दिल्ली सरकार ने कृत्रिम बारिश कराने के लिए आज क्लाउड सीडिंग यानी बादल तैयार करने का प्रयास किया। इसके लिए कानपुर से आए एक विमान ने आधे घंटे तक बुराड़ी और करोल बाग इलाकों के ऊपर आसमान में रसायनों का छिड़काव किया। इसकी देखरेख कर रहे आईआईटी-कानपुर ने कहा कि 15 मिनट से 4 घंटे के भीतर बारिश हो सकती है। मगर खबर लिखे जाने तक आधिकारिक तौर पर बारिश की सूचना नहीं मिली।
मौसम विभाग ने भी आज सुबह और सप्ताह के आखिर में हल्की बारिश का अनुमान जताया है, जिससे कृत्रिम बारिश के लिए जरूरी बादल तैयार करने में भी मदद मिल सकती है।
सरकार ने पिछले हफ्ते बुराड़ी में भी इस तरह की आजमाइश की थी, जिसमें सिल्वर आयोडाइड और सोडियम क्लोराइड का इस्तेमाल किया गया था। मगर उस समय बारिश कराने में कामयाबी नहीं मिली क्योंकि वायुमंडल में नमी 20 फीसदी से कम थी, जबकि आम तौर पर इसके लिए 50 फीसदी नमी जरूरी होती है। कुछ वैज्ञानिकों ने बताया कि यह राजधानी में कृत्रिम
बारिश कराने की तीसरी कोशिश है। इससे पहले 1957 के मॉनसून में और 1970 के दशक की सर्दियों में भी कोशिश की गई थीं मगर उस समय क्लाउड सीडिंग की समझ बहुत कम थी। सर्दियों में कृत्रिम बारिश कराने का मकसद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दीवाली के बाद बढ़ गए प्रदूषण का स्तर कम करना है। दीवाली पर लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को ताक पर रखते हुए जमकर आतिशबाजी की थी।
दिल्ली सरकार ने आईआईटी कानपुर के साथ 5 क्लाउड सीडिंग परीक्षण के लिए 25 सितंबर को एक समझौता किया था। सभी परीक्षण उत्तर-पश्चिम दिल्ली में करने की योजना है। नागर विमानन महानिदेशालय ने आईआईटी कानपुर को 1 अक्टूबर से 30 नवंबर के बीच क्लाउड सीडिंग करने की अनुमति दी थी। दिल्ली मंत्रिमंडल ने 3.21 करोड़ रुपये की लागत वाले इन 5 क्लाउड सीडिंग परीक्षणों के प्रस्ताव को हरी झंडी 7 मई को दी थी।
हालांकि कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि क्लाउड सीडिंग हवा में मौजूद प्रदूषण को स्थायी तौर पर कम करने में कारगर नहीं है। उनका कहना है कि क्लाउड सीडिंग से कुछ वक्त के लिए ही राहत मिल सकती है क्योंकि बारिश थमने के बाद प्रदूषण दोबारा बढ़ने लगता है। सरकार को क्लाउड सीडिंग से वायु प्रदूषण घटाने के बजाय इसके बुनियादी स्रोतों से निपटना चाहिए।
पुणे के भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) के अनुसार क्लाउड सीडिंग की तकनीक में बादल बनाने वाले अणुओं का इस्तेमाल कर बारिश कराई जाती है।
क्लाउड सीडिंग के लिए हाइग्रोस्कोपिक या ग्लेशियोजेनिक तरीके इस्तेमाल होते हैं। हाइग्रोस्कोपिक में भाप के साथ चलने वाले क्लाउड सीड को गर्म बादलों के नीचे से छोड़ा जाता है। ग्लेशियोजेनिक तकनीक में ठंडे बादलों के ऊपर सिल्वर आयोडाइड की बौछार कर वर्फ के कण बनाए जाते हैं, जिनसे आखिर में बारिश होने लगती है।
आईआईटीएम ने 1970 के दशक में भारत में हाइग्रोस्कोपिक सीडिंग की कोशिश की थी। बाद में महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे कई राज्यों ने भी कृत्रिम बारिश कराने की कोशिश की, लेकिन सफलता कम ही मिली। हाइग्रोस्कोपिक क्लाउड सीडिंग विधि मॉनसून के दौरान बारिश बढ़ाने में काफी कारगर साबित होती है क्योंकि बादल में वायुमंडल की नमी पहले ही बहुत ज्यादा होती है।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के पूर्व सचिव माधवन राजीवन ने क्लाउड सीडिंग के कई परीक्षण कराए हैं। उनका कहना है कि सबसे सामान्य क्लाउड सीडिंग में विमान के जरिये बादलों के बीच कुछ रसायन छिड़के जाते हैं। उन्होंने कहा, ‘रेडार से बादल देखे जाते हैं और उन्हें पहचानने के बाद पायलटों को बता दिया जाता है। पायलट तुरंत बादल के बीच पहुंचकर रसायन छिड़कने लगते हैं।’ उन्होंने कहा कि जैसे ही हवा ऊपर उठती है, रसायन उसके साथ बादलों के भीतर पहुंच जाते हैं और बारिश की बूंदें बढ़ाने का काम शुरू हो जाता है।
आईआईटीएम ने पिछले साल एक व्यापक जांच के निष्कर्ष जारी किए थे। उसे बाद में अमेरिकन मेटियोरोलॉजिकल सोसायटी के जर्नल बुलेटिन में प्रकाशित किया गया। आईआईटीएम की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ऑस्ट्रेलिया, चीन, रूस, थाईलैंड, यूएई और अमेरिका सहित 56 से अधिक देशों में कृत्रिम बारिश के लिए क्लाउड सीडिंग की जाती है। भारत में इसके नतीजे मिले-जुले रहे हैं।
यह प्रयोग क्लाउड एरोसॉल इंटरैक्शन ऐंड प्रेसिपिटेशन एनहांसमेंट एक्सपेरिमेंट (कैपीक्स) के चौथे चरण का हिस्सा है। यह परीक्षण 2018 और 2019 में मॉनसून के दौरान महाराष्ट्र के सोलापुर में किया गया था। पिछले चरण 2009, 2010-11 और 2014-2015 में हुए थे। रिपोर्ट के मुताबिक कैपीक्स के चौथे चरण से पता चला कि कुछ जगहों पर बारिश करीब 46 फीसदी (13 फीसदी कम या ज्यादा) बढ़ाई जा सकती है। सोलापुर में 100 वर्ग किलोमीटर दायरे में बारिश करीब 18 फीसदी (2.6 फीसदी कम-ज्यादा) बढ़ी, जो करीब 8.67 मिलीमीटर अतिरिक्त वर्षा के बराबर थी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि क्लाउड सीडिंग कितनी कारगर है यह पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने 2017 से 2019 के बीच बादलों के 276 नमूनों का आकलन किया। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘ऑटोमेटिक रेन गेज (एआरजी), रेडार, रेडियोमीटर और विमान जैसे अत्याधुनिक उपकरणों के बड़े नेटवर्क से ये जांच की गईं।’ परीक्षण से वैज्ञानिकों को बादल और वर्षा की प्रक्रियाओं का रिकॉर्ड तैयार करने और किसी इलाके में बारिश बढ़ाने की प्रक्रिया तैयार करने में मदद मिली। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि क्लाउड सीडिंग के लिए हरेक उड़ान पर करीब 15 लाख रुपये खर्च हुए।
कैपीक्स का पहला चरण 2009 में शुरू हुआ था। उसके बाद 2010-11 में दूसरा चरण, 2014-15 में तीसरा चरण और 2017-19 में चौथा चरण शुरू किया गया। पहले तीन चरणों के नतीजों ने आईआईटीएम के वैज्ञानिकों को कैपीक्स के चौथे चरण के लिए क्लाउड सीडिंग प्रयोग तैयार करने में मदद की। रिपोर्ट के मुताबिक परीक्षण के नतीजे से पता चलता है कि उपयुक्त परिस्थितियों में की गई क्लाउड सीडिंग किसी क्षेत्र में बारिश बढ़ाने का कारगर तरीका है।
राजीवन के अनुसार कृत्रिम बारिश कराने के लिए कुछ दिनों तक क्लाउड सीडिंग की जा सकती है। मगर इसके बाद प्रदूषण दोबारा नहीं होने की कोई गारंटी नहीं है। उन्होंने हाल में बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा, ‘यह भी याद रखें कि कृत्रिम रसायनों के उपयोग वाली सभी क्लाउड सीडिंग से बारिश होना जरूरी नहीं है।’
राजीवन ने कहा, ‘इसलिए मेरी सलाह यही है कि दिल्ली जैसे महानगरों में कृत्रिम बारिश कराने के लिए क्लाउड सीडिंग जैसे अल्पकालिक उपायों के बजाय वायु प्रदूषण के स्रोत्रों से निपटने पर ध्यान दिया जाए जिसमें वाहन प्रदूषण, कारखानों से निकलने वाला प्रदूषण आदि शामिल हैं।’
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स ऐंड पीपल (संड्रप) के समन्वयक हिमांशु ठक्कर ने भी कहा कि कृत्रिम बारिश कराने के लिए क्लाउड सीडिंग जैसी तकनीक प्रदूषण की समस्या को दूर करने का महज एक अस्थायी समाधान है। उन्होंने कहा कि क्लाउड सीडिंग के बजाय प्रदूषण के स्रोत पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। संड्रप जल क्षेत्र से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाले संगठनों और व्यक्तियों का अनौपचारिक नेटवर्क है।