भारत में वर्ष 1956 से कई मुख्य आर्थिक सलाहकार हुए हैं। आर्थिक सलाहकार वित्त मंत्रालय में बैठते हैं और मंत्रालय के लिए सलाहकार की भूमिका में होते हैं। इस पद का नाम मुख्य आर्थिक सलाहकार भी काफी भारी भरकम लगता है। मगर लगभग 20 वर्ष पहले तक यह पद बहुत ज्यादा चर्चित नहीं था। यह गैर-राजनीतिक पद है। कम से कम 1970 तक तो ऐसा ही था।
वर्ष1970 में एक खास राजनीतिक पार्टी के प्रति अपना झुकाव रखने वाले एक अर्थशास्त्री देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त हुए थे। उस समय ‘भक्त’ शब्द की ‘खोज’ नहीं हुई थी मगर उनकी नियुक्ति कुछ इसी शब्द के भावार्थ के इर्द-गिर्द घूमती थी। जब पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की सरकार बनी तो वह राज्य के वित्त मंत्री नियुक्त किए गए।
इस नियुक्ति के बाद पिछले 15 वर्षों में देश में जितने मुख्य आर्थिक सलाहकार हुए हैं उनके मन में कुछ महत्त्वाकांक्षाएं जागृत हो गई हैं। ऐसा हो भी क्यों न, क्योंकि इनमें एक आर्थिक सलाहकार भारत के प्रधानमंत्री तक बन चुके हैं। ऐसा नहीं था कि उन्होंने इस शीर्ष पद पर पहुंचने के लिए कोई प्रयास किया था। प्रधानमंत्री पद पर पहुंचना जितना उनके लिए आश्चर्य जैसा था उतना ही देश के लिए भी था।
हालांकि 1972 के बाद लंबे समय तक पुरानी परंपरा जारी रही और मुख्य आर्थिक सलाहकार अपने राजनीतिक झुकाव या राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रतिष्ठानों में अपने संपर्क के बावजूद गैर-राजनीतिक रहे। वे मीडिया से भी दूर ही रहे। वर्ष 1980 का दशक इसका थोड़ा अपवाद जरूर था। मगर 2014 से जब से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सत्ता में आई तब से मामला थोड़ा बदल गया है। हमने देखा है कि मुख्य आर्थिक सलाहकारों के अपने पद छोड़ने के बाद चुप होकर अपना कार्य करने और गैर-राजनीतिक बने रहने की परंपरा का ह्रास हुआ है। वर्ष 2009 से अब तक तीन पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकारों ने खुले आम अपनी राजनीतिक पसंद बताई है।
इनमें एक पश्चिम बंगाल में भाजपा के एक विधायक हैं जो अधिक नहीं बोलते हैं। माना जा रहा है कि शेष दो राहुल गांधी को सलाह दे रहे हैं। एक अन्य वर्तमान वैचारिक सत्ता से जुड़े माने जाते हैं। एक यही व्यक्ति हैं जिन्हें मैं नहीं जानता हूं। यह अपने आप में कोई मायने नहीं रखता है। भारत में रोजाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश और स्वतंत्र राजनीतिक विचारधारा रखने पर रोक से जुड़ी खबरों के बावजूद भारत के लोग अपनी राजनीतिक पसंद-नापसंद रखने के लिए स्वतंत्र हैं।
आखिर दिक्कत क्या है? कम से कम मुझे तो इसमें कहीं न कहीं दिक्कत नजर आ रही है। जब ये पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार राजनीतिक बयान देते हैं तो दिक्कत खड़ी होती है। ये बयान विश्वसनीय प्रतीत होते हैं। जो व्यक्ति बयान दे रहा है उसकी वजह से बयान विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता बल्कि जिस पद पर वह रहा है उसकी वजह से लगता है। पद की वजह से राजनीतिक झुकाव रखने वाले बयान भी वजनदार लगने लगते हैं।
दो पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकारों में एक मौजूदा सरकार के कामकाज के कड़े आलोचक हैं जबकि एक इनकी सराहना कर रहे हैं। देश की जनता ऐसे लोगों से विश्वसनीय तथ्यों एवं बयानों की उम्मीद करती हैं। मगर ऐसा नहीं हो रहा है। यह अच्छी बात नहीं है। जो मुख्य आर्थिक सलाहकार सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं वे यह भूल जाते हैं कि अपने पद पर रहते हुए उन्होंने क्या किया या उनके कार्यों के क्या असर हुए। इसी तरह सरकार की नीतियों का समर्थन करने वाले सरकार की गलतियों और आंकड़ों के साथ की गई छेड़छाड़ को नहीं देख पाते हैं। यही वजह है कि राजनीतिक झुकाव स्पष्ट दिखाने वाले ये पूर्व आर्थिक सलाहकार तटस्थता की कसौटी पर पूरी तरह खरा नहीं उतर पाते हैं।
अगर भारत में आर्थिक आंकड़ों के खुलासे की गुणवत्ता पर कोई असर नहीं होता तो ये बयान कोई मायने नहीं रखते। मगर देश में आर्थिक आंकड़ों की गुणवत्ता तो प्रभावित हुई है। केवल राजनीति का ही ध्रुवीकरण नहीं हुआ है बल्कि एक ऐसे पेशे की प्रतिष्ठा में भी ह्रास हुआ है जो तथ्यों एवं बुनियादी बातों का विशेष ध्यान रखता है। विचारों का बंटवारा होना सामान्य बात नहीं है मगर यह अपने चरम तक पहुंच गया है। ट्विटर के जरिये बयानबाजी करने की प्रवृत्ति भी बढ़ गई है। ट्विटर पर होने वाले ये हस्तक्षेप पूरी तरह तथ्यों से परे होते हैं। इन दिनों सवालों के जवाब देने के बजाय उल्टे आरोप लगाने और असल मुद्दे से ध्यान भटकाने का चलन बढ़ गया है। ये सभी बातें अमर्यादित हैं।
इसे महज संयोग नहीं माना जा सकता है। मैं जिन चार पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकारों की बात कर रहा हूं उनमें प्रत्येक इस पद पर सीधे आने से पहले शैक्षणिक कार्यों में संलग्न थे। ऐसे में उन्हें सलाहकार बनाना एक कमजोर सोच लगती है। यह अलग बात है कि इनमें दो को सरकार के कामकाज का थोड़ा अनुभव था। शेष की जहां तक बात है तो जहां तक मैं जानता हूं वे आर्थिक सलाहकार बनने से पूर्व लंबे समय तक सरकारी कर्मचारी थे। मुझे आश्चर्य होता है कि क्या इससे कोई अंतर पड़ता है!
काफी सोच-विचार के बाद उनके व्यवहार में आए बदलाव के कारण बताने के लिए मैंने एक सरल सिद्धांत दिया है। वर्ष 2002 के बाद मुख्य आर्थिक सलाहकार का पद मीडिया से काफी मुखातिब रहा है। यानी उन्हें खबरों में रहने की आदत सी पड़ चुकी है। जब पद पर नहीं होते हैं तो ये अर्थशास्त्री मीडिया में नहीं आ पाते हैं। ऐसे में खबरों में किसी न किसी तरह आने के लिए वे एक छद्म राजनीतिक भूमिका निभाने लगते हैं। यहां हिंदी में प्रचलित एक कहावत ‘भागते भूत की लंगोट ही सही’ चरितार्थ होती है।
मुझे लगता है कि अगर ये लोग अपने पेशे के प्रति आदर का भाव रखते तो काफी अच्छा रहता। यह पेशा तटस्थता की मांग करता है। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकारों को वर्ष 2009 से पहले की तरह ही सार्वजनिक बयानों में राजनीतिक झुकाव का परिचय कम से कम देना चाहिए। यह केवल पद की नैतिकता की ही बात नहीं है, यह गरिमा और अच्छे आचरण का भी मामला है।