आज का भारत अपनी तमाम सफलताओं और कमियों के साथ हालिया इतिहास के किसी अन्य व्यक्ति के बजाय मनमोहन सिंह की देन है। उन्हें हमेशा ‘असंभावित’ राजनेता कहा गया लेकिन अपनी तमाम कामयाबियों और नाकामियों के साथ उनका करियर हमें यह याद दिलाता है कि टेक्नोक्रेट भी किसी राजनेता की तरह ही देशों की तकदीर बदल सकते हैं।
तटस्थ होकर बात करें तो अगर सिंह एक असंभावित राजनेता थे तो लोगों को यह सोचने के लिए माफ किया जा सकता है कि वह कहीं अधिक असंभावित उदारवादी थे। उन्होंने अपना पूरा करियर एक ऐसे अर्थशास्त्री और अफसरशाह के रूप में बिताया था जिसने उस समाजवादी व्यवस्था की सेवा में अपना समय दिया था जो 1991 के पहले देश की आधिकारिक आर्थिक विचारधारा थी। जब वह करीब 60 वर्ष के हुए तब राजनीति में उन्होंने अपने करियर की दूसरी पारी शुरू की और सुधारों की प्रक्रिया से जुड़े।
सिंह ने जुलाई 1991 के अपने प्रसिद्ध भाषण के समापन में विक्टर ह्यूगो के कथन को नए सलीके से इस्तेमाल करते हुए कहा था, ‘एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत का उभार एक ऐसा विचार था जिसका वक्त आ गया है।’ इसके आठ महीने बाद उन्होंने सुधारों के बचाव में जो भाषण दिया था वह भी बहुत प्रेरक है। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि, ‘उनसे यह दृष्टि मिली कि भारत में सामाजिक और आर्थिक बदलाव एक खुले समाज के ढांचे में होने थे जो संसदीय लोकतंत्र और विधि के शासन के प्रति प्रतिबद्ध हों।’
उन्होंने यह भी कहा कि सुधार ‘उस रचनात्मकता, आदर्श, रोमांच और उद्यमिता को सामने लाएंगे जो हमारे देश के लोगों के पास प्रचुर मात्रा में है।’ उनका यह भाषण बिस्मिल के क्रांतिकारी शेर के साथ खत्म हुआ, ‘सरफरोशी की तमन्ना..।’ परंतु इस शेर से पहले उन्होंने जो कहा वह बताता है कि उस वक्त सुधारक क्या महसूस करते थे, ‘आज रात मुझे लग रहा है कि मैं थिएटर जाऊं। हत्यारों को खबर हो जाए कि मैं उनका सामना करने के लिए तैयार हूं।’ हत्यारों के रूपक का प्रयोग हमें बताता है कि सुधार के शुरुआती दौर में सिंह किन हालात में काम कर रहे थे।
आज हम यह मानकर चलते हैं कि सुधारों को गति देने के लिए एक मजबूत सरकार की आवश्यकता है जो राजनीतिक रूप से एकजुट हो और जिसके पास सदन में बहुमत हो। परंतु 1991 में दोनों में से कोई बात नहीं थी। बदलाव की इस प्रक्रिया के दौरान उनके साथ कोई राजनीतिक साझेदार नहीं था। उस समय के संसदीय रिकॉर्ड से यह बात स्पष्ट होती है। कांग्रेस के भीतर और बाहर दोनों जगह मौजूद वाम धड़े तथा दक्षिणपंथी धड़े को वैश्विक खुलेपन को लेकर गहरी आशंकाएं थीं। मध्य मार्गी जिनमें से अधिकांश कांग्रेस के भीतर थे, और तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव जिनका नेतृत्व कर रहे थे, उन्हें वृद्धि की कोई खास परवाह नहीं थी बल्कि अपने बचाव की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि राव सरकार में शामिल लोगों ने भी हर अंदरूनी बदलाव का विरोध किया।
ऐसे समय में जबकि राव की प्रतिष्ठा को धूमिल करने की कोशिशें भारतीय राजनीतिक बहस में लगातार चल रही हैं, यह याद रखना आवश्यक है कि प्रधानमंत्री सुधार कार्यक्रमों के समर्थक नहीं थे और बल्कि आसन्न संकट बीतने के बाद उन्होंने कई अवसरों पर उसे त्यागने की कोशिश भी की। उन्होंने 1996 के चुनाव प्रचार में इसका जिक्र तक नहीं किया और इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि उनकी सरकार ने नेहरू-गांधी की कांग्रेस के प्रशासन और नीतियों को जारी रखा। आर्थिक प्रगति के लिए बहुमत वाली मजबूत सरकार की हिमायत करने वालों को यह बात याद रखनी चाहिए कि राव के कार्यकाल में जिस समय ज्यादा सुधार हुए उस समय सरकार अल्पमत में थी। हालांकि दो या तीन साल बाद उसने बहुमत हासिल कर लिया।
राजनीतिक वर्ग भले ही शुरुआती दिनों में सुधार प्रक्रिया के साथ नहीं रहा हो लेकिन सिंह को ऐसे तमाम लोगों का समर्थन हासिल था जो देश के छद्म समाजवाद के लिए काम करते थे। आधारशिला रखी जा चुकी थी और सहमति बन चुकी थी। खुद उस समय राव ने कहा था, ‘समाचार पत्रों में अनगिनत बार जिन उपायों के बारे में लिखा गया। महीनों-महीनों तक जिनके बारे में चर्चा की गई। पैनल परिचर्चाएं होती रहीं। तो ऐसा नहीं है कि ये उपाय रातोरात आसमान से टपक आए, हमें आए हुए तो तीन-चार दिन भी नहीं हुए थे। हम इतने सारे पर्चे कैसे तैयार करते? पर्चे पहले से तैयार थे।’ आज जब मैं ऐसे विषयों पर अंतहीन और बेतुकी पैनल चर्चा में बैठता हूं, जो राजनीतिक रूप से असंभव नजर आते हैं, तो मैं राव के शब्दों को याद करके खुद को आश्वस्त करता हूं और उम्मीद करता हूं कि भविष्य में किसी प्रधानमंत्री के पास यह अवसर होगा कि वह ऐसी पैनल चर्चाओं को सुधार के लिए प्रयोग में लाएगा।
बहरहाल 1991 में सिंह की तरह टेक्नोक्रेट जो काम नहीं कर सकते हैं वह है एक राजनीतिक आंदोलन तैयार करना जो उनके विचारों का समर्थन करे। सुधारों को, जैसा कि उनके विरोधी अक्सर शिकायत करते रहे, ‘चोरी से’ अंजाम दिया गया। दरअसल विरोधी यह कहना चाहते थे कि राजनीतिक दल यह कहते हुए जनता के पास नहीं गए कि आप हमें चुनाव जिताइए ताकि हम हालात बदल सकें। उनका यह कहना गलत भी नहीं है।
अंतत: इस बात ने सिंह के प्रधानमंत्रित्व की कामयाबी को सीमित कर दिया। उन्होंने भारत को वित्तीय संकट से उबारा लेकिन क्वांटिटेटिव ईजिंग के समय उच्च घाटे ने इसे बेकार कर दिया क्योंकि ईंधन कीमतों के कारण मुद्रास्फीति में इजाफा हुआ। कोई प्रतिबद्ध बैंक या सुधार समर्थक मतदाता उनके बचाव के लिए नहीं आए। घाटे के कारण बढ़ी महंगाई से नाराज भारतीय मतदाताओं ने उन्हें चुनाव में पराजित किया। उनके उत्तराधिकारी ने इससे सबक लिया और नरेंद्र मोदी की आर्थिक नीति की इकलौती प्राथमिकता रही है कीमतों को नियंत्रण में रखना।
आप कभी इस बात को लेकर निश्चित नहीं हो सकते कि राजनेता किन बातों पर यकीन करते हैं लेकिन आप उनकी कही बातों को लेकर सुनिश्चित हो सकते हैं। टेक्नोक्रेट शायद जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं लेकिन अक्सर सिंह की तरह वे प्रभावी संचार नहीं कर पाते। इसके बावजूद सिंह की प्राथमिकताएं- सामाजिक एकीकरण, उच्च विकास द्वारा जनकल्याण में सुधार और देश के विनिर्माण में सुधार आदि को अभी भी देश की प्राथमिकता होना चाहिए।
मोदी सरकार की सबसे अहम पहलों मसलन डिजिटल भुगतान से लेकर निर्यात आधारित विनिर्माण तक का उभार सिंह की प्रारंभिक पहलों पर केंद्रित है। सिंह सरकार की कई प्राथमिकताएं मसलन मुक्त व्यापार आदि हाशिए पर चली गईं हैं। परिणामस्वरूप भारत को मुश्किलों से जूझना पड़ा है। वर्ष 2010 में जब दुनिया के नेता 2008 के संकट पर साझा प्रतिक्रिया को लेकर मिले तो बराक ओबामा ने सिंह के योगदान के बारे में कहा था कि जब वह बोलते हैं तो हम सुनते हैं। देश में उस कथन का उपहास किया गया। क्या वाकई सिंह मौन रहने वाले प्रधानमंत्री थे? इसका निर्णय शायद इतिहास करेगा। बहरहाल शायद सिंह बहुत कम नहीं बोलते थे लेकिन भारत ने बहुत कम सुना।