इस आलेख का शीर्षक किसी असावधानी में नहीं दिया गया है बल्कि यह 2010 में आई सुभाष कपूर की एक शानदार फिल्म का नाम है। अब तक आप समझ ही गए होंगे कि यहां संदर्भ अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीखी आलोचना का है।
यह आलोचना ठीक उसी दिन की गई जिस दिन मोदी वॉशिंगटन डीसी में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से मिलने वाले थे। उम्मीद के मुताबिक ही ओबामा पर मोदी के प्रशंसकों का गुस्सा फूट पड़ा। इसके बाद भारत में ओबामा का कमाऊ करियर शायद समाप्त हो जाए जिसमें वह भुगतान के बदले व्याख्यान देते हैं।
राष्ट्र प्रमुखों को प्राय: अपने विदेशी समकक्षों के बारे में गैरदोस्ताना बातें करते नहीं सुना जाता है। कम से कम सार्वजनिक रूप से तो बिल्कुल नहीं। अगर उन्हें ऐसा करना ही होता है तो वे इसके लिए किसी और का चयन करते हैं। ऐसे लोग जिनसे सरकार उचित दूरी बना सके, लेकिन इतना करीबी तो हो कि दुनिया समझ सके कि संदेश कहां से आया है। अब जरा राष्ट्रपति जो बाइडन और बराक ओबामा के बारे में विचार कीजिए।
यह तरीका कैसे काम करता है, खासतौर पर तब जबकि ये बातें एक ऐसे देश का नेता कर रहा हो जिसने खुद बीते दशकों के दौरान अनिर्वाचित तानाशाहों को खाद पानी देने का काम किया हो। इनमें निकारागुआ के पहले तानाशाह सोमोजा (1937-1947, 1950-1956) और तीसरे तानाशाह सोमोजा (1967-72, 1974-1979) शामिल रहे।
इनके अलावा मिस्र के मौजूदा शासक अब्दल फतह अल-सिसी, जिया उल हक, मुशर्रफ, ईरान के शाह, इंडोनेशिया के सुहार्तो, फिलिपींस के फर्डिनांड मार्कोस, क्यूबा के बटिस्टा, चिली के पिनोशे, जायर के मोबुतु समेत तमाम नाम इसमें शामिल हैं।
अमेरिका का रुख हमेशा से व्यावहारिक के बजाय संशय का रहा है। इस बात को समझने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति रहे फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट का वह अमर कथन याद आया जो उन्होंने निकारागुआ में तीन पीढि़यों की तानशाही स्थापित करने वाले सोमोजा प्रथम के बारे में कही थी, ‘ही मे बी द सन ऑफ अ बिच, बट ही इज अवर सन ऑफ अ बिच’ यानी वह कुतिया की औलाद हो सकता है लेकिन वह हमारी कुतिया की औलाद है।
ऐसे में ओबामा की बात पर यही प्रतिक्रिया दी जा सकती है: ‘देखो भला कौन बात कर रहा है।’ ओबामा किस बारे में बात कर रहे थे? मोदी-बाइडन की मुलाकात के ऐन पहले कम से कम 70 अमेरिकी सीनेटरों और कांग्रेस सदस्यों ने बाइडन को संयुक्त रूप से लिख कर कहा था कि वे भारत में अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों, नागरिक समाज और मीडिया के साथ हो रहे व्यवहार पर सवाल
उठाएं।
छोटे से संवाददाता सम्मेलन में बाइडन ने ऐसा करने से इनकार नहीं किया लेकिन इसके साथ ही उन्होंने साझा मूल्यों, साझा लोकतांत्रिक डीएनए जैसी बातें भी जोड़ दीं। बैठक के बाद जारी किए गए संयुक्त वक्तव्य में भी ऐसी ही बातों का उल्लेख किया गया।
बहरहाल, इस स्तंभ का शीर्षक द्विपक्षीय वार्ता के ठीक पहले सूझा। सीएनएन की क्रिस्टियन अमानपॉर को सोचे-समझे वक्त पर दिए गए साक्षात्कार में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा से पूछा गया कि वह तथा अन्य अमेरिकी राष्ट्रपति अधिनायकवादी शासकों या मोदी जैसे एक उदार लोकतांत्रिक नेता से कैसे निपटते हैं जो उनके साथी भी हों। संदर्भ तैयार होने के बाद उनसे पूछा गया कि वह बाइडन को मोदी के साथ बातचीत के दौरान ऐसे ही मुद्दों से किस प्रकार निपटने की सलाह देंगे।
ओबामा ने स्वीकार किया कि उनका अमेरिका के सहयोगी देशों वाले जितने नेताओं से वास्ता पड़ा वे सभी अपनी सरकार आदर्श लोकतांत्रिक तरीके से नहीं चला रहे थे। उन्होंने व्यापक राष्ट्रीय हित की सफाई दी। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन। पेरिस समझौता जहां उन्होंने मोदी और शी चिनफिंग से मुलाकात की थी।
आखिर में जब ओबामा से पूछा गया कि वह बाइडन को मोदी को क्या सलाह देने को कहेंगे तो उन्होंने कहा कि बहुसंख्यक हिंदू भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों का संरक्षण एक ऐसी बात है जिसका वह उल्लेख करना चाहेंगे।
इसके बाद उन्होंने हल्केफुल्के अंदाज में कहा, ‘अगर आप भारत में स्थानीय अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं करेंगे तो इस बात की काफी संभावना है कि किसी न किसी मोड़ पर भारत टूटने लगेगा…यह बात न केवल मुस्लिम भारत के लिए बुरी होगी बल्कि हिंदू भारत के लिए भी पर्याप्त बुरी होगी।’
मैं यहां कोई अंतर्दृष्टि पेश करने का दावा नहीं कर रहा हूं लेकिन एक दो बातें जोड़ी जा सकती हैं। डेमोक्रेट और खासतौर पर बाइडन प्रशासन मोदी को एक तीखा संदेश देना चाहता था जो शायद एक औपचारिक मुलाकात के दौरान संभव नहीं होता। इसके लिए बीते दशकों के सर्वाधिक प्रमुख डेमोक्रेट नेताओं में से एक का चयन किया गया। यह भी याद रहे कि बाइडन बतौर राष्ट्रपति ओबामा के दो कार्यकालों में उपराष्ट्रपति रहे थे।
यहां कुछ अहम सवाल उत्पन्न होते हैं। पहला, क्या भारतीय लोकतंत्र अच्छी स्थिति में है? इसका उत्तर यही होगा कि यह इससे बेहतर स्थिति में हो सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि आप ही बताइए कि वह कब बेहतरीन स्थिति में था? दूसरा, क्या अमेरिका जिसका रिकॉर्ड बीते आठ दशकों में दुनिया के सबसे बुरे तानाशाहों के साथ मेलजोल का रहा, वह दूसरों को उनके लोकतंत्र की गुणवत्ता पर भाषण दे सकता है?
इतना नैतिक साहस कहां से आता है? और तीसरा ऐसा भाषण सुनकर कोई परेशान क्यों होगा? जैसा कि मोदी सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों ने अक्सर किया है और विदेश मंत्रालय ने औपचारिक तौर पर भी दर्ज कराया, अमेरिका में अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार खासा बुरा रहा है।
हमने शुरुआती दो प्रश्नों के जवाब तो पहले ही दे दिए। तीसरे पर थोड़ी चर्चा की आवश्यकता है। एक ठेठ तानाशाह और उदार निर्वाचित तानाशाह के बीच अंतर यह है कि पहले वाले को आलोचना से कोई फर्क नहीं पड़ता जबकि दूसरा प्रकार उससे प्रभावित होता है लेकिन हमेशा नहीं।
हंगरी के विक्टर ऑर्बन और तुर्किये के रेचेप तैय्यप एर्दोआन दोनों नाटो के सदस्य होने के नाते अमेरिका के सहयोगी हैं। पहला पूरी तरह निर्वाचित तानाशाह है जबकि एर्दोआन बीते एक दशक से अर्द्धनिर्वाचित की स्थिति में हैं। दोनों को अक्सर अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी सहयोगियों से आलोचना झेलनी पड़ती है। दोनों को इससे उतनी परेशानी नहीं जितनी मोदी को हो सकती है। वह उतने भी बेपरवाह नहीं हैं जितने जिया उल हक थे।
हम कई कठोर तानाशाहों के लिए जिया का उदाहरण का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि हम उन्हें अच्छी तरह जानते हैं। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती शासक को अपदस्थ किया, जेल में डाला और सजा ए मौत देकर सैन्य शासन लागू किया। जल्दी ही तत्कालीन सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और वह अमेरिका के लिए अपरिहार्य सहयोगी बन गए।
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर के प्रति उनकी शुरुआती दर्ज प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है। कार्टर ने उस गोपनीय युद्ध में मदद के बदले 50 करोड़ डॉलर की सहायता देने की पेशकश की थी। जिया ने इस राशि को मूंगफली के समान करार दिया था। जाहिर है वह कार्टर का मजाक उड़ा रहे थे जो वास्तव में जॉर्जिया में मूंगफली के किसान हुआ करते थे। उसके बाद जो हुआ हम सब जानते हैं।
अमेरिका ने अपनी थैली खोल दी थी। उसने पाकिस्तान को अरबों डॉलर और एफ-16 विमान दिए। इस बीच पाकिस्तान ने अपना परमाणु हथियार भी बनाया। जिया की मौत के एक दशक बाद अमेरिका ने पाकिस्तान के नए तानाशाह जनरल मुशर्रफ को सी-130 विमानों का तोहफा दिया। बुश प्रशासन ने 9/11 के बाद उन्हें कद्दावर सहयोगी कहा। क्या किसी ने मुशर्रफ को उनके लोकतंत्र की गुणवत्ता पर भाषण दिया।
नैतिकता के तमाम दिखावे के बीच देश वही करते हैं जो उनके राष्ट्रीय हित में होता है। हमने अमेरिका के लिए तमाम उदाहरण सामने रख दिए। कंपूचिया यानी कंबोडिया में हुए नरसंहार पर भारत की तटस्थता देखिए, अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के समय हमारी चुप्पी भी। अब म्यांमार में फौजी शासन पर भी भारत का रुख तटस्थ ही है।
मित्र राष्ट्र यानी सामरिक साझेदारी वाले राष्ट्र एक दूसरे को गाहेबगाहे धिक्कार सकते हैं लेकिन वे मामले को इतना नहीं खींचते कि आपसी रिश्ते बिगड़ जाएं। कई बार ऐसी बातें घरेलू स्तर पर लोगों को शांत करने के लिए की जाती हैं। अमेरिकी डेमोक्रेट फिलहाल शायद यही कर रहे हैं।
तीसरी बात, मोदी जैसी लोकप्रियता वाला निर्वाचित नेता आलोचनाओं को लेकर उतना उदासीन नहीं रह सकता जितना कि कोई तानाशाह। परंतु वह इन आलोचनाओं के कारण अपनी राजनीति नहीं बदलेगा।
यानी तथ्यों, दलीलों और प्रतिवादों के अलावा एक लोकतांत्रिक देश और समाज को लोकतंत्र को संरक्षित करने और बढ़ाने का काम भी करना होगा। खासतौर पर भारत जैसे विशाल देश को। किसी विदेशी शक्ति के लिए उसके लोकतंत्र को क्षति पहुंचाना असंभव है।
कोई विदेशी आवाज चाहे वह कितनी भी प्रभावशाली हो, वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति की हो या पूर्व, वह इसमें सुधार या इसके संरक्षण का काम नहीं कर सकती। ओबामा ने जो किया वैसा हस्तक्षेप फौरी सुगबुगाहट से ज्यादा कुछ नहीं है हां यह घरेलू मतदाताओं को तुष्ट अवश्य कर सकता है।