क्या बीते कुछ वर्षों में अधिक तादाद में भारतीय आय कर के दायरे में आए हैं? वित्त मंत्रालय के आय कर विभाग के ताजा आंकड़े इस सवाल का जवाब देते हैं और कई दिलचस्प रुझानों की ओर संकेत करते हैं। ये मई 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद केंद्र सरकार के आय कर संग्रह के प्रयासों की दिशा और प्रभाव को लेकर भी एक नजरिया पेश करते हैं।
यकीनन इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक है। 2013-14 में यानी मनमोहन सिंह सरकार के आखिरी वर्ष में 3.05 करोड़ लोगों ने आय कर रिटर्न भरे। नौ वर्ष बाद 2022-23 में यह आंकड़ा बढ़कर 6.97 करोड़ हो गया, यानी 128 फीसदी की वृद्धि या 10 फीसदी की वार्षिक चक्रवृद्धि ब्याज दर (सीएजीआर)।
व्यक्तिगत आय कर संग्रह भी 2.38 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 8.08 लाख करोड़ रुपये पहुंच गया। यह वृद्धि 239 फीसदी की थी, यानी करीब 14 फीसदी से अधिक सीएजीआर।
कर रिटर्न दाखिल करने वालों की दर और लोगों द्वारा आय कर भुगतान में अंतर को कैसे समझा जाए? आय कर विभाग द्वारा जारी किए गए विस्तृत आंकड़ों में केवल 2021-22 तक की अवधि शामिल है।
इसके मुताबिक 8.9 करोड़ से अधिक लोगों ने 2021-22 में आय कर दिया जबकि 2013-14 में यह संख्या 5.38 करोड़ थी। परंतु कर रिटर्न दाखिल करने वाले लोगों की संख्या 2021-22 में 6.54 करोड़ तथा 2013-14 में 3.05 करोड़ थी।
स्पष्ट है कि करदाताओं की संख्या कर रिटर्न भरने वालों की तुलना में काफी ज्यादा है। 2021-22 में यह अंतर 2.34 करोड़ लोगों का रहा जबकि 2013-14 में यह अंतर 2.33 करोड़ लोगों का था। 2017-18 में यह अंतर 2.9 करोड़ का हो गया था लेकिन बाद के वर्षों में यह कम स्तर पर स्थिर हुआ।
अधिकारी बताते हैं कि करदाता वे लोग हैं जिन्होंने या तो आय का रिटर्न दाखिल कर दिया है या फिर ऐसे लोग जिनके स्रोत पर कर कटौती (टीडीएस) हुई लेकिन उन्होंने रिटर्न नहीं दाखिल किया। इसका अर्थ यह हुआ कि बीते कुछ सालों में सालाना 2.3 से 2.9 करोड़ लोग स्रोत पर कर देते रहे लेकिन उन्होंने कर रिटर्न नहीं दाखिल किया।
यहां दो सवाल पैदा होते हैं। पहला, क्या सरकार ने बीते नौ सालों के दौरान यह बड़ा अवसर गंवा दिया कि वह दो करोड़ से अधिक करदाताओं को अपना रिटर्न दाखिल करने के लिए प्रेरित करती और कर दायरे को स्थायी रूप से बढ़ा पाती? याद रहे कि 2021-22 में हमारे कुल प्रत्यक्ष कर संग्रह में 45 फीसदी हिस्सेदारी टीडीएस की थी। 2013-14 में यह हिस्सेदारी 39 फीसदी ही थी।
टीडीएस में इजाफा हो रहा है और ऐसे में ऐसी कटौती वाले लोगों का बड़ी संख्या में रिटर्न दाखिल न करना अवसर को गंवाने जैसा है। टीडीएस के जरिये अधिक कर संग्रह सरकार के लिए किफायती है। परंतु यह टीडीएस चुकाने वालों को नियमित कर रिटर्न भरने वालों में शामिल न करने की वजह नहीं हो सकता है।
दूसरा सवाल है: अगर दो करोड़ से अधिक कर दाता रिटर्न नहीं भर रहे हैं तो आय कर विभाग उन्हें रिटर्न भरने वालों में बदलने के लिए क्या करेगा? इन आंकड़ों को देखने का एक और तरीका है यह आकलन करना कि अलग-अलग राज्यों ने केंद्र के समग्र प्रत्यक्ष कर संग्रह में कितना योगदान किया। बीते कुछ वर्षों में केवल सात राज्यों ने केंद्र के कुल प्रत्यक्ष कर संग्रह में 80 फीसदी का योगदान किया है।
ये राज्य हैं: महाराष्ट्र, दिल्ली, कर्नाटक, तमिलनाडु, गुजरात, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल। महाराष्ट्र ने जहां 37 फीसदी के साथ सबसे बड़े अकेले योगदानकर्ता का दर्जा बनाए रखा, वहीं 2013-14 की तुलना में इसके संग्रह में हुआ 129 फीसदी का इजाफा दो अन्य राज्यों की तुलना में कम रहा।
मोदी सरकार के पहले आठ साल में कर्नाटक ने 182 फीसदी के साथ सबसे तेज वृद्धि हासिल की है। दूसरे स्थान पर गुजरात है जिसने 148 फीसदी वृद्धि हासिल की। दिल्ली, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ने अपना-अपना योगदान दोगुना किया है जबकि आंध्र प्रदेश 78 फीसदी के साथ काफी पीछे है।
इससे इन राज्यों की आर्थिक गतिवधियों का अंदाजा लगता है। केंद्र के कुल प्रत्यक्ष कर योगदान में इन सात राज्यों का 80 फीसदी योगदान होना यह बताता है कि भारत की आर्थिक गतिविधियां चुनिंदा राज्यों तक सीमित हैं। कंपनियां अपने मुख्यालय शहरों और राज्यों की राजधानियों में बनाना चाहती हैं जहां उन्हें कारोबार करना आसान लगता है।
यह रुझान मुंबई, दिल्ली और बेंगलूरु जैसे स्थापित शहरों को औरों से अधिक तवज्जो देता है। बहरहाल कुल प्रत्यक्ष कर में व्यक्तिगत आय कर की हिस्सेदारी बढ़ रही है और इन सात राज्यों का निरंतर दबदबा बता रहा है कि अन्य राज्यों में आर्थिक समृद्धि का वितरण सीमित रहा है। इसके विस्तार की आवश्यकता है ताकि विकास का लाभ अधिकाधिक राज्यों तक पहुंचे।
इन आंकड़ों में प्रत्यक्ष करों के घटक में एक उल्लेखनीय परिवर्तन को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। 2013-14 में व्यक्तिगत आय कर संग्रह की राशि 2.43 लाख करोड़ रुपये थी और यह कॉर्पोरेशन कर संग्रह के दो तिहाई से कम थी।
नौ वर्ष बाद व्यक्तिगत आय कर संग्रह 8.08 लाख करोड़ रुपये है यानी वह लगभग 8.25 लाख करोड़ रुपये के कॉर्पोरेट कर संग्रह के आसपास ही है। यह उल्लेखनीय है क्योंकि बीते नौ वर्षों में केंद्र के सकल कर राजस्व में प्रत्यक्ष कर की हिस्सेदारी लगातार कम हुई है। 2013-14 के 56 फीसदी के बजाय 2022-23 में यह घटकर 53 फीसदी रह गई।
ताजा कर संबंधी आंकड़ों से सबसे दिलचस्प आंकड़ा उन व्यक्तिगत करदाताओं का है जिनकी सालाना आय एक करोड़ रुपये से अधिक है। 2013-14 में इनकी तादद 48,416 थी। 2020-21 में यह बढ़कर 1,32,497 हुई यानी सात वर्षों में 15 फीसदी से अधिक की चक्रवृद्धि ब्याज दर। याद रहे 2020-21 में ही कोविड महामारी ने अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया था। इसके बावजूद एक करोड़ से अधिक कमाने वालों की तादाद बढ़ी हालांकि यह सात फीसदी की कम दर से बढ़ी।
यकीनन कोविड के पहले वर्ष में न केवल व्यक्तिगत रिटर्न फाइल करने वालों की संख्या 2019-20 के छह करोड़ से बढ़कर 6.37 करोड़ हो गई बल्कि विभिन्न श्रेणियों में सकल आय घोषित करने वालों की तादाद में भी इजाफा हुआ। 2.5 लाख रुपये से चार लाख रुपये तक सालाना कमाने वाला निम्न आय वर्ग का समूह अपवाद रहा जहां रिटर्न फाइल करने वालों की तादाद 16.5 लाख रही।
शायद तात्कालिक उच्च आय वाली श्रेणियों में इजाफे ने गिरावट की भरपाई कर दी। परंतु तब भी गिरावट काफी अधिक थी। उच्च आय वाले यानी 10 करोड़ रुपये से 25 करोड़ रुपये के बीच कमाने वालों, 50 करोड़ से 100 करोड़ रुपये तथा 500 करोड़ रुपये से अधिक कमाने वालों में भी गिरावट दर्ज की गई।
कोविड वाले वर्ष के इन आंकड़ों से संकेत मिलता है कि कोविड का असर प्रमुख रूप से असंगठित क्षेत्र के लोगों ने वहन किया जो प्रत्यक्ष कर के दायरे से बाहर थे। आय कर चुकाने वाले शायद कम प्रभावित हुए। परंतु कर दाता वर्ग के लिए कोविड कितना बुरा था यह तभी तय होगा जब सरकार 2021-22 के कर संग्रह के आंकड़े जारी करती है। उसी समय महामारी का पूरा प्रभाव सामने आ सकेगा।