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Opinion: केंद्रीय नियोजन में उलझे हुए शहर और जमीनी हकीकत

देश की शहरी नीति अभी भी पुरानी शैली के अफसरशाही नियंत्रण का अनुसरण कर रही है। इससे ऐसे शहर तैयार हो रहे हैं जो अव्यवस्थित नजर आते हैं। इसमें सुधार की जरूरत है।

Last Updated- January 23, 2024 | 9:27 PM IST
केंद्रीय नियोजन में उलझे हुए शहर, Cities: Trapped in central planning

कल्पना कीजिए कि एक नया शहर बनाया जा रहा है। कल्पना कीजिए कि कॉलोनियों के विकास या ले-आउट पर वैसा कोई सांविधिक एकाधिकार नहीं है जैसा कि दिल्ली विकास प्राधिकरण अथवा बेंगलूर विकास प्राधिकरण को मिलता है। कल्पना कीजिए कि निजी क्षेत्र बिना किसी समन्वय के जमीन पर निर्माण कर रहा है और केवल अपने हितों का ध्यान रख रहा है। ऐसे में क्या गलत होगा?

निजी लोगों का सामान्य मुनाफा कमाने वाला व्यवहार उन्हें निजी परियोजनाओं के लिए जमीन के अतिशय इस्तेमाल के लिए प्रेरित करेगा। ऐसे में पार्क और गलियों आदि के लिए पर्याप्त जमीन नहीं बचेगी। शहरी अधोसंरचना मसलन पानी, सफाई, ठोस कचरा, बिजली और दूरसंचार आदि को लेकर भी सही ढंग से काम नहीं होगा। बाजार की विफलता की स्थिति बनेगी जो राज्य को हस्तक्षेप के लिए प्रेरित करेगी।

शहरी नीति के क्षेत्र में इस बाजार की विफलता की समझ और इस नाकामी से निपटने के लिए राज्य के हस्तक्षेप का सबसे प्रभावी तरीका निकालना, दोनों शामिल हैं। भारत में अच्छे शहरों का नहीं होना यह साबित करता है कि फिलहाल हमारी शहरी नीति कारगर नहीं है। इस नीति में फिलहाल शहर निर्माण में राज्य के हस्तक्षेप की रणनीति, तकनीक और प्रक्रियाएं शामिल हैं जो भली भांति काम नहीं करतीं।

दिसंबर में मुंबई में आयोजित उभरते बाजारों के सम्मेलन में उद्घाटन व्याख्यान में शहरी विचारक विमल पटेल ने हमारा ध्यान कुछ जमीनी हकीकतों की ओर खींचा था कि देश में फिलहाल शहरी नियोजन कैसे काम करता है। सन 1991 के बाद इस बात को बार-बार दोहराया गया कि भारत ने केंद्रीय नियोजन को समाप्त कर दिया है।

परंतु नारेबाजी और भारतीय राज्य की जमीनी हकीकत में काफी अंतर है। यहां अर्थव्यवस्था में राज्य का हस्तक्षेप बहुत बड़े पैमाने पर होता है। शहरी नियोजन पर भी यही बात लागू होती है। गलियों, पार्क और शहरी बुनियादी ढांचे आदि पर ध्यान देने के सीमित रुख को अपनाने के बजाय सरकार की आकांक्षा काफी हद तक निर्माण के वातावरण को नियंत्रित करने की है।

हर शहर में या बड़ी शहरी बसावट में विकास प्राधिकरण होते हैं जो शहर के विकास की विस्तृत योजना तैयार करते हैं। वे व्यापक विकास योजना तैयार करते हैं जो शहर को आवासीय, वाणिज्यिक, औद्योगिक और हरित क्षेत्र में बांटती है तथा बारीक ब्योरों में पूरी जगह के इस्तेमाल का उल्लेख करती है। ये ऐसे दस्तावेज नहीं होते हैं जो निजी भूस्वामियों को बेहतर सोचने के लिए प्रेरित करें: ये बाध्यकारी और कानूनी रूप से प्रवर्तनीय होते हैं।

यह रुख सही ढंग से काम नहीं करता है क्योंकि कोई सरकारी संगठन् समाज के बारे इतना नहीं जानता कि उसे सही ढंग से नियोजित करे। किसी समाज को संगठित करने का सही तरीका यह है कि स्वतंत्रता को उसका आधार बनाया जाए, जहां निजी लोग अपनी मर्जी से काम करते हैं और राज्य का हस्तक्षेप न्यूनतम अपवाद के रूप में ही सामने आता है वह भी बाजार की विफलता की स्थिति में। यह अपवाद भी संवैधानिकता और विधि के शासन के दायरे में होता है।

भारतीय कुलीन वर्ग के कई लोग आसानी से चंडीगढ़ जैसे नियोजित शहर के सपनों में खो जाते हैं, तथ्य यह है कि दुनिया के बड़े शहर किसी केंद्रीय नियोजन के बिना निजी लोगों के निर्णयों की मदद से ही विकसित हुए हैं। बड़े शहर बनाने के उच्च लक्ष्य को परे कर दें तो भी एक बुनियादी समस्या संवैधानिक सिद्धांतों के उल्लंघन की है। आप जमीन के ऐसे टुकड़े के मालिक हो सकते हैं जो हरित क्षेत्र में हो यानी जो शायद पार्क आदि के लिए आरक्षित हों। विकास प्राधिकरण के पास यह कानूनी अधिकार है कि अगर जमीन खाली है तो वह उस पर घर बना सके।

इससे भी बुरी बात यह है कि अगर कोई घर पहले से है जहां आप रहते हैं तो विकास प्राधिकरण आपके उस घर के नक्शे को बदलने या पुनर्निर्माण के अनुरोध को ठुकरा सकता है क्योंकि वह हरित क्षेत्र में है। इस काम को करने वाले विकास प्राधिकरण भारतीय प्रशासनिक राज्य यानी अधिकारियों के शासन का एक हिस्सा है, जहां लोकतंत्र लड़खड़ाता हुआ नजर आ रहा है।

उनके विधायी काम कार्यकारी शाखाओं के जरिये होते हैं और अक्सर बिना क्षतिपूर्ति के जब्ती होती है। कुछ अदालतों ने विकास प्राधिकरण को निर्देश दिया है कि वे जमीन का अधिग्रहण कर लें और तयशुदा समय में उसे पार्क में परिवर्तित करें या जमीन को हरित क्षेत्र के वर्गीकरण से मुक्त कर दें। व्यवहार में ऐसा कम ही होता है और जमीन मालिक अक्सर खुद को विकास प्राधिकरणों के चक्कर काटते पाते हैं।

वंचित लोगों का गुस्सा और केंद्रीय योजनाकारों द्वारा अकल्पित तरीकों से भूमि का तर्कसंगत रूप से उपयोग करने के लिए निजी व्यक्तियों को आर्थिक प्रोत्साहन एक गड़बड़ी पैदा करता है। बड़े पैमाने पर शहरी नियोजन का उल्लंघन होता है। यह उल्लंघन भ्रष्टाचार के कारण होता है और प्राधिकारों को मनमानी शक्ति देता है जो चुन सकते हैं कि किस पर हमला करना है।

भवन निर्माण के नियमन भी इसके दोषी हैं। इन्हें कई वजहों से जमीन को खुला रखना होता है। नियमन कहते हैं कि भूखंड तक पहुंच मार्ग होना चाहिए, साझा खुली जमीन होनी चाहिए वगैरह। इसके अलावा हरियाली, पार्किंग, अग्नि शमन और अन्य प्रकार के बुनियादी ढांचे की जरूरत होती है। इन सबसे बढ़कर अधिकांश शहरों में इमारतों के दायरे को सीमित करने वाले नियमन होते हैं। इन सबमें जमीन बरबाद होती है।

पटेल का विचार है कि भारतीय शहरों की जमीन का सही इस्तेमाल नहीं होता। 50 से 60 फीसदी जमीन निजी खुली जगह के लिए इस्तेमाल की जाती है और केवल चौथाई जमीन इमारत के लिए। विदेशों के अच्छे शहरों में 10 फीसदी से भी कम जमीन निजी इस्तेमाल की खुली जमीन होती है। औसतन 50 फीसदी जमीन पर भवन होता है। वहां करीब 40 फीसदी जमीन पार्क और गलियों के लिए होती है। भारत में स्थिति सबसे खराब है।

भारत में शहरी नियोजन की नाकामी आर्थिक समझ की कमी में निहित है। जैसा कि शहरी नियोजन विशेषज्ञ एलन बर्तोद ने कहा है, ‘शहरों के प्रबंधन के जिम्मेदार लोगों का बुनियादी शहरी आर्थिक अवधारणाओं से परिचित नहीं होना हमारे समय की सबसे प्रमुख समस्याओं में से एक है।’

जैसा कि देश में अधिकांश अन्य क्षेत्रों के साथ होता है, देश के शहरी नियोजन के लिए समय की मांग यह है कि बाजार की विफलता को समझने के लिए एक नए स्तर की बौद्धिक क्षमता विकसित की जाए और राज्य के हस्तक्षेप के समुचित उपाय विकसित किए जाएं। इसके साथ ही ऐसे कानून और संगठन बनाने की जरूरत है जिससे उक्त क्षमता हासिल की जा सके।

(लेखक पूर्व लोक सेवक, सीपीआर में मानद प्रोफेसर एवं कुछ लाभकारी एवं गैर-लाभकारी निदेशक मंडलों के सदस्य हैं)

First Published - January 23, 2024 | 9:27 PM IST

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