डेविड रिकार्डो के निधन को दो सदी, एक वर्ष, एक माह और एक सप्ताह से कुछ अधिक समय बीता है। रिकार्डो में कई खूबियां थीं: वह फाइनैंसर थे, उन्मूलनवादी थे और उदारवादी राजनेता थे। बहरहाल उन्हें आधुनिक अर्थशास्त्र के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने कई जरूरी आर्थिक सिद्धांत तैयार किए जिनमें घटते सीमांत प्रतिफल से लेकर व्यापार में तुलनात्मक लाभ, धन जुटाने के विभिन्न तरीकों के बीच कार्यात्मक समानता शामिल है।
परंतु अगर आज मुझे रिकार्डियन सिद्धांतों को सामने रखना हो तो वह कुछ ऐसा होगा: जब संपत्ति बढ़ती है तो पैसे खर्च होते हैं या जब तकनीक में सुधार होता है तो उसके लाभ उन लोगों तक जाते हैं जो संसाधनों पर नियंत्रण रखते हैं या उन तक जो ऐसे संसाधन की तकदीर तय करते हैं, जिसकी जगह कोई नहीं ले सकता और वह है जमीन। रेंट का रिकार्डियन सिद्धांत क्रांतिकारी सिद्धांत था जिसमें उन्होंने दिखाया कि खेती को अधिक उत्पादक बनाने वाले सिद्धांत जमीन मालिकों के लिए लाभदायक होते हैं भाड़े पर खेती करने वालों के लिए नहीं।
रिकार्डो रीजेंसी वाले जमाने की ब्रिटिश राजनीतिक अर्थव्यवस्था में भू-नीति की केंद्रीय भूमिका को समझ गए थे क्योंकि उस समय की अर्थव्यवस्था, समाज और राजनीति तीनों पर भू-स्वामियों का दबदबा था। जब उन्होंने वाटरलू के युद्ध पर सट्टा लगाकर करोड़ों रुपये कमाए तो फौरन वह ग्लोसेस्टरशर चले गए और खुद को देहाती जमींदार बताते हुए संसद पहुंच गए। अज राष्ट्रीय और वैश्विक अर्थव्यवस्थाएं 200 साल पहले की तुलना में अधिक जटिल हैं। परंतु जमीन, जमीन सुधार, उसका उपयोग और मूल्य आदि 21वीं सदी के विकास और वृद्धि के केंद्र में हैं। यह कुछ इस कदर है कि अर्थशास्त्र का अनुशासन आज इन्हें उस तरह नहीं परिभाषित कर सकता जैसे रिकार्डो के दौर में किया था।
जब जमीन के मूल्य पर एकाधिकार होता है और वह साझा नहीं की जाती तो अर्थव्यवस्थाओं में गतिहीनता आ जाती है। जब जमीन की उत्पादकता में सुधार नहीं होने दिया जाता है तब आर्थिक वृद्धि में गिरावट आती है। जब जमीन के स्वामित्व से समझौता किया जाता है तो राजनीतिक जोखिम पूरी अर्थव्यवस्था को घेर लेते हैं। यकीनन जमीन का स्वामित्व, नियंत्रण और प्रबंधन शक्तिशाली राज्यों की तकदीर आज भी उसी तरह तय करते हैं जैसे रिकार्डो के समय के भूस्वामी ब्रिटिश संसद में करते थे। आज यह लगभग सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की चिंता का विषय है: अमेरिका, चीन, यूनाइटेड किंगडम और यहां तक कि भारत भी।
चीन सबसे स्पष्ट उदाहरण है। वहां का मॉडल कुछ ऐसा रहा: स्थानीय सरकारें लैंड बैंक बना सकती थीं और जमीन के भविष्य के मूल्य के बरअक्स ऋण ले सकती थीं। वे इस पूंजी का इस्तेमाल भूमि में सुधार करने में करतीं और मूल्यवर्धन का बड़ा हिस्सा पूंजी के स्वामियों के इर्दगिर्द होता। भविष्य में इसे और सुधारों में इस्तेमाल किया जाता। इस प्रक्रिया के माध्यम से पूरे देश में अधोसंरचना विकास किया गया और कई क्षेत्रों को उत्पादक बनाने में मदद मिली।
दिक्कत यह है कि कर्ज भी बढ़ा। ऋण संकट वास्तव में स्वामित्व का संकट है। जमीन और उसके मूल्य पर किसका नियंत्रण है? स्थानीय सरकार का? उन रियल एस्टेट कंपनियों का जिन्होंने स्थानीय सरकार की उस जमीन पर निर्माण करने की मांग पर प्रतिक्रिया दी? इमारत बनाने के लिए पूंजी मुहैया कराने वाले का? या केंद्र सरकार का क्योंकि चीन में अंतत: सारी शक्ति सत्ता के शीर्ष से आती है?
जमीन की कीमतें बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए जाने के कारण अचल संपत्ति बाजार और उससे संबद्ध बाजार चीन की अर्थव्यवस्था में अन्य देशों की तुलना में बहुत बड़े हिस्सेदार हो गए। वहां सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में वे 24-30 फीसदी के हिस्सेदार हैं जबकि अन्य जगहों पर यह 15-20 फीसदी है। इसमें कमी आएगी। यानी कुछ लोगों को नुकसान होगा। अब तक सरकार की ओर से ठोस हस्तक्षेप न होने के कारण जमीन की कीमत में अनिश्चितता है और अर्थव्यवस्था जूझ रही है।
अमेरिका में राजनीतिक और आर्थिक पुनर्संतुलन को भू-नीति के अलग-अलग दृष्टिकोण आकार दे रहे हैं। रिपब्लिकन झुकाव वाले कई राज्यों में समृद्धि केवल इसलिए बढ़ रही है क्योंकि वे भूमि विकास के लिए ऐसी नीति बना रहे हैं जो उन्हें अधिक उत्पादक बना रही है और आंतरिक प्रवासन की वजह बन रही है।
फ्लोरिडा और टेक्सस को लाभ हो रहा है मगर डेमोक्रेटिक कैलिफोर्निया और न्यूयॉर्क को नहीं। भविष्य में जब प्रतिनिधि सभा में सीटों का नए सिरे से निर्धारण होगा और बढ़ती आबादी के अनुसार इलेक्टोरल कॉलेज का पुनरावंटन होगा तो रिपब्लिकन प्रभाव वाले राज्यों की राजनीतिक शक्ति बढ़ेगी। चीन के उलट अमेरिका में संपत्ति पर मजबूत अधिकार हैं। जमीन का स्वामित्व सुरक्षित है। परंतु भू-बाजार बहुत सख्त और कठोर हैं। उदाहरण के लिए संपत्ति ऋण की दर दशकों से स्थिर है।
इसका अर्थ यह है कि जिन लोगों ने कम कीमत रहते जमीन खरीदी उन्हें बाद में किराये पर रहने वालों और अचल संपत्ति विकसित करने वालों की तुलना में भारी लाभ हुआ। इस बीच जिन लोगों ने कमजोर जगहों पर घर खरीदा वे उन्हें बेचकर आसानी से उन जगहों पर नहीं जा सकते जहां उनकी नौकरियां हैं। ऐसी बिक्री न होने का अर्थ है कि आवास और श्रम बाजार दोनों ‘जड़वत’ हैं।
यूनाइटेड किंगडम इस बात का उदारहण है कि जड़वत भूमि बाजार किसी समाज का क्या कर सकता है। विगत 40 सालों में उसके लगभग सभी आर्थिक लाभ पूरी तरह भू-स्वामियों को हुए हैं। खासतौर पर ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भूमि सुधार, अधोसंरचना विकास और नए कार्यालय बनाने या घर बनाने का लेकर पुरातन प्रतिबंधों की स्थिति किसी अन्य विकसित अअर्थव्यवस्था से बुरी है। रिकार्डियन नजरिये से देखा जाए तो अगर आपके बाजार बेहद लचीले हैं और अन्य तमाम संसाधन आपके पास हैं लेकिन श्रम के मामले में लचीलापन या उपलब्धता दोनों नहीं हैं तो तमाम लाभ भूस्वामी को होते हैं।
भारत में सुधारों से जुड़ा हालिया संघर्ष देखें तो उसके मूल में भी जमीन है। भारत का श्रम बाजार भी लचीला नहीं है। वास्तव में हमारे यहां श्रम बाजार जैसा कुछ है ही नहीं। जमीन का उपयोग नौकरशाही के आदेश से तय होता है और स्वामित्व का कोई सुरक्षित रिकॉर्ड नहीं है। परंतु चीन के उलट स्थानीय सरकारों को भी भूमि बैंक बनाने के लिए या इसके बरअक्स कर्ज लेने के लिए संघर्ष करना होगा। यहां अगर कोई भूमि से लाभान्वित होता है तो वह है ऐसा बिचौलिया जो राजनेताओं और नौकरशाहों से संबंधित होता है जो जमीन के उपयोग को बदलने का प्रभाव रखते हैं।
नतीजा यह है कि न तो निजी और न ही सरकारी क्षेत्र आसानी से जमीन पर निर्माण कर सकता है न बदल सकता है। कृषि में मार्जिन कम है और उद्योग में ज्यादातर निवेश कम है। इसके लिए भूमि स्वामित्व पर प्रतिबंध जिम्मेदार है।
रिकार्डो जिन सवालों को हल करना चाहते थे, उनसे ये सारे मुद्दे दूर नजर आते हैं लेकिन ये दिखाते हैं कि आर्थिक विकास के मूल में एक सवाल का जवाब है: हमें जमीन के साथ क्या करना चाहिए?