कई उपभोक्ता सामान की सूचनाओं में अक्सर विषमता की समस्या होती है। यह उम्मीद करना अनुचित है कि उपभोक्ता हर बार किसी उत्पाद, खासकर खाद्य पदार्थों और दवाओं की शुद्धता और गुणवत्ता की जांच स्वयं करेगा। उदाहरण के तौर पर, 13 मार्च को दिल्ली में एक बड़े नकली दवा कारोबार का पर्दाफाश हुआ।
सरकार का हस्तक्षेप ‘बाजार की इस विफलता’ को दूर करने में उपयोगी हो सकता है, बशर्ते इसके अनुरूप पर्याप्त सरकारी क्षमता तैयार की जा सके। भारत सरकार ने 12 मार्च को दवा की मार्केटिंग के लिए एक समान संहिता (यूसीपीएमपी) 2024 को अधिसूचित किया है। हालांकि यह अच्छी मंशा से लाया गया है लेकिन यह एक अलग ही तरह का दस्तावेज है क्योंकि इसमें दवाओं के प्रचार के लिए एक ‘स्वैच्छिक’ आचार संहिता है।
आमतौर पर बाजार अच्छी तरह से काम करते हैं। कपड़े खरीदते समय, हम परिधान निर्माता की प्रतिष्ठा को देखते हुए भरोसा करते हैं। अगर कोई कमीज सिकुड़ जाती है या बटन टूट जाता है तब अगली बार हम ब्रांड बदल लेते हैं। ग्राहक का ब्रांड का साथ छोड़ना ही फीडबैक होता है। कंपनियों को इसका सीधा असर इनके तिमाही प्रदर्शन और शेयर कीमतों पर दिखता है। यह प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रिया कंपनियों को ग्राहकों को बेहतर सेवा देने के लिए एक-दूसरे के साथ होड़ में रखती है।
हालांकि, खाद्य पदार्थ या दवाओं के मामले में उपभोक्ताओं द्वारा इस तरह की आजमाइश करना मुश्किल होता है। जब खाने की चीजों को कई घंटों तक गर्म रखे गए तेल में तला जाता है तो यह शरीर को दीर्घावधि में नुकसान पहुंचाता है। हालांकि उपभोक्ता शायद इसके लिए खाद्य उत्पादक को जिम्मेदार नहीं ठहरा पाएंगे।
नकली ऐंटीबायोटिक भी संक्रामक बीमारी के प्रभाव को कम कर देता है और ऐसा इसलिए होता है कि मानव शरीर ज्यादातर संक्रमण से खुद ही लड़ सकता है और थोड़ा प्लेसेबो प्रभाव (जिसमें व्यक्ति को अंदाजा होता है कि कोई दवा दी गई है भले ही वह असरदार न हो) भी ठीक होने में मदद करता है।
दूसरी ओर, भारत में कई लोग अक्सर घटिया गुणवत्ता वाली दवाओं के कारण भी जल्दी ठीक नहीं हो पाते हैं। हालांकि, दवा उद्योग और नियामकों ने दवाओं की उच्च गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए एक जटिल टूलकिट तैयार किया है। दवा बनाने वाली फैक्टरियों को लाइसेंस की जरूरत होती है। दवा निर्माण के लिए जरूरी सामग्री के विवरणों का निरीक्षण किए जाने के साथ ही उसे रिकॉर्ड भी किया जाता है। दवा निर्माण में जुटे लोगों की योग्यता का जिक्र भी किया जाता है और दवा उत्पादन फैक्टरियों का लगातार निरीक्षण किया जाता है।
भारत में इस विषय से संबंधित कानून हैं और इन नियमों को निर्धारित और लागू करने के लिए प्रशासनिक तंत्र भी मौजूद है। ये कानून 75 साल से भी ज्यादा पुराने हैं, जिनमें कई तरह के संशोधन किए गए हैं। भारत में ‘नियामकीय सिद्धांत’ के क्षेत्र के सबक से भी अंदाजा मिला है कि सामान्य तकनीकों में उल्लेखनीय सुधार के जरिये कैसे राज्य नियामकों की क्षमता में वृदि्ध हुई है। हालांकि, यह जानकारी अभी तक दवाओं की गुणवत्ता के नियमन में शामिल नहीं की गई है।
दवा क्षेत्र, केंद्र और राज्य दोनों के समवर्ती अधिकार क्षेत्र से जुड़ा है जबकि वित्तीय क्षेत्र के नियमन में यह बात नहीं है। वित्त क्षेत्र स्पष्ट रूप से केंद्र सरकार के अधीन है। जहां राज्य सरकारों ने दवा निर्माण को विनियमन के अपने लक्ष्य के रूप में देखा है, वहीं, पूरा ध्यान राज्य के निर्माताओं से हटाकर राज्य के उपभोक्ताओं पर केंद्रित करना अधिक युक्तिसंगत होगा। प्रत्येक राज्य को अपनी सीमा के भीतर की गई खरीद के लिए उपभोक्ताओं के हित के लिए खुद को समर्पित करना चाहिए। इससे ठीक तरीके से प्रोत्साहन मिलेगा और राज्य नियामक भी अपने लोगों के जीवन को बेहतर बनाने की दिशा की ओर बढ़ेंगे।
निर्माण के क्षेत्र में, भारत की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यहां विदेशी दवा गुणवत्ता नियामकों की उपस्थिति है जिससे निर्यात करने वाली फैक्टरियों की गुणवत्ता को बढ़ावा दिया जाता है। उदाहरण के लिए, ऐसी फैक्टरियां अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (यूएसएफडीए) द्वारा अनुमोदित होने का दावा करके भी अपनी गुणवत्ता का संकेत दे सकती हैं। हालांकि, इस प्रगति में एक प्रमुख सीमा बाधा बनती है और वह है भारत का मूल्य नियंत्रण है जिसके चलते ये अक्सर उच्च गुणवत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक खर्च स्तर में दखल देते हैं।
लेकिन दवा विनिर्माण में गुणवत्ता से इतर, समस्या पूरी वितरण श्रृंखला में दिखने लगती है। इस जाल में कहीं से भी असामाजिक तत्त्व सेंध लगा सकते हैं। दवा केंद्र में उपभोक्ताओं को नुकसान पहुंचाने वाली संभावित दो समस्याएं हो सकती हैं।
पहली समस्या यह है कि दवाएं नकली या घटिया हो सकती हैं और वितरण/परिवहन श्रृंखला में बेईमान बिचौलिये ही मूल दवाओं की जगह पर नकली दवाएं दे सकते हैं। दूसरी समस्या, ऐसी स्थितियों से जुड़ी है जिनमें वैकल्पिक दवा या सही दवाओं के आकलन की आवश्यकता होती है। जब डॉक्टर द्वारा बताए गए ब्रांड की दवा उपलब्ध नहीं होती है या डॉक्टर ने बिना किसी ब्रांड या विशेष नाम के केवल दवा का सामान्य नाम (उदाहरण के लिए पैरासिटामोल) बता दिया हो तब ऐसी स्थिति बन सकती है।
इन दोनों ही स्थितियों में, दवा की दुकान में दवा देने वाला व्यक्ति जानकार होना चाहिए और मरीज/ग्राहक को वही दवा देनी चाहिए जो आवश्यक है। भारत के संदर्भ में प्रगति के लिए नई रणनीतियों की आवश्यकता है, साथ ही भारत में राज्य की क्षमता की सीमाओं को भी ध्यान में रखना होगा। आपूर्ति श्रृंखला में दवाओं की प्रामाणिकता को बेहतर बनाने के लिए सार्वजनिक ब्लॉकचेन पर दवा के बारे में पता लगाने की प्रणाली संभवतः मददगार साबित हो सकती है।
ब्लॉकचेन-आधारित दवा के बारे में पता लगाने का एक मुख्य पहलू प्रत्येक दवा इकाई को एक विशिष्ट पहचान देना है। प्रत्येक दवा इकाई को एक डिजिटल पहचान के साथ जोड़कर, हितधारक आसानी से इसके तैयार होने, इसकी प्रामाणिकता और आपूर्ति श्रृंखला के बारे में जानकारी ले सकते हैं और इसे सत्यापित कर सकते हैं।
रिकॉर्ड के अनुसार भारत में लगभग 10 लाख दवा विक्रेता हैं, लेकिन साथ ही बड़ी संख्या में अनधिकृत फार्मेसी भी चल रही हैं। कानून के अनुसार दवाओं के वितरण और बिक्री के लिए एक पंजीकृत दवा विक्रेता होना आवश्यक है। विनियामक की जिम्मेदारी भी केंद्र और राज्य सरकारों में विभाजित है। एक अतिरिक्त जटिलता यह है कि दवा विक्रेताओं की शिक्षा, पेशे और उनके कामकाज के लिए एक अलग नियामक होता है। इस संवैधानिक माहौल में अच्छे समाधान खोजने के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता होगी।
इस आलेख का हर महत्त्वपूर्ण तर्क सांख्यिकीय उपायों की ओर जाता है, जिनकी वर्तमान में देश में कमी है। डेटा के अभाव में समस्याओं का निदान करना, समाधानों की कल्पना करना या नीतिगत हस्तक्षेपों में गलतियां करने पर फीडबैक पाना कठिन होता है। प्रगति के इस सफर में नीतिगत पाइपलाइन मौजूद है जहां किसी कदम को छोड़ा नहीं जा सकता है।
हम डेटा से शोध, नवाचार समाधान डिजाइन से लेकर सार्वजनिक बहस, नीतिगत फैसले से नीतिगत क्रियान्वयन की ओर बढ़ते हैं। यह क्षेत्र डेटा की बुनियाद वाली सीमाओं से ग्रस्त है। दवा उद्योग कैसे काम करता है और विभिन्न प्रकार की विफलताओं के चलन को समझने के लिए एक बेहतर उपाय वाला तंत्र बनाने की आवश्यकता है।
(लेखक पूर्व लोक सेवक और आइजैक सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी में मानद वरिष्ठ फेलो हैं)