भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने हाल में सार्वजनिक तौर पर सीना चौड़ा कर पिछले कुछ वर्षों में मुद्रा विनिमय दरों में स्थिरता का जिक्र किया। क्या यह वाकई ऐसी उपलब्धि है जिस पर आरबीआई इतरा सकता है? कंप्यूटर क्रांति की भाषा में पूछें तो यह खूबी है या खामी? आइए, पहले तथ्यों पर विचार करते हैं।
सबसे ऊपर दर्शाए गए ग्राफ (रुपया-डॉलर की चाल) में एक सपाट जगह दिखती है जहां अमेरिकी डॉलर और रुपये की विनिमय दर जाकर लगभग ठहर जाती है यानी इसमें हलचल कम हो जाती है। सबसे नीचे दर्शाए ग्राफ में दीर्घकालिक ऐतिहासिक दृष्टिकोण दर्शाया गया है। आखिरी बार 2006 में यह सपाट जगह देखी गई थी। एक लंबी अवधि तक विनिमय दर सरकारी नियंत्रण में रखने के बाद भारत ने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था बनने की तरफ बड़ा कदम उठाया। अब एक बार फिर अर्थव्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण मूल्य अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी नियंत्रण की जद में आ गया है।
वर्ष 1991-2011 के बीच की अवधि के नीति निर्धारकों ने सरकार नियंत्रित दर से बाजार निर्धारित दर की तरफ कदम क्यों बढ़ाया जो हरेक दिन बदलती रहती है? इसका पहला पहलू बाजार अर्थव्यवस्था का महज बुनियादी तर्क है। बाजार में प्रत्येक दिन आपूर्ति एवं मांग के बीच खेल चलता रहता है जिससे मूल्य निर्धारण होता रहता है। मूल्य नीतिगत निर्णयों के केंद्र में नहीं होता है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण पर विचार करते हैं। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि बाजार में कुछ कारणवश पेंसिल की कीमत बढ़ जाती है।
अल्प अवधि में पेंसिल की कीमत बढ़ जाएंगी। बाजार में इसकी उपलब्धता यानी आपूर्ति एवं मांग में संतुलन स्थापित करने के लिए यह स्थिति बनती है। मध्यम से दीर्घ अवधि में आपूर्ति बढ़ेगी जिससे इसकी कीमत शुरुआती स्तर और बढ़ी कीमत के बीच कहीं जाकर स्थिर हो जाएगी। अनिश्चितता और मूल्य में उतार-चढ़ाव मूल्य ढांचे से जुड़ी खास बात होती है। कोई ऐसा ठोस जरिया नहीं है जिसका सहारा लेकर कोई अधिकारी वाजिब कीमत निर्धारित कर पाए। केवल बाजार यह कार्य कर सकता है।
बड़े पैमाने पर पेंसिल का इस्तेमाल करने वाला, उदाहरण के लिए, कोई आर्ट स्टूडियो इसकी कीमतों में उतार-चढ़ाव पसंद नहीं करेगा। ऐसे स्टूडियो जोखिम कम करने के लिए नियत मूल्य का अनुबंध कर सकते हैं। इस अनुबंध के बाद उनके लिए कीमतों में उतार-चढ़ाव का जोखिम कम हो जाएगा। हां, इसके लिए उन्हें थोड़ी अधिक कीमत (प्रीमियम) का भुगतान करना होगा।
भारतीय समाजवाद की यह धारणा थी कि कीमतों में उतार-चढ़ाव अच्छी बात नहीं है, इसलिए इसे स्थिर रखने के लिए सरकार को अपनी शक्ति का इस्तेमाल करना चाहिए। अधिकारी यह तय किया करते थे कि पेंसिल की कीमत क्या होगी। वे उपरोक्त उदाहरण में पेंसिल को ‘आवश्यक वस्तु’ घोषित कर देते थे और कहते थे कि कानूनन इसकी कीमतों में ‘उतार-चढ़ाव’ बरदाश्त नहीं की जा सकती। जो लोग पेंसिल की निर्धारित कीमत से ऊपर खरीद और बिक्री करते थे वे कानून का उल्लंघन करते थे और दंड के भागी बन जाते थे। कानून कभी-कभी इसे अपराध घोषित कर देता है (जैसा कि आवश्यक वस्तु अधिनियम में प्रावधान) और ऐसे लोगों को उनके ‘अपराधों’ के लिए जेल में भी डाला जा सकता है।
एक सीमा तक ही अर्थशास्त्र का ज्ञान रखने वाले लोगों की नजर में उनकी नजर में यह तरीका ठीक प्रतीत हो सकता है क्योंकि इससे अनिश्चितता कम होती है और दुनिया सभी लोगों के सहूलियत बढ़ जाती है। यह एक छद्म लाभ है क्योंकि अर्थव्यवस्था को संगठित करने का मुख्य तरीका कीमतों में उतार-चढ़ाव से जुड़ा है। दुनिया बदलेगी, आपूर्तिकर्ता और मांगकर्ताओं को बदलना होगा और मूल्य प्रणाली सभी समायोजनों में तालमेल बैठा लेगी। अर्थव्यवस्था की एक खास बात यह है कि इसमें कई भागीदार होते हैं। ये लोग कीमतों पर विचार करने के बाद अपनी प्रतिक्रिया उजागर करते हैं। उन सभी प्रतिक्रियाओं पर संशोधित मूल्य के निर्धारण के समय विचार किया जाता है।
यह तर्क मुद्रा विनिमय दर के साथ भी उतनी ही लागू होता है। अच्छे समय में भारत में विदेश से अधिक पूंजी आती है और उस स्थिति में रुपया का मूल्य बढ़ना चाहिए। प्रतिकूल समय में भारत में कम पूंजी आती है और इस स्थिति में रुपया कमजोर होना चाहिए। रुपया कमजोर होना निर्यातकों एवं वस्तु एवं सेवाओं के व्यापार में जुड़ी कंपनियों के लिए अच्छी बात है।
भारत में नीति निर्धारण कई क्षेत्रों जैसे सीमेंट, इस्पात और विनिमय दर आदि में प्रभावी नहीं रह गया है। यानी ये खंड मूल्य नियंत्रण की जद से बाहर निकल गए हैं। इसे लेकर कम से कम पांच स्पष्ट तर्क हैं कि विनिमय दर बाजार द्वारा निर्धारित होना चाहिए न कि नीति निर्धारकों द्वारा।
यह तर्क 1991 से 2006 तक चल रहा था और विनिमय दर में लचीलापन और लोगों को जोखिम प्रबंधन में मदद पहुंचाने वाले मुद्रा डेरिवेटिव बाजारों के विकास से यह बहस खत्म हो गई। ऐसा लगता है कि आरबीआई ने इस नीतिगत रणनीति को पलटने के लिए बड़े बदलाव किए हैं। उसने मुद्रा डेरिवेटिव बाजार के कुछ हिस्से बंद कर दिए हैं और लगभग नियत दर की तरफ वापस लौट आया है। ऐसे बड़े निर्णय सार्वजनिक सुझाव और तर्कों के आधार पर लिए जाएं तो बेहतर होगा।
जब विवेकपूर्ण तरीके से कोई आर्थिक नीति तैयार की जाती है तभी यह कारगर होती है। सफल दशकों में अर्थशास्त्र ने कुछ इसी तरह प्रभावी भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिए मुद्रास्फीति लक्ष्य निर्धारित करने की प्रक्रिया बिना किसी ठोस आधार के शुरू नहीं की गई है बल्कि यह 20 वर्षों के शोध और भारत के उद्देश्यों की पूर्ति के विवेकपूर्ण तरीकों पर वैचारिक चर्चा के बाद प्रभावी हुई है।
(लेखक आइजक सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी में मानद वरिष्ठ फेलो और पूर्व अधिकारी हैं।)