गत वित्त वर्ष में भारत में विशुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की आवक में 96 फीसदी की गिरावट क्यों आई? वर्ष 2024-25 में यह करीब 0.35 अरब डॉलर रहा जो इसके पिछले वर्ष 10.13 अरब डॉलर था। यह केवल एक साल में रिकार्ड गिरावट नहीं थी बल्कि विगत दो दशकों में देश में विशुद्ध एफडीआई की आवक का भी सबसे निचला स्तर था।
आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि इस तेज गिरावट के लिए दो कारक जिम्मेदार थे: पहला, मौजूदा कंपनियों में विदेशी निवेशकों द्वारा प्रत्यावर्तन (धन को अपने मूल देश भेजना) और विनिवेश में 16 फीसदी का इजाफा हुआ और ये 51.5 अरब डॉलर हो गया। दूसरा, भारतीय कंपनियों द्वारा विदेश में किए जाने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में 75 फीसदी की बढ़ोतरी हुई और यह 29 अरब डॉलर हो गया। ध्यान रहे कि 2024-25 में सकल एफडीआई आवक करीब 81 अरब डॉलर थी जो उससे पिछले वर्ष की तुलना में 14 फीसदी अधिक थी। परंतु भारतीय कंपनियों द्वारा विदेश में एफडीआई और प्रत्यावर्तन में इजाफे के कारण सकल एफडीआई से हुए लाभ निष्फल हो गए।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत में आने वाले एफडीआई और देश से बाहर जाने वाले एफडीआई में एक उल्लेखनीय समानता देखी गई। भारत में आने वाले एफडीआई का करीब 60 फीसदी सिंगापुर, मॉरीशस, संयुक्त अरब अमीरात, नीदरलैंड और अमेरिका से आता है।
वहीं 2024-25 में भारत से बाहर जाने वाले एफडीआई में करीब 50 फीसदी इन्हीं पांच देशों में गया। हालांकि, एफडीआई की आवक और उसके बहिर्गमन से लाभान्वित होने वाले क्षेत्रों में उतनी समानता नहीं है। देश में आने वाला सकल एफडीआई विनिर्माण, वित्तीय सेवा, ऊर्जा, संचार सेवाओं में केंद्रित रहा और ऐसी आवक का 60 फीसदी इन्हीं क्षेत्रों में गया। इसके विपरीत बाहर जाने वाले एफडीआई में 90 फीसदी से अधिक वित्तीय सेवा क्षेत्र जिसमें बैंकिंग और बीमा शामिल हैं, विनिर्माण, थोक एवं खुदरा व्यापार, रेस्तरां और होटल आदि में गया।
अपने ताजा मासिक बुलेटिन में रिजर्व बैंक ने यह संकेत दिया है कि बढ़ता प्रत्यावर्तन और बाहर जाने वाली एफडीआई चिंता का विषय नहीं है। इसके विपरीत उसका तर्क है कि विशुद्ध बहिर्मुखी एफडीआई और प्रत्यावर्तन दोनों में इजाफा एक परिपक्व बाजार का संकेत है जहां विदेशी निवेशक सहजता से आ और जा सकते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी सकारात्मक है। यह एक वाजिब आकलन हो सकता है। परंतु क्या यह रुझान वास्तव में चिंता का विषय नहीं है? इस सवाल को हल करने के लिए देश में आने वाले और बाहर जाने वाले एफडीआई के दीर्घकालिक रुझान का आकलन करना होगा।
बीते दो दशकों में देश में सकल एफडीआई की आवक वैश्विक आर्थिक माहौल की प्रकृति को दर्शाती है। 2000 के दशक के आरंभ में इन्होंने जोर पकड़ा। यह वह दौर था जब पूरी दुनिया में उच्च वृद्धि के हालात थे। उसके बाद उत्तर अटलांटिक वित्तीय संकट के तत्काल बाद के वर्षों में इसमें मामूली गिरावट देखने को मिली। उसके बाद के वर्षों में सकल एफडीआई आवक में सुधार हुआ लेकिन अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा बॉन्ड खरीद कम करने की घोषणा के बाद इसे झटका लगा। हालांकि 2014-15 के बाद एफडीआई की आवक में तेज वृद्धि होती रही। संयोगवश यह वही समय था जब नरेंद्र मोदी सरकार ने कार्यभार संभाला। सकल एफडीआई आवक में वृद्धि कोविड महामारी के वर्षों में भी कम नहीं हुई। महामारी के बाद 2022-23 और 2023-24 में जरूर इसमें गिरावट आई लेकिन पिछले साल यह रुझान भी पलट गया।
परंतु अर्थव्यवस्था के अधिकांश पर्यवेक्षकों ने इस तथ्य की अनदेखी कर दी कि प्रत्यावर्तन और बाहर जाने वाले एफडीआई में भी कोविड के बाद के वर्षों में तेजी से इजाफा हुआ। 2020-21 और 2021-22 में सकल एफडीआई की आवक पर प्रत्यावर्तन और बाहर जाने वाले निवेश ने क्रमश: 46 फीसदी और 54 फीसदी का विपरीत असर डाला। अगले तीन साल के दौरान इसका असर बढ़ा। 2022-23 में इससे 61 फीसदी, 2023-24 में 86 फीसदी और 2024-25 में 99 फीसदी का विपरीत असर हुआ। दूसरे शब्दों में इससे विशुद्ध एफडीआई आवक में कमी आने लगी।
यह समस्या कुछ समय पहले तक इतनी गंभीर नहीं थी। जैसा कि करीब एक साल पहले इन्हीं पन्नों पर लिखा गया था, 2019-20 में प्रत्यावर्तन और विनिवेश की राशि करीब 18 अरब डॉलर थी यानी सकल एफडीआई आवक का करीब 25 फीसदी। परंतु कोविड के बाद के दो साल में प्रत्यावर्तन और विनिवेश बढ़कर सकल एफडीआई आवक के 33-34 फीसदी तक पहुंच गया। वर्ष 2023-24 में तो यह चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया जब सकल एफडीआई में प्रत्यावर्तन और विनिवेश का हिस्सा 62 फीसदी हो गया। 2024-25 में यह और बढ़कर 63 फीसदी तक पहुंच गया।
भारतीय कंपनियों में निवेश करने वाले विदेशी निवेशकों ने यहां होने वाले लाभ को वापस अन्य बाजारों में निवेश करने की प्राथमिकता दिखाई है। ध्यान देने लायक बात यह है कि यह रुझान बीते दो साल से बरकरार है। स्पष्ट है कि वे ऐसे निवेश से होने वाली आय को अपनी मौजूदा परियोजनाओं में निवेश करने या भारत में नई पहलों में लगाना पसंद नहीं कर रहे।
यकीनन मौजूदा विदेशी निवेशकों द्वारा अपनी आय को दोबारा निवेश किए जाने का स्तर सकल एफडीआई आवक के एक तिहाई से भी कम रहा है। उनकी ओर से ऐसी कोई इच्छा भी नहीं नजर आई है कि वे पुनर्निवेशित आय में इजाफा करें। एफडीआई से होने वाला लाभ उस समय अधिक होता जबकि पुनर्निवेशित आय उच्च दर से बढ़ती और प्रत्यावर्तन की गति धीमी होती।
विशुद्ध एफडीआई आवक के मोर्चे पर ऐसी निराशाजनक अनुमान में पिछले वर्ष के आंकड़े बढ़त करते हैं। वे बताते हैं कि कैसे भारतीय कंपनियां देश से बाहर के अपने निवेश में इजाफा कर रही हैं। भारतीय कंपनियों ने कोविड के बाद बाहर एफडीआई बढ़ाया है। वर्ष 2022-23 के 14 अरब डॉलर से बढ़कर 2023-24 में यह 16.6 अरब डॉलर और 2024-25 में 29 अरब डॉलर हो गया। यह ऐसे समय पर हुआ जब भारत का उद्योग जगत देश में निवेश करने को लेकर ज्यादा रुचि नहीं दिखा रहा।
यह देखना सुखद है कि भारत का उद्यम जगत विभिन्न देशों में निवेश करके वैश्विक छाप छोड़ रहा है। यकीनन बीते कुछ सालों में विदेशी कंपनियों के अधिग्रहण या बड़ी मात्रा में भारतीय कंपनियों द्वारा विदेश में निवेश की खबरें भी आई हैं। इनमें डॉ. रेड्डीज लैबोरेटरीज, जायडस लाइफसाइंसेज, सन फार्मा, इन्फोसिस, एचसीएल टेक, विप्रो, कोफोर्ज, एयरटेल, टाटा स्टील, टाटा अग्रतस, सोना, एचईजी और पीआई इंडस्ट्रीज शामिल हैं। कई अन्य कंपनियां विदेश में निवेश या अधिग्रहण की योजना बना रही हैं।
परंतु इसके साथ ही चिंता की बात यह भी है कि भारतीय उद्यमी जगत घरेलू निवेश को लेकर ऐसा उत्साह नहीं दिखा रहा है। सरकार को पता लगाना चाहिए कि उन्हें घरेलू बाजार में निवेश करने में क्या समस्याएं आ रही हैं। अगर कारोबारी सुगमता में दिक्कत है या फिर अगर बहुचर्चित कारक बाजार सुधार की अनुपस्थिति समस्या की वजह है तो इन दिक्कतों को दूर किया जाना चाहिए।