधि में लगभग 1,000 करोड़ रुपये से अधिक राशि अंतरित की है परंतु सेबी अधिनियम में संशोधन को ठंडे बस्ते में डाल दिया है।
- इन सवालों पर माथापच्ची करने के लिए जरूरी ऊर्जा एवं उपलब्ध मानव संसाधन सीमित हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई), सेबी आदि के लिए अलग-अलग इन समस्याओं का समाधान करना मुश्किल है। वित्तीय अनियमितता सुनिश्चित करने और बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीए), आरबीआई, सेबी एवं अन्य नियामकों के पास जमा नकदी बाहर निकालने में कई वर्ष लग गए हैं। वित्तीय क्षेत्र सुधार आयोग के दृष्टिकोण का इस्तेमाल करना एक बेहतर है। वित्तीय क्षेत्र सुधार आयोग में केवल एक संसदीय कानून का प्रस्ताव दिया गया है जिसके अंतर्गत सभी वित्तीय एजेंसियों की कार्य प्रणाली तय करने के लिए ठोस ढांचा तय करने की बात कही गई है।
(लेखक आईसीपीपी से संबद्ध हैं)
First Published - May 22, 2024 | 9:36 PM IST
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