बीते चार महीनों में भारतीय बाजारों में अच्छी खासी तेजी देखने को मिली है, उधर अमेरिकी शेयर बाजारों में पूरे 2023 के दौरान जबरदस्त तेजी रही। निवेशकों ने उच्च ब्याज दर, कमजोर आर्थिक वृद्धि और विकसित देशों में उच्च ऋण दर जैसी वृहद आर्थिक दिक्कतों की अनदेखी की है।
इसके बावजूद 2022 में मुख्य बाधा रही मुद्रास्फीति पर जीत की घोषणा के बाद भी अमेरिका में निवेशक इस बात पर पुनर्विचार कर रहे हैं कि क्या वाकई समस्याएं समाप्त हो गई हैं। निश्चित तौर पर वैश्विक अर्थव्यवस्था के कई हिस्से शायद हमें चौंका भी सकते हैं। आइए एक नजर डालते हैं।
चीन: चीन से शुरुआत करते हैं जिसकी सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि (जीडीपी) 2022 में केवल 2.9 फीसदी थी। मुख्यतौर पर ऐसा इसलिए था कि कोविड-19 को नियंत्रित करने के लिए कठोर उपाय अपनाए गए। दिसंबर में जब चीन ने सार्वजनिक विरोध के कारण कोविड संबंधी प्रतिबंध समाप्त किए तो इस बात पर वैश्विक सहमति थी कि वृद्धि में इजाफा होगा।
‘चीन को दोबारा खोलने’ की बात एक मृगतृष्णा साबित हुई। गत सप्ताह आई कई रिपोर्टों में कहा गया है कि चीन में गंभीर समस्याएं हैं। जुलाई में दो वर्ष में पहली बार उपभोक्ता कीमतों में गिरावट आई जबकि निर्यात सालाना आधार पर 14.5 फीसदी कम हुआ। यह लगातार तीसरा महीना है जब इसमें गिरावट आई है। चीन का सबसे बड़ा निर्यात बाजार अमेरिका है और वहां होने वाला निर्यात 23 फीसदी गिरा। यूरोपीय संघ को होने वाला चीन का निर्यात 20.6 फीसदी कम हुआ।
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चीन का निर्यात और आयात उसके कुल आर्थिक उत्पादन में 40 से अधिक का हिस्सेदार है। चीन के आयात का बड़ा हिस्सा उन उत्पादों के निर्माण में लगता है जिनका वह निर्यात करता है। ऐसे में जब चीन का निर्यात घटता है तो उसका आयात भी कम होता है। यह देश में रोजगार और आय पर काफी बुरा असर डालने वाला साबित हो सकता है। विनिर्माण संबंधी गतिविधियों में लगातार चौथे महीने गिरावट आई और चीन के युवाओं में बेरोजगारी दर मई में 21 फीसदी रही। कीमतों में लगातार गिरावट को तकनीकी शब्दावली में अपस्फीति कहा जाता है।
चीन जैसे भारी कर्ज वाले देशों के लिए अपस्फीति बहुत बुरी है क्योंकि कर्ज अदायगी बढ़ती जाती है। चीन के राष्ट्रीय कर्ज के बारे में अनुमान है कि अब वह उसके राष्ट्रीय उत्पादन का 282 फीसदी हो चुका है यानी अमेरिका से भी अधिक। इस कर्ज का बड़ा हिस्सा बेकार अधोसंरचना परियोजनाओं और अचल संपत्ति परियोजनाओं के कारण है।
चीन का अचल संपत्ति बाजार जो चीन के जीडीपी में 30 फीसदी हिस्सेदार है वह धीमी गति से पतन की ओर बढ़ रहा है। चीन के प्रॉपर्टी डेवलपरों में से ज्यादातर अपने डॉलर बॉन्ड में डिफॉल्ट कर चुके हैं। चिंता की बात यह है कि चीन के सामने आने वाली दिक्कतों में से ज्यादा दीर्घकाल में सामने आएंगी। अतीत की एक बच्चे वाली नीति भी ऐसी ही है।
बीसीए रिसर्च के अनुसार बीते एक दशक में चीन ने वैश्विक वृद्धि में 40 फीसदी से अधिक योगदान किया है। अगर चीन में अपस्फीति आती है तो नई आर्थिक हकीकतों का सामना करना होगा। हालांकि निर्यात की कम लागत की मदद से मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करने में मदद मिल सकती है लेकिन इसका असर दुनिया के कई देशों के स्थानीय विनिर्माताओं पर पड़ेगा और वहां बेरोजगारी बढ़ेगी।
संरक्षणवाद में भी इजाफा होगा। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने चीन की अर्थव्यवस्था को एक ऐसा टाइम बम करार दिया है जिसकी घड़ी चल रही है। उन्होंने कहा, ‘जब बुरे लोगों को दिक्कत होती है तो वे बुरे काम करते हैं।’ भारत चीन से बहुत अधिक आयात करता है इसका असर चालू खाते के घाटे पर भी पड़ता है। यह और बढ़ेगा।
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अमेरिका: चीन में जहां अपस्फीति की स्थिति है वहीं अमेरिका मार्च 2022 से अब तक 11 बार दरों में इजाफा करने के बाद भी मुद्रास्फीति से जूझ रहा है। ताजा आंकड़े बताते हैं कि वहां मुद्रास्फीति लगातार बरकरार है। अमेरिका असाधारण ऋण से भी गुजर रहा है। तीन वर्षों में उसके कर्ज में 8 लाख करोड़ डॉलर का इजाफा हुआ। इस राशि में से 1.5 लाख करोड़ डॉलर की राशि गत मई में कर्ज संकट के बाद जुड़ी।
अमेरिका जल्दी ही एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का सालाना ब्याज चुकाना शुरू कर देगा लेकिन कर राजस्व बीते 12 महीनों में करीब 8 फीसदी कम है। उसका बजट घाटा भी चालू वित्त वर्ष के पहले 10 महीनों में ही दोगुना बढ़कर 1.6 लाख करोड़ डॉलर हो गया है। इसके परिणामस्वरूप रेटिंग एजेंसी फिच अमेरिकी सरकार की शीर्ष क्रेडिट रेटिंग को एए प्लस से कम करके एएए कर दिया है।
फिच का मानना है, ‘बीते 20 वर्षों में शासन के मानकों में निरंतर गिरावट आई है, इसमें राजकोषीय और कर्ज संबंधी मामले भी शामिल हैं। उपभोक्ताओं पर कर्ज और उच्च ब्याज दर का चिंताजनक असर रहा। अमेरिका में घरों के मालिक अपनी सकल आय का 40 फीसदी घर के कर्ज पर चुकता कर रहे हैं। यह 2008 के 39 फीसदी के स्तर से भी अधिक है।’
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जापान: अगर चीन जापान की राह पर आगे बढ़ रहा है तो जापान में क्या हो रहा है? मूल्य स्थिरता के दशकों के बाद अब जापान में 3.3 फीसदी मुद्रास्फीति है। इसके लिए मोटे तौर पर खाद्यान्न, ईंधन और टिकाऊ वस्तुओं की ऊंची कीमतें उत्तरदायी हैं। मुद्रास्फीति का बड़ा हिस्सा आयातित है और डॉलर के मुकाबले येन की कीमत में भारी गिरावट आई। दो सप्ताह पहले बैंक ऑफ जापान ने सरकारी बॉन्ड प्रतिफल के 0.5 फीसदी पर हार्ड कैप समाप्त कर दी।
इस कदम ने वित्तीय जगत को हिला दिया। नई कैप एक फीसदी तय की गई है। जिस दिन बैंक ऑफ जापान ने अपनी प्रतिफल सीमा बढ़ाई, अमेरिकी बॉन्ड प्रतिफल में उछाल आई और वे गत वर्ष नवंबर से अपने उच्चतम स्तर तक पहुंच गई। अमेरिकी वित्त मंत्रालय ने अपने नए दीर्घकालिक बॉन्ड इश्यू को बढ़ाने को तैयार है जिससे प्रतिफल पर और दबाव बनेगा। बॉन्ड और फॉरेक्स बाजार इनके असर को खपा रहे हैं। अमेरिकी राजकोष में उच्च प्रतिफल ही आने वाले समय में शेयर बाजारों की दिशा तय करेगा।
इस पहेली में भारत कहां है? भारत का निर्यात गैर प्रतिस्पर्धी है और इसकी वजह है अधोसंरचना की अधिक लागत, खराब उत्पादकता, आरोबार में कई दिक्कतें, दिक्कतदेह कानून, खराब संचालन और धीमी तथा महंगी न्याय प्रक्रिया। यह बात ध्यान देने वाली है कि चीन को निर्यात में जो नुकसान हुआ है वह वियतनाम और मैक्सिको के लिए फायदेमंद साबित हुआ है, न कि भारत के लिए। यही कारण है कि भारत का चालू खाते का घाटा बढ़ता जा रहा है और इसकी भरपाई विदेशी पूंजी से करनी पड़ रही है।
कोविड से पहले के दौर में जहां घरेलू वृद्धि का स्तर मजबूत था वहीं इसके लिए रक्षा, रेलवे तथा अधोसंरचना पर बढ़ा हुआ व्यय जिम्मेदार है। यहां तक कि व्यय में इजाफे के साथ भी भारत का पूंजीगत वस्तु क्षेत्र जून में केवल 2.2 फीसदी बढ़ा। टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन 6.9 फीसदी गिरा जबकि दैनिक उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन केवल 1.2 फीसदी बढ़ा। भारत के मौजूदा वृद्धि संबंधी रिकॉर्ड में प्रशंसा का भाव अधिक है। सवाल यह है कि दुनिया के अन्य हिस्सों में विकसित हो रही तेज लहरें क्या हमें आसानी से तैर कर दूर जाने देंगी? हमें जल्दी पता चल जाएगा।
(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक हैं)