मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में एक बदली हुई हकीकत यह है कि हम उस पुराने सामान्य दौर में लौट आए हैं जहां बहुमत होने के बाद भी लगातार बगावतों का सामना करना पड़ता था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 23 सालों से सत्ता में हैं (इनमें से 13 वर्ष गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में) और पहली बार उन्हें ऐसे माहौल में सरकार चलानी पड़ रही है जहां उनके सामने निरंतर संघर्ष से भरी राजनीति होगी।
जिस मंच पर सबसे तीखा मुकाबला होगा वह है 18वीं लोक सभा जो इस सप्ताह आरंभ हो रही है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के सहज बहुमत के बावजूद उत्साहित और एकजुट विपक्ष का इंडिया गठबंधन के सांसदों की संख्या तकरीबन भारतीय जनता पार्टी (BJP) के सांसदों के आसपास ही है।
मोदी तथा उनके नेतृत्व में भाजपा को कभी ऐसे हालात का सामना नहीं करना पड़ा है। न तो गुजरात में और न ही नई दिल्ली में। मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा का तरीका रहा है विपक्षी सांसदों को चुप कराने का, उन्हें निलंबित करने का या सदन से निकालने का। गत दिसंबर में 146 सांसदों को एक साथ निलंबित किया गया था। अब शायद वह ऐसा नहीं कर सके।
विपक्ष मुक्त संसद में कुछ अहम कानून लगभग सर्वसम्मति से ध्वनिमत से पारित हुए थे। अपराधों से जुड़े तीन नए कानून इसका सबसे अहम उदाहरण हैं। ये 1 जुलाई से प्रभावी हो रहे हैं।
ऐसे में अब सभी विधेयकों पर खुलकर चर्चा करनी होगी और उनका मत परीक्षण भी करना होगा। जिन मामलों में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ मजदूर संघों वाले ‘साझा हितों’ को आधार बनाकर सर्वसम्मति हासिल की गई थी (मसलन न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून) उनको भी अब चुनौती दी जा सकती है।
संसदीय समितियों का स्वरूप भी बदल जाएगा। ऐसे में यह आसानी से समझा जा सकता है कि नए लोक सभा अध्यक्ष का चुनाव इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है।
प्रमुख राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर का यह आकलन गलत साबित हुआ कि भाजपा को आसानी से और बड़ा बहुमत हासिल होगा लेकिन उन्होंने जिस दूसरे बदलाव की बात कही थी वह सही प्रतीत हो रहा है क्योंकि उनका पहला अनुमान गलत है।
उन्होंने कहा था कि बड़े बहुमत के बाद भी भाजपा को असहमति और विपक्ष का सामना करना होगा। जहां तक उनके तीसरे पूर्वानुमान का प्रश्न है तो ब्रांड मोदी में गिरावट आ रही है। यहां पुराने जुमले का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि यह तो समय ही बताएगा कि आगे क्या होगा।
विपक्ष पहले ही तीन मुद्दों पर अपनी धार तेज कर रहा है: लगातार परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होना, अग्निपथ योजना और मणिपुर। तीनों मुद्दे ऐसे विशाल मतदाता वर्ग से जुड़े हैं जो भाजपा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। राहुल गांधी ने पिछले दिनों पेपर लीक पर संवाददाता सम्मेलन करके पहली चाल चल दी है। उन्होंने अग्निपथ योजना का नाम भी लिया।
सरकार चुनाव के पहले ही अग्निपथ योजना की समीक्षा कर रही थी लेकिन अब उसे दो बातें समझनी होंगी। पहली, विपक्ष किसी प्रकार के बदलाव के लिए राजी नहीं होने वाला है, वह पूरी योजना को रद्द कराना चाहता है।
दूसरा, अगर सरकार कुछ अहम बदलावों के साथ इसे जारी भी रखना चाहती है तो विपक्ष दावा करेगा कि उसने सरकार को विवश किया। 17वीं लोक सभा में जब मोदी सरकार की चिरपरिचित गोपनीय और चौंकाऊ शैली में यह योजना लागू की गई थी तब ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता था।
परीक्षा लीक की बात करें तो संबंधित मंत्री पहले ही जिम्मेदारी लेकर समीक्षा और जांच की घोषणा कर चुके हैं। मणिपुर में सामान्य हालात बहाल करने में नाकामी के बावजूद भाजपा को अब तक मुश्किल परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा है।
अब जबकि राज्य की दोनों सीटों पर कांग्रेस के सांसद हैं और मुख्यमंत्री वीरेन सिंह की विश्वसनीयता को भी तगड़ी क्षति पहुंची है, मोदी सरकार भी वहां के हालात को लेकर पहले की तरह आंखें नहीं मूंदे रह सकती।
अब राज्य सभा में भी एक नई चुनौती होगी, हालांकि वह लोक सभा की तरह गंभीर नहीं होगी। अब तक भाजपा को दो अहम क्षेत्रीय दलों का समर्थन हासिल था, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस पार्टी और ओडिशा में बीजू जनता दल। इसमें महत्त्वपूर्ण और विवादित विधेयकों पर समर्थन भी हासिल था, उदाहरण के लिए दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधिकारों को संवैधानिक रूप से करने का प्रयास।
दोनों ही दल न तो राजग के सदस्य थे और न ही औपचारिक रूप से किसी तरह भाजपा के सहयोगी थे। भाजपा ने दोनों के राज्यों में उनके खिलाफ चुनाव लड़ा था लेकिन दोस्ताना ढंग से। दोनों ही बहुमत वाली सरकार के आज्ञाकारी विपक्ष की भूमिका में थे। क्या अब भाजपा उनके अंध समर्थन की अपेक्षा कर सकती है।
दोनों दलों को विधानसभा चुनावों में भाजपा या उसके सहयोगी दल के हाथों हार का सामना करना पड़ा और ऐसे में उन राज्यों में राजनीतिक समीकरण भी बदल गए हैं। अंत में संसद के भीतर अगर राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष का पद स्वीकार कर लेते हैं तो उनके पास यह संवैधानिक अधिकार होगा कि अहम पदों पर नियुक्तियों के लिए वह प्रधानमंत्री के साथ बैठें।
इनमें केंद्रीय जांच ब्यूरो तथा केंद्रीय सतर्कता आयोग के प्रमुख और निर्वाचन आयोग के मुखिया के पद शामिल हैं। यदाकदा ही सही उन्हें राहुल के साथ नजर आना होगा और यह प्रधानमंत्री के लिए एक बड़ी तब्दीली होगी।
मोदी सरकार के लिए तीसरी पारी में एक बदलाव यह भी होगा कि पुराने सामान्य दिनों की वापसी होगी जहां बहुमत वाले दल को भी नियमित रूप से असंख्य बगावतों से निपटना पड़ता था। पिछला एक दशक केंद्र सरकार के लिए सबसे कम चुनौतीपूर्ण समय था।
नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उभरे विरोध प्रदर्शनों को आसानी से दबा दिया गया। केवल किसान आंदोलन को जीत मिली। मोटे तौर पर सरकार को यह सुविधा थी कि वह चुनौतियों को अलग-अलग खाकों में बांट सके और उनसे निपटे तथा कुछ को टाल सके। ये चुनौतियां बहुत बड़ी नहीं हैं लेकिन ये दिखाती हैं कि अपने तीसरे कार्यकाल में मोदी सरकार को अब भारत के शासन के दौरान उभरने वाली भिन्न-भिन्न चुनौतियों से भी निपटना होगा।
उदाहरण के लिए पंजाब और कश्मीर में चुनाव जीतने वाले तीन कट्टरपंथियों की बात करें तो उनमें से दो अभी भी जेल में हैं। इससे पहले मोदी का सामना ऐसी किसी परिस्थिति से नहीं हुआ था।
अंत में बात करते हैं उन राजनीतिक चुनौतियों की जो चुनाव नतीजे आने के बाद सामने आई हैं। सन 2002 में जब मोदी ने गुजरात में पहली बार अपनी पार्टी को जीत दिलाई थी। तब भी उनकी चुनाव जीतने की क्षमता के बारे में कोई संदेह नहीं था। उसके बाद हर चुनाव ने उनकी स्थिति को मजबूत किया।
उन्होंने अपनी पार्टी के लिए वोट जुटाने वाले सबसे प्रमुख नेता का कद अर्जित किया। बाद में वह ऐसा करने वाले इकलौते नेता रह गए। हाल में भाजपा-आरएसएस की विचारधारा का विरोध करने वाले कई नेता यह सोचकर भाजपा में शामिल हो गए कि ‘मोदी की गारंटी’ चुनाव जीतने में उनकी मदद करेगी। क्या यह धारणा अब भी है?
वर्ष 2014 और 2019 के आम चुनावों के बाद यह भी स्पष्ट हो गया था कि आम चुनाव के बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में से कई में मोदी अपनी पार्टी को जीत नहीं दिला सके थे। तब कहा गया था कि जब उनके नाम पर वोट मांगा जाता है तब जीत मिल जाती है लेकिन विधानसभा चुनावों में ऐसा नहीं होता है क्योंकि वे अलग मुद्दों पर लड़े जाते हैं। इसे नाकामी नहीं माना गया क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर उनका कद बढ़ रहा था।
अब पहले महाराष्ट्र में उसके बाद हरियाणा और फिर झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं। अगले वर्ष जनवरी में दिल्ली और सितंबर में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन चुनावों पर उनके चाहने वाले और विरोधियों दोनों की नजर होगी।
ऐसा नहीं है कि अतीत में मोदी के सामने चुनौतियां नहीं आईं।
गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने तथा उनके प्रमुख सहायकों ने कई मामलों और जांच का सामना किया। यहां तक कि पश्चिम के देशों ने उनका बहिष्कार तक किया। सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी उनके लिए मुश्किलें खड़ी कीं। हालांकि इससे कमजोर होने के बजाय उनकी राजनीति मजबूत हुई। ऐसा इसलिए कि वह अपनी विचारधारा के लिए लड़ रहे थे और उनका जनाधार प्रसन्न था। चुनाव में कोई उन्हें चुनौती नहीं दे सका। वर्तमान हालात इससे अलग हैं।