दुनिया भर के निर्वाचित नेताओं को एक भूत सता रहा है और वह है मुद्रास्फीति का भूत। ऐसा प्रतीत होता है कि मतदाताओं को अगर कुछ सबसे अधिक नापसंद है तो वह है मुद्रास्फीति और इसकी वजह से दुनिया भर के कई नेताओं को दोबारा चुनावी जीत हासिल करने में नाकामी मिली।
अमेरिका में हाल ही में संपन्न हुए राष्ट्रपति चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी की भारी हार के लिए कई कारणों को वजह बताया जा रहा है जो हैं: निवर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन का दोबारा चुनाव लड़ने का गलत निर्णय जिसके बाद उन्हें आखिरकार बाहर होना पड़ा, रूढ़िवादी पुरुषों और प्रगतिशील महिलाओं के बीच बढ़ता अंतर और हिस्पैनिक (स्पेनिश बोलने वाले अथवा लातिनी अमेरिकी लोग) आबादी में मध्य-वाम को लेकर कम होता विश्वास। ये सभी प्रासंगिक हैं। परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि मुद्रास्फीति प्रभाव ने मतदाताओं की प्राथमिकताओं को सबसे अधिक प्रभावित किया।
जैसा कि डेटा विश्लेषकों ने फाइनैंशियल टाइम्स में संकेत भी किया अमेरिका कोई विशिष्ट देश नहीं है। इस वर्ष चुनाव का सामना करने वाले किसी भी विकसित देश में हर सत्ताधारी दल को मत प्रतिशत में कमी का सामना करना पड़ा। 1905 से दर्ज रिकॉर्ड में यह पहली बार हुआ है। यह एक ऐसी अवधारणा है जिसे स्पष्ट करने की आवश्यकता है और इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं है सिवाय इसके कि महामारी के बाद दुनिया भर में मुद्रास्फीति में तेजी आई है।
मुद्रास्फीति को लेकर सार्वजनिक प्रतिक्रिया के मामले में काफी कुछ किया जाना है लेकिन कुछ रुझान स्पष्ट हैं। इन्हें एक मुद्रास्फीति को लेकर सार्वजनिक प्रतिक्रिया के मामले में काफी कुछ किया जाना है लेकिन कुछ रुझान स्पष्ट हैं।साथ रखकर देखें तो वे हमें यह याद दिलाते हैं कि मुद्रास्फीति को कम और स्थिर रखने के मामले में पारंपरिक अनुमानों का क्या महत्त्व है। पहली बात, जनता मूल्य स्तर पर परवाह करती है, इस बात की नहीं कि किसी खास बिंदु पर कीमतें ऊपर या नीचे तो नहीं जा रही हैं।
अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता बार-बार यह तर्क देते रहे कि मुद्रास्फीति में शुरुआती उछाल को नियंत्रित कर लिया गया है। परंतु मतदाताओं ने उन्हें इस उपलब्धि का श्रेय नहीं दिया। इसके बजाय, मतदाताओं ने 2020 और 2024 की कीमतों की तुलना की जो सत्ताधारी दल के खिलाफ गया। इसका अर्थ यह है कि अतीत की मुद्रास्फीति का राजनीतिक असर बरकरार रहा।
दूसरा, क्षेत्रीय मूल्य वृद्धि को संबोधित करने वाले तकनीकी समाधानों को लेकर जनता की प्रतिक्रिया काफी ठंडी सी रही है। ऐसे कदम अक्सर राजनीतिक लाभ नहीं देते। उदाहरण के लिए अमेरिका में कांग्रेस के प्रशासन और डेमोक्रेट्स ने इस बात की जांच की संभावना पर काफी ध्यान दिया है कि क्या उन क्षेत्रों में काम करने वाली कुछ कंपनियों ने अतिरिक्त लाभ अर्जित किया है जहां उनका एकाधिकार है और जहां कीमतों में इजाफा देखने को मिला। परंतु यह बात मतदाताओं तक नहीं पहुंची और उन्होंने कंपनियों को नहीं बल्कि नेताओं को ही जवाबदेह माना। इसके लिए लालच मुद्रास्फीति यानी ‘ग्रीडफ्लेशन’ का जुमला दिया गया लेकिन वह भी कारगर नहीं हुआ। इसका अर्थ है विक्रेताओं द्वारा तैयार मुद्रास्फीति।
तीसरा, समेकित आंकड़े काफी कुछ छिपा सकते हैं। अमेरिका में मतदाता नाराज थे, भले ही उनके वास्तविक मेहनताने में इजाफा हो रहा था। दूसरे शब्दों में कहें तो औसत वेतन में होने वाला इजाफा खुदरा मूल्य सूचकांक में हुए इजाफे से अधिक रहा। इसके बावजूद अगर लोगों को लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है तो इसका अर्थ क्या है? एक संभावना यह है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक उस भार को सही ढंग से सामने नहीं रख पाया जो मतदाताओं के कुछ धड़े कुछ क्षेत्रों के बारे में रख रहे थे।
उदाहरण के लिए कुछ अनुमानों के अनुसार अमेरिका में आवास और परिवहन की कीमत वेतन में हुए मामूली इजाफे की तुलना में तेजी से बढ़ा है। इसकी वजह से नाराजगी पैदा हुई है। ऐसे में कहा जा सकता है कि एक मूल्य सूचकांक पर ध्यान केंद्रित करना जोखिम भरा हो सकता है। यह बात याद रखना आवश्यक है कि खुदरा मूल्य सूचकांक एक कृत्रिम संकेतक है न कि हकीकत।
चौथा, बेरोजगारी और मुद्रास्फीति के बीच का रिश्ता हकीकत में कैसा भी हो, वह राजनीति पर काफी अलग प्रभाव रखता है। प्रगतिशील अर्थशास्त्री इस बात को लेकर खुद को सराहते रहे हैं कि अमेरिकी श्रम बाजार के सख्त बने रहने के बावजूद मुद्रास्फीति में कमी आई है। यह सब तब है जबकि सार्वजनिक रूप से यह चिंता प्रकट की गई है कि मुद्रास्फीति में कमी के लिए उच्च बेरोजगारी को रोकना होगा।
परंतु एक सख्त श्रम बाजार, खासतौर पर निचले स्तर पर ऐसा बाजार राजनीतिक रूप से उतना लाभदायक नहीं साबित हुआ जितनी कि उम्मीद की जा रही थी। यकीनन अकुशल श्रम की जरूरत वाली सेवाओं मसलन फूड डिलिवरी आदि में अपेक्षाकृत ऊंची कीमतों ने राजनीतिक तौर पर अधिक नुकसान पहुंचाया।
छठी और अंतिम बात, अमेरिका ने 21वीं सदी की औद्योगिक नीति के साथ जो साहसिक प्रयोग किए वे राजनीतिक रूप से विफल साबित हुए। डेमोक्रेट नेताओं ने लाखों करोड़ डॉलर की राशि इसलिए खर्च की ताकि बेहतर, औद्योगिक रोजगार वापस अमेरिका आ सकें लेकिन इसके राजनीतिक परिणाम कुछ खास नहीं रहे।
उन्होंने जिन समुदायों को लक्षित किया उन्होंने उनको कोई श्रेय नहीं दिया। यहां तक कि यूनियन भी राजनीतिक दलों को लेकर अनिश्चित रहे। पीछे मुड़कर देखें तो बाइडन की एक सबसे बड़ी चूक शायद यह थी कि उन्होंने इलेक्ट्रिक वाहनों से जुड़ी नीति बनाते समय टेस्ला के ईलॉन मस्क की अनदेखी की क्योंकि कंपनी बहुत हद तक असंघटित है। मस्क ने डॉनल्ड ट्रंप के अभियान को फंड किया और मीडिया में रिपब्लिकंस के अनुकूल माहौल बनाया।
अगर इन सबकों को एक साथ रखा जाए तो एक धुंधली तस्वीर उभरती है। पारंपरिक समझ यह है कि वृहद आर्थिक नीति का प्राथमिक लक्ष्य मूल्य स्थिरता को बरकरार रखना होना चाहिए। हाल के राजनीतिक घटनाक्रम में इसे तरजीह दी गई। यह चकित करने वाली बात है लेकिन इससे उतना भी झटका नहीं लगना चाहिए। यह समझ घटनाओं से ही उभरी। सन 1970 के दशक से ही मूल्य स्थिरता पर ध्यान दिया जा रहा है क्योंकि 1967 से 1977 के बीच मुद्रास्फीति के कारण राजनीतिक अस्थिरता का माहौल था।
यह बात बहुत अहम प्रतीत होती है कि अगर लोकलुभावन ताकतों के उभार को सीमित करना है तो स्थिर वृहद आर्थिक नीति बहाल करनी होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि घाटे को समझदारीपूर्वक नियंत्रित करना होगा, करों को बढ़ाना होगा और व्यय में कटौती करनी होगी।
इसके साथ ही केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता को बरकरार रखना होगा। बजट संबंधी बाधा की अनुपस्थिति से उत्साहित राजनेता महामारी के बाद नशे में चूर हैं। बाजार ने हर मामले में अपनी प्रतिक्रिया में उन्हें असहज नहीं किया है। परंतु ऐसा लगता है कि मतदाताओं ने ऐसा किया है। अब वक्त है कि वृहद आर्थिक स्तर पर संयम का परिचय दिया जाए।