बजट के बाद होने वाले मंथन व चर्चाओं में किसानों की 60 हजार करोड़ रुपये की कर्ज माफी का मुद्दा छाया रहा। असल में यह कोई बजट आइटम नहीं था जिसके साथ बजट की शुरुआत की गई।
बजट भाषण के दौरान कई सारी लोक लुभावन घोषणाओं के बीच कर्ज माफी की राशि का वित्तीय वर्ष 2008-09 पर कोई असर नहीं होगा क्योंकि यह रकम बजट के आंकड़ों में शामिल नहीं की गयी है।
इस कर्जमाफी के जवाब में कहा जा रहा है कि इससे भविष्य में भी ऋण लौटाने की आदत पर बुरा असर पड़ेगा, तो वही यह भी कहा जा रहा है कि सरकार ने यह तार्किक कदम इसलिए उठाया है कि दिए गए कर्ज का अधिकतर हिस्सा किसी भी सूरत में वापस नहीं मिलना था।
कर्ज लेने वालों ने बैंक को इस कर्ज को छोड़ देने को विवश कर दिया था।
इस कर्जमाफी का असर तत्काल रूप से बैंकों की वित्तीय व्यवस्था पर नहीं पड़ने वाला है।
इसका असर भविष्य में किसानों को मिलने वाले कर्ज व उन्हें चुकाने की क्षमता पर पड़ने वाला है। खास करके उन किसानों पर जिनका रिकार्ड कर्ज चुकाने के मामले में अच्छा रहा है। वे भी इस कदम के तहत डिफॉल्टर के रूप में देखे जाएंगे।
लिहाजा इस प्रकार की कर्जमाफी का राजनैतिक कारणों के अलावा कोई औचित्य नहीं है। एक बार इसे स्वीकार कर लेने के बाद हमें इस कमी को नियंत्रित करने की दिशा में सोचना होगा। इस बारे में शायद सरकार यह सोच रही है कि इस कदम से किसानों की स्थिति सुधरेगी और उन्हें कर्ज अदायगी का मौका मिलेगा।
अगर ऐसा नहीं किया गया तो किसानों की हालत अत्यंत दयनीय हो जाएगी और आने वाली सरकार को इस दयनीय कृषि की वित्तीय व्यवस्था के निपटना होगा। सरकार इस बात को मान रही है कि
जब इन किसानों से वसूली की बारी आएगी तो वह शासन में होगी। अब सवाल यह है कि इस कदम का वित्तीय व्यवस्था पर क्या प्रतिकूल असर पड़ेगा। इस कमी को दूर करने के उपायों की श्रेणी को लाने की जरूरत है।
पहली श्रेणी प्रोत्साहन से जुड़ा मामला है। बैंक उन किसानों को कैसे आश्वस्त करेगा जिन्होंने समय पर कर्ज चुकाया है और जिन्हें इस कर्जमाफी की घोषणा से कोई लाभ नहीं मिला।
बाजार के मुताबिक कर्ज नहीं चुकाने वाले को भविष्य में मिलने वाले कर्ज के लिए अयोग्य ठहराना एक रास्ता हो सकता है, लेकिन सरकार की इस घोषणा से ऐसा नहीं हो सकता है।
कई अन्य तरीकों से कर्ज चुकाने वाले व नहीं चुकाने वालों में अंतर को साफ किया जा सकता है। उदाहरण के लिए जिन किसानों का कर्ज चुकाने के मामले में अच्छा रिकार्ड रहा है, उन्हें ब्याज में छूट मिलनी चाहिए। जो किसान कर्जमाफी की घोषणा से लाभान्वित होंगे, भविष्य में उन्हें दी जाने वाली कर्ज सीमा में कटौती की जा सकती है।
क्या बैंक इस प्रकार से कर्ज चुकाने वाले और कर्ज नहीं चुकाने वालों में अंतर स्पष्ट कर सकता है। अगर ऐसा है तो बैंक को अपनी इस क्षमता को और बढ़ाना चाहिए और जिन बैंकों के पास इस प्रकार की योग्यता नहीं है वे इसे विकसित करें।
दूसरे प्रकार के उपायों की श्रेणी में हम बीमा को शामिल कर सकते है। फसलों का बीमा, हालांकि यह राष्ट्रीय स्तर पर बहुत सफल नहीं रहा है, को काफी व्यापक रूप से लागू करने की जरूरत है।
हमें इस बात को जानने की आवश्यकता है कि वर्तमान में कृषि उत्पादन के दौरान किन-किन जोखिमों का सामना करना पड़ता हैं। उत्पादन से लेकर मूल्य व विपदा जैसे तमाम जोखिम का अध्ययन करना होगा।
इन सभी जोखिम को कवर करने के लिए किसानों से योगदान लेने के अलावा राज्य सरकार, केंद्र सरकार व यहां तक कि स्टॉकहोल्डर से भी योगदान लिया जा सकता है।
असल में किसानों को उत्पाद के बदले उपभोक्ता से मिलने वाली राशि का बहुत ही कम अंश मिल पाता है। क्योंकि किसानों व उपभोक्ताओं के बीच कई सारे मध्यस्थों की चेन है और इनमें से सभी के पास जोखिम उठाने की एक सीमित क्षमता है। अगर इन जोखिम को कम करने के उपाय किए जाते है तो अपने आप उपभोक्ता मूल्य कम हो जाएगा और किसानों को भी अधिक लाभ मिलेगा।
कर्जमाफी की एक आलोचना के रूप में यह भी कहा जा रहा है कि अधिकतर किसानों को इसका लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि उन्होंने साहूकारों से कर्ज लिया है। इस बात से कर्जमाफी की पैरवी करने वाले भी सहमत नजर आते हैं।
इसका मतलब यह हुआ कि स्थिति में बहुत सुधार की गुंजाइश नहीं है। इस मामले में ग्रामीण कर्ज को लेकर राधाकृष्णा की सिफारिश पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
तीसरे प्रकार के उपायों की श्रेणी की व्याख्या संस्थागत के रूप में की जा सकती है। गांवों में बैंकिंग प्रणाली के विकसित होने के बावजूद साहूकारों का बोलबाला है।
इसका सबसे मुख्य कारण है साहूकारों से तुरंत मिलने वाले ऋण। जबकि बैंक से कर्ज लेने में देरी होती है। किसानों की ऋण जरूरत बैंकिंग प्रणाली की क्षमता के अनुकूल नहीं है और यही पर ग्रामीण ऋण व्यवस्था में संस्थागत सुधार की आवश्यकता है।
इस प्रकार गांवों में परंपरागत ऋण व्यवस्था में सुधार करके या फिर नए माध्यम का सृजन करके कर्ज देने के तरीकों में बदलाव लाया जा सकता है। सरकार को इस बात को स्वीकार लेना चाहिए कि कर्जमाफी की यह घोषणा राजनैतिक कदम है। और अगर सरकार इस स्थिति से सही तरीके से नहीं निपटती है तो इससे बैंकिंग प्रणाली पर गंभीर असर हो सकता है।
जब इस मुद्दे को इस प्रकार से सोचा जाएगा, जो कि अब कोई मुद्दा ही नहीं रह गया है, तब लोगों का ध्यान इससे हट जाएगा कि कर्जमाफी ठीक है या गलत।
अब सिर्फ इस घोषणा का वित्तीय सेक्टर पर पड़ने वाले तत्काल असर के बारे में ही नहीं सोचना चाहिए बल्कि इसे कृषि क्षेत्र में व्याप्त समस्या को दूर करने का एक अवसर के रूप में भी देखना चाहिए।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अगर कर्जमाफी के मुद्दे पर अलग हुई राजनैतिक ताकत को कृषि क्षेत्र के विकास में लगा दिया जाता है तो राजनीति अच्छे अर्थशास्त्र में बदल जाएगी।
अगर ऐसा नहीं होता है तो किसानों की दशा नहीं सुधरेगी और वे पहले की तरह ही बदहाली में रहेंगे।