लगता है कि अमेरिका को अतिआत्मविश्वास का नतीजा भुगतना पड़ेगा। 2016 में जब डॉनल्ड ट्रंप पहली बार वहां के राष्ट्रपति चुने गए थे तभी से तर्क दिया जा रहा है कि जिस देश की संस्थाएं मजबूत और स्थिर हैं, उस देश की दिशा को स्थायी रूप से बदलने के बहुत कम रास्ते उनके पास हैं। कई बार कहा गया है कि उनकी पार्टी ही उन्हें हद में रखेगी, कि उन्हें काम करने के लिए कांग्रेस की मंजूरी चाहिए होगी, कि कानून को खुल्लमखुल्ला ताक पर रखने वाले उनके काम अदालत में नहीं टिक पाएंगे, कि देश की सरकार इतनी बड़ी और फैली हुई है कि वह केवल एक आदमी के इशारों पर नहीं चल सकती।
सच कहें तो उनके पहले कार्यकाल के अनुभवों ने इनमें से हरेक दावे को गलत साबित नहीं किया। रिपब्लिकन पार्टी ने ज्यादा विरोध नहीं किया और दोनों महाभियोगों में उनके पक्ष में एकमुश्त मतदान किया। किंतु कुछ मुस्लिम बहुसंख्यक देशों से लोगों के अमेरिका आने पर प्रतिबंध लगाने जैसे उनके कुछ बेहद विवादित फैसलों पर अदालत में सुनवाई हुई। उनके कैबिनेट के कई सदस्य चुपचाप अपना काम करते रहे और कम से कम एक ने उन्हें सियासी तौर पर मदद करने के बजाय इस्तीफा दे दिया।
जब 2020 में ट्रंप चुनाव हारे तो इन बातों ने ही हमें यह मानने पर मजबूर किया कि अमेरिकी संस्थाएं अपनी सबसे बड़ी परीक्षा में सफल हो गई हैं। लेकिन जाहिर तौर पर हम गलत थे। संस्थाओं के लिए सबसे कड़ी परीक्षा तब नहीं होती, जब कोई निर्वाचित नेता उन्हें कमतर बनाने की कोशिश करता है। असली परीक्षा तब होती है, जब वह नेता दोबारा चुन लिया जाता है। उस वक्त उन संस्थाओं में शामिल लोग और उन्हें स्वतंत्र बनाए रखने के लिए ऊर्जा खपाने और काम करने वाले लोग हथियार डालने लगते हैं।
भारत में भी हमें ऐसे तजुर्बे हुए हैं। हम अक्सर बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लंबे कार्यकाल के दौरान संस्थाओं के कमजोर पड़ने की बात करते हैं। लेकिन वास्तव में संस्थाएं खोखली होनी तब शुरू हुईं, जब इंदिरा को बहुमत के साथ दोबारा चुना गया। हाल फिलहाल की बात करें तो केंद्र में मौजूदा सत्तारूढ़ गठबंधन की पहली सरकार और 2019 में भारी बहुमत के साथ दोबारा बनी सरकार के दौरान सत्ता के गलियारों में माहौल बदला हुआ साफ नजर आया।
हाल में हमें याद दिलाया गया कि इस साल संस्थागत राजनीतिक अर्थव्यवस्था का पुनर्जागरण जैसा कुछ हुआ। डैरॉन एसमोग्लू, साइमन जॉनसन और जेम्स ए रॉबिन्सन स्टॉकहोम में औपचारिक समारोह में अर्थशास्त्र का नोबेल प्रदान किया गया। रविवार को स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी में अपने नोबेल भाषण में प्रोफेसर एसमोग्लू ने कहा कि खराब तरीके से बनाई गई संस्थाएं देश की वृद्धि को हमारी अपेक्षा से भी बहुत धीमा कर सकती हैं।
अगर हम उनके काम को गंभीरता से लें तो संस्थाएं बेहद नाजुक लगती हैं मगर असाधारण रूप से स्थिर भी लगती हैं। उनका असर सदियों तक कायम रह सकता है मसलन भारत समेत कई जगहों पर औपनिवेशिक संस्थाएं कई तरह से बची हुई हैं। लेकिन किसी वजह से वे एक साथ बहुत मजबूत नहीं हैं। मजबूत नेता दबाव डालकर उन्हें बिगाड़ सकते हैं या खत्म भी कर सकते हैं।
क्या हम यहां दो अलग चीजों की बात कर रहे हैं?
क्या अमेरिका का न्याय विभाग या उसके सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्थाएं नवजागरण काल के व्यक्तिवाद के विधिक और संवैधानिक मूल्यों जैसी उन संस्थाओं से अलग हैं, जिनसे उन्हें कामकाज की प्रेरणा मिलने की बात मानी जाती है? शायद पहली तरह की संस्थाएं बदल सकती हैं या खत्म हो सकती हैं और दबाव में आ सकती हैं लेकिन दूसरी तरह की संस्थाएं बनी रहती हैं।
और शायद ऐसा नहीं भी है। किसी बाहरी व्यक्ति के लिए तो अमेरिका में अटॉर्नी जनरल को मिलने वाली आजादी बेशक असाधारण है, जो उसकी समझ से बाहर ही है। राष्ट्रपति अपनी ही पार्टी से किसी राजनेता या वकील को न्याय विभाग की बागडोर संभालने के लिए चुनते हैं और वह उनके मंत्रिमंडल का सदस्य है, लेकिन कायदे में इस पद के लिए चुने जाते ही उसके फैसलों में राष्ट्रपति का दखल खत्म हो जाना चाहिए।
लेकिन ऐसा बदलाव तभी हो सकता है, जब विभाग के कामकाज या उसके मूल्यों के मामले में कुछ संस्थागत मजबूती मौजूद है। अतीत में अटॉर्नी जनरलों ने राष्ट्रपति की जांच कर रहे विशेष अभियोजकों को बर्खास्त करने से इनकार किया है, जैसे वाटरगेट स्कैंडल के समय और इन इनकार के बदले उन्हें खुद ही पद से बर्खास्त होना पड़ा है। हाल फिलहाल की बात करें तो मौजूदा अटॉर्नी जनरल ने ट्रंप पर मुकदमा चलाने में काफी वक्त लिया। लगता है कि उनकी पार्टी इस ढिलाई की कीमत चुका रही है। यह देखना मुश्किल है कि अगले चार साल संस्थाओं की स्वतंत्रता और निष्पक्षता बनाए रखने पर कितना ध्यान दिया जाएगा। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह स्वतंत्रता वापस क्यों आनी चाहिए।
अगर हमें राजनीतिक अर्थव्यवस्था में संस्थागत बदलाव और लोकलुभावन राजनीति से कोई सबक लेना है तो वह यह है कि संस्थागत ताकत बहुत जरूरी है मगर बहुत नाजुक भी है। इसे बचाना राजनीति का पहला काम होना चाहिए। लेकिन इसे बचाने की कोशिश तब तक कारगर नहीं होगी, जब तक मतदाताओं को इसकी अहमियत नहीं समझाई जाएगी।