झारखंड का जमशेदपुर शहर भारत के सफल औद्योगिक प्रयोग और शहरी योजना का साक्षी रहा है। वर्ष 1907 में दूरदर्शी उद्योगपति जमशेदजी नुसरवानजी टाटा ने जमशेदपुर की स्थापना की थी जिसे टाटानगर के नाम से भी जाना जाता है। भारत के इस पहले योजनाबद्ध औद्योगिक शहर की स्थापना एक सपने के साथ शुरू हुई थी। भारत के अन्य शहरों में हुए अचानक और अनियोजित शहरी विस्तार के विपरीत, जमशेदपुर की शुरुआत ही टिकाऊ विकास और सामुदायिक कल्याण के सिद्धांतों पर आधारित थी। इस शहर के विकास के तार हमेशा टाटा समूह से जुड़े रहे, जिसकी शुरुआत एशिया की पहली एकीकृत इस्पात कंपनी, टाटा स्टील की स्थापना के साथ हुई थी।
औद्योगिक उद्यम की वजह से इसके आसपास, शहर निर्माण की आवश्यकता अनिवार्य हो गई ताकि उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों को इन जगहों पर बसाया जा सके। इस शहर में चौड़ी सड़कें बनाईं गईं और यहां हरियाली से भरे पर्याप्त क्षेत्र रखे गए और कार्यस्थल के पास ही आवासीय क्षेत्र बनाने का खाका भी तैयार किया गया जिनकी वकालत आज के आधुनिक शहरी योजनाकार करते हैं।
इस्पात उद्योग से लेकर विनिर्माण, सेवा और आईटी जैसे विविध क्षेत्रों में विस्तार के जरिये जमशेदपुर ने लगातार खुद को नया रूप दिया है। समूह की ऐसी अनुकूलन क्षमता, भारत के लगातार बदलते आर्थिक परिदृश्य में इसकी निरंतर वृद्धि और प्रासंगिकता के लिए महत्त्वपूर्ण रही है।
हालांकि सुनियोजित योजना के बावजूद, जमशेदपुर शहरीकरण की चुनौतियों से अछूता नहीं रहा है। औद्योगीकरण की रफ्तार बढ़ने के साथ ही प्रदूषण, अपशिष्ट प्रबंधन और जल की कमी जैसी समस्याएं सामने आई हैं। टाटा स्टील और अन्य उद्योगों ने उत्सर्जन कम करने के लिए अत्याधुनिक तकनीकों को अपनाते हुए जल संचयन और पुनर्चक्रण जैसी पहलों में निवेश किया है।
जमशेदपुर में शहरी विकास का प्रबंधन भी बड़ी चुनौती रही है। शहर की आबादी लगातार बढ़ने से इसके बुनियादी ढांचे और संसाधनों पर दबाव बढ़ा है। इसी वजह से नागरिक सुविधाओं का प्रबंधन करने के मकसद से टाटा का एक उद्यम, जमशेदपुर यूटिलिटीज ऐंड सर्विसेज कंपनी (जेयूएससीओ) स्थापित की गई थी।
टाटा इस शहर से काफी जुड़ाव महसूस करते थे और इसका नाम भी उनके नाम पर ही था लेकिन इसके बावजूद, कुछ लोगों ने नगर निकाय के मामलों में टाटा की बढ़ती उपस्थिति का विरोध किया क्योंकि कंपनी का ध्यान मुख्य रूप से उन क्षेत्रों पर होता था जहां इसके कर्मचारी रहते थे और अन्य क्षेत्र नजरअंदाज हो जाया करते थे। इस मुद्दे को लेकर वर्ष 2018 में टाटा समूह के खिलाफ जनहित याचिका दायर की गई थी। लोगों ने मांग की थी कि स्थानीय निकायों का गठन किया जाए जो शहर के ‘निजी’ स्थानों के बजाय यहां की जनता के प्रति उत्तरदायी होंगे, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इस क्षेत्र में समान रूप से विकास हो।
हालांकि झारखंड की सरकार टाटा द्वारा पूरे क्षेत्र के विकास के लिए किए गए कामकाज को भी नजरअंदाज नहीं कर सकती थी। वहीं कंपनी भी इस क्षेत्र पर अपना नियंत्रण छोड़ने को तैयार नहीं थी। इसका सबसे अच्छा तरीका यह था कि जमशेदपुर को भारतीय संविधान के विशेष प्रावधानों के अनुसार एक औद्योगिक टाउनशिप में बदल दिया जाए। इसके तहत टाटा स्टील, स्थानीय सरकार और निवासियों के प्रतिनिधियों वाली एक नगर परिषद का निर्माण किया जाना शामिल होगा। यह मॉडल पहले के औद्योगिक टाउनशिपों से काफी अलग होगा, जहां स्थानीय भागीदारी या प्रतिनिधित्व नगण्य होता था जैसा कि राउरकेला और सेलम में देखा गया था।
औद्योगिक टाउनशिप को विशेष आर्थिक क्षेत्रों के रूप में मान्यता मिलती है जो कारखाने लगाने के लिए निजी कंपनियों को रियायतें और अन्य प्रोत्साहन देते हैं। इसका उद्देश्य व्यावसायिक संचालन को सुगम बनाना है।
जमशेदपुर के घटनाक्रम ने शहरी शासन में निजी क्षेत्र की भागीदारी और लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करने पर बहस छेड़ दी है। वैसे तो 74 वां संविधान संशोधन अधिनियम शहरी क्षेत्र के स्थानीय सरकारों के लिए शक्ति का विकेंद्रीकरण सुनिश्चित करता है, लेकिन शक्ति के हस्तांतरण का अभाव, भ्रष्टाचार के मामले और स्थानीय निकायों के पास अपर्याप्त संसाधन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि ये निकाय अक्सर प्रभावी नहीं होते हैं। ऐसे में, निजी क्षेत्र के हस्तक्षेप को सक्षम प्रबंधन और प्रभावी शासन के अवसर के रूप में देखा जाता है।
शहरी शासन में निजी क्षेत्र की भागीदारी को अक्सर सार्वजनिक क्षेत्र में दक्षता, नवाचार और निवेश लाने के लिए सराहा जाता है। जमशेदपुर में, टाटा समूह के जेयूएससीओ के माध्यम से शहरी प्रबंधन की क्षमता की मिसाल जल आपूर्ति और अपशिष्ट प्रबंधन से लेकर सड़कों पर रोशनी के इंतजाम के साथ-साथ सड़कों के रखरखाव की उच्च-गुणवत्ता वाली सेवाओं में दिखती है। इन मॉडल से अंदाजा मिलता है कि निजी क्षेत्र, हितधारकों के प्रति प्रबंधकीय दक्षता और जवाबदेही से प्रेरित होकर, भारत के कई शहरों के नगरपालिका शासन को प्रभावित करने वाले मुद्दों को हल कर सकते हैं जैसे कि इसमें कई तरह की अक्षमताएं, परियोजना में देरी और शहरी बुनियादी ढांचे का खराब रख-रखाव शामिल है।
हालांकि चुनौती की स्थिति तब बनती हैं जब निजी इकाइयां अपनी सक्षमता और विशेषज्ञता के बावजूद ऐसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में काम करती हैं जो सार्वजनिक कल्याण के लिहाज से अहम होते हैं लेकिन वे सीधे तौर पर आम जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होती हैं जिस तरह कोई निर्वाचित संस्था होती है।
आलोचकों का तर्क है कि इस तरह के हालात के परिणामस्वरूप एक ऐसा प्रशासनिक मॉडल तैयार हो सकता है जहां सामुदायिक कल्याण को प्रभावित करने वाले निर्णय, कंपनियां पर्दे के पीछे से करती हैं जिससे संभावित रूप से कमजोर हितधारकों की आवाज और उनकी जरूरतों की बात हाशिये पर चली जाती है। ऐसे में निजी क्षेत्र की क्षमता के फायदे को लोकतांत्रिक शासन की आवश्यकता के साथ जोड़ने के लिए जवाबदेही, पारदर्शिता और सार्वजनिक भागीदारी के लिए व्यापक ढांचा तैयार करना महत्त्वपूर्ण है।
शहरी स्थानीय निकायों के कामकाज की जगह लेने के बजाय निजी क्षेत्र के कारकों की भूमिकाओं, जिम्मेदारियों, और सीमाओं को परिभाषित करने की आवश्यकता है। सार्वजनिक निगरानी से जुड़ी प्रणाली मसलन नागरिक परामर्श बोर्ड, सार्वजनिक ऑडिट और फीडबैक तथा शिकायतें दर्ज करने के लिए खुले मंच की व्यवस्था से यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि निजी निकाय सार्वजनिक कल्याण और जवाबदेही को प्राथमिकता देंगे।
निर्णय लेने की प्रक्रिया में शहरी स्थानीय निकायों को शामिल करने के लिए साझेदारी वाला मॉडल बनाना महत्त्वपूर्ण है जिससे यह सुनिश्चित होता है कि निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता और दक्षता का इस्तेमाल निर्वाचित निकायों के अधिकार और जवाबदेही से समझौता किए बगैर किया जाता है।
(कपूर इंस्टीट्यूट फॉर कंपीटिटिवनेस इंडिया के अध्यक्ष और स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी, यूएसएटीएमसी के लेक्चरर हैं। देवरॉय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन हैं। लेख में जेसिका दुग्गल का भी योगदान)