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Opinion: मुद्रा विनिमय दर में अनिश्चितता का अर्थव्यवस्था से ताल्लुक, क्या स्थिरता का जिक्र RBI के लिए वाकई उपलब्धि?

कुछ लोगों की नजर में मुद्रा विनिमय दरों में उतार-चढ़ाव अर्थव्यवस्था की प्रगति के लिए बाधा है मगर हकीकत में यह आर्थिक लचीलेपन का एक अहम तत्व है। बता रहे हैं के पी कृष्णन

Last Updated- October 23, 2024 | 10:08 PM IST
Opinion: Exchange rate uncertainty is related to the economy Opinion: विनिमय दर में अनिश्चितता का अर्थव्यवस्था से ताल्लुक

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने हाल में सार्वजनिक तौर पर सीना चौड़ा कर पिछले कुछ वर्षों में मुद्रा विनिमय दरों में स्थिरता का जिक्र किया। क्या यह वाकई ऐसी उपलब्धि है जिस पर आरबीआई इतरा सकता है? कंप्यूटर क्रांति की भाषा में पूछें तो यह खूबी है या खामी? आइए, पहले तथ्यों पर विचार करते हैं।

सबसे ऊपर दर्शाए गए ग्राफ (रुपया-डॉलर की चाल) में एक सपाट जगह दिखती है जहां अमेरिकी डॉलर और रुपये की विनिमय दर जाकर लगभग ठहर जाती है यानी इसमें हलचल कम हो जाती है। सबसे नीचे दर्शाए ग्राफ में दीर्घकालिक ऐतिहासिक दृष्टिकोण दर्शाया गया है। आखिरी बार 2006 में यह सपाट जगह देखी गई थी। एक लंबी अवधि तक विनिमय दर सरकारी नियंत्रण में रखने के बाद भारत ने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था बनने की तरफ बड़ा कदम उठाया। अब एक बार फिर अर्थव्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण मूल्य अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी नियंत्रण की जद में आ गया है।

वर्ष 1991-2011 के बीच की अवधि के नीति निर्धारकों ने सरकार नियंत्रित दर से बाजार निर्धारित दर की तरफ कदम क्यों बढ़ाया जो हरेक दिन बदलती रहती है? इसका पहला पहलू बाजार अर्थव्यवस्था का महज बुनियादी तर्क है। बाजार में प्रत्येक दिन आपूर्ति एवं मांग के बीच खेल चलता रहता है जिससे मूल्य निर्धारण होता रहता है। मूल्य नीतिगत निर्णयों के केंद्र में नहीं होता है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण पर विचार करते हैं। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि बाजार में कुछ कारणवश पेंसिल की कीमत बढ़ जाती है।

अल्प अवधि में पेंसिल की कीमत बढ़ जाएंगी। बाजार में इसकी उपलब्धता यानी आपूर्ति एवं मांग में संतुलन स्थापित करने के लिए यह स्थिति बनती है। मध्यम से दीर्घ अवधि में आपूर्ति बढ़ेगी जिससे इसकी कीमत शुरुआती स्तर और बढ़ी कीमत के बीच कहीं जाकर स्थिर हो जाएगी। अनिश्चितता और मूल्य में उतार-चढ़ाव मूल्य ढांचे से जुड़ी खास बात होती है। कोई ऐसा ठोस जरिया नहीं है जिसका सहारा लेकर कोई अधिकारी वाजिब कीमत निर्धारित कर पाए। केवल बाजार यह कार्य कर सकता है।

बड़े पैमाने पर पेंसिल का इस्तेमाल करने वाला, उदाहरण के लिए, कोई आर्ट स्टूडियो इसकी कीमतों में उतार-चढ़ाव पसंद नहीं करेगा। ऐसे स्टूडियो जोखिम कम करने के लिए नियत मूल्य का अनुबंध कर सकते हैं। इस अनुबंध के बाद उनके लिए कीमतों में उतार-चढ़ाव का जोखिम कम हो जाएगा। हां, इसके लिए उन्हें थोड़ी अधिक कीमत (प्रीमियम) का भुगतान करना होगा।

भारतीय समाजवाद की यह धारणा थी कि कीमतों में उतार-चढ़ाव अच्छी बात नहीं है, इसलिए इसे स्थिर रखने के लिए सरकार को अपनी शक्ति का इस्तेमाल करना चाहिए। अधिकारी यह तय किया करते थे कि पेंसिल की कीमत क्या होगी। वे उपरोक्त उदाहरण में पेंसिल को ‘आवश्यक वस्तु’ घोषित कर देते थे और कहते थे कि कानूनन इसकी कीमतों में ‘उतार-चढ़ाव’ बरदाश्त नहीं की जा सकती। जो लोग पेंसिल की निर्धारित कीमत से ऊपर खरीद और बिक्री करते थे वे कानून का उल्लंघन करते थे और दंड के भागी बन जाते थे। कानून कभी-कभी इसे अपराध घोषित कर देता है (जैसा कि आवश्यक वस्तु अधिनियम में प्रावधान) और ऐसे लोगों को उनके ‘अपराधों’ के लिए जेल में भी डाला जा सकता है।

एक सीमा तक ही अर्थशास्त्र का ज्ञान रखने वाले लोगों की नजर में उनकी नजर में यह तरीका ठीक प्रतीत हो सकता है क्योंकि इससे अनिश्चितता कम होती है और दुनिया सभी लोगों के सहूलियत बढ़ जाती है। यह एक छद्म लाभ है क्योंकि अर्थव्यवस्था को संगठित करने का मुख्य तरीका कीमतों में उतार-चढ़ाव से जुड़ा है। दुनिया बदलेगी, आपूर्तिकर्ता और मांगकर्ताओं को बदलना होगा और मूल्य प्रणाली सभी समायोजनों में तालमेल बैठा लेगी। अर्थव्यवस्था की एक खास बात यह है कि इसमें कई भागीदार होते हैं। ये लोग कीमतों पर विचार करने के बाद अपनी प्रतिक्रिया उजागर करते हैं। उन सभी प्रतिक्रियाओं पर संशोधित मूल्य के निर्धारण के समय विचार किया जाता है।

यह तर्क मुद्रा विनिमय दर के साथ भी उतनी ही लागू होता है। अच्छे समय में भारत में विदेश से अधिक पूंजी आती है और उस स्थिति में रुपया का मूल्य बढ़ना चाहिए। प्रतिकूल समय में भारत में कम पूंजी आती है और इस स्थिति में रुपया कमजोर होना चाहिए। रुपया कमजोर होना निर्यातकों एवं वस्तु एवं सेवाओं के व्यापार में जुड़ी कंपनियों के लिए अच्छी बात है।

भारत में नीति निर्धारण कई क्षेत्रों जैसे सीमेंट, इस्पात और विनिमय दर आदि में प्रभावी नहीं रह गया है। यानी ये खंड मूल्य नियंत्रण की जद से बाहर निकल गए हैं। इसे लेकर कम से कम पांच स्पष्ट तर्क हैं कि विनिमय दर बाजार द्वारा निर्धारित होना चाहिए न कि नीति निर्धारकों द्वारा।

  1. लचीली विनिमय दर स्वाभाविक रूप से झटकों को बरदाश्त कर लेती है। अच्छे समय में रुपया मजबूत होता है और प्रतिकूल समय में इसमें कमजोरी दिखती है। रुपया कमजोर होता है तो अर्थव्यवस्था दबाव में आ जाती है और रुपया चढ़ने पर ठीक इसका उल्टा होता है। यह प्रक्रिया वृहद आर्थिक हालात को स्थिर बनाए रखती है।
  2. एक अधिकारी सटीक विनिमय दर कैसे निर्धारित कर सकता है? यह विश्लेषणात्मक और राजनीतिक रूप से एक कठिन प्रश्न हो सकता है। अधिकारी अब सीमेंट का मूल्य निर्धारित नहीं करते हैं। हम मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) को मुद्रास्फीति लक्ष्य के आधार पर अल्प दर चुनने के लिए कह सकते हैं। सटीक विनिमय दर का चयन करने के लिए विशेषज्ञों का समूह तैयार करने का कोई औचित्य नहीं है।
  3. एक नियत विनिमय दर कुछ लोगों के लिए निःशुल्क जोखिम प्रबंधन करने का जरिया होता है क्योंकि उन्हें स्वयं मुद्रा जोखिम का प्रबंधन नहीं करना पड़ता है। यह कहना काफी कठिन है कि ऐसी सरकारी सब्सिडी व्यवस्था कितनी उचित ठहराई जा सकती है।
  4. नैतिक संकट का भी मसला उठता है। जब निजी क्षेत्र की इस तरक रक्षा की जाती है तो वे अधिक मुद्रा जोखिम लेंगे और ये बाद में नुकसान का कारण बनते हैं। जोखिम की आशंका वाले लोग उन नीतियों के लिए अधिक दबाव डालेंगे जो उनके हित में होंगी)।
  5. स्वतंत्र मौद्रिक नीति, निश्चित विनिमय दर और पूंजी का बेरोक-टोक प्रवाह तोनों बातें एक साथ संभव नहीं हैं। भारत के लिए मुद्रास्फीति लक्ष्य के साथ एक मुक्त पूंजी खाता रखना और आधुनिक बॉन्ड-मुद्रा-डेरिवेटिव (बीसीडी) गठजोड़ तैयार करना जरूरी है। इन सभी के साथ विनिमय दर में बदलाव भी जरूरी है। मुद्रास्फीति लक्ष्य के साथ जुड़े विरोधाभास और नियंत्रित विनिमय दर नीति निर्धारकों द्वारा मुद्रा डेरिवेटिव कारोबार को नुकसान पहुंचाने, पूंजी निकासी पर स्रोत पर कर काटने (टीडीएस) आदि के पीछे कारण को स्पष्ट करते है।

यह तर्क 1991 से 2006 तक चल रहा था और विनिमय दर में लचीलापन और लोगों को जोखिम प्रबंधन में मदद पहुंचाने वाले मुद्रा डेरिवेटिव बाजारों के विकास से यह बहस खत्म हो गई। ऐसा लगता है कि आरबीआई ने इस नीतिगत रणनीति को पलटने के लिए बड़े बदलाव किए हैं। उसने मुद्रा डेरिवेटिव बाजार के कुछ हिस्से बंद कर दिए हैं और लगभग नियत दर की तरफ वापस लौट आया है। ऐसे बड़े निर्णय सार्वजनिक सुझाव और तर्कों के आधार पर लिए जाएं तो बेहतर होगा।

जब विवेकपूर्ण तरीके से कोई आर्थिक नीति तैयार की जाती है तभी यह कारगर होती है। सफल दशकों में अर्थशास्त्र ने कुछ इसी तरह प्रभावी भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिए मुद्रास्फीति लक्ष्य निर्धारित करने की प्रक्रिया बिना किसी ठोस आधार के शुरू नहीं की गई है बल्कि यह 20 वर्षों के शोध और भारत के उद्देश्यों की पूर्ति के विवेकपूर्ण तरीकों पर वैचारिक चर्चा के बाद प्रभावी हुई है।
(लेखक आइजक सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी में मानद वरिष्ठ फेलो और पूर्व अधिकारी हैं।)

First Published - October 23, 2024 | 8:52 PM IST

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