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भाजपा और संघ के वैचारिक साहित्य को पढ़ना आवश्यक

क्या यह सरकार वाकई इतनी रहस्यमय है? क्या भाजपा की राजनीति के तिलस्म को तोड़ने का कोई उपाय है?

Last Updated- February 04, 2024 | 9:37 PM IST
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सुर्खियों और साजिशों से भरे इस राजनीतिक माहौल में जोखिम यह है कि हम कहीं तीन अहम बिंदुओं की अनदेखी न कर बैठें, इसलिए सिलसिलेवार ढंग से शुरुआत करते हैं। पहला, जिस दिन अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हो रही थी उस दिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कई प्रमुख नेताओं ने ‘रघुपति राघव राजा राम’ यानी रामधुन का वह मूल संस्करण गाया जिसे स्वर्गीय संगीतकार विष्णु दिगंबर पलुसकर ने तैयार किया था।

उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात के ताजा संस्करण में संविधान का मूल पहला पन्ना प्रदर्शित किया जिसमें ‘धर्म निरपेक्ष और समाजवादी’ शब्द नहीं थे। इन शब्दों को इंदिरा गांधी ने 1976 में संविधान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में शामिल कराया था।

आखिर में निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में एक कमेटी का विचार सामने रखा जो ‘जनसंख्या वृद्धि की चुनौतियों’ पर नजर डालेगी। इनमें से प्रत्येक भाजपा/आरएसएस की विचार प्रक्रिया के अहम तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करता है और हमें यह समझने में मदद करता है कि मोदी सरकार की राजनीति क्या है।

अगर आपके मन में जिज्ञासा है कि राम धुन मुद्दा क्यों है तो यह याद रखिए कि मूल राम धुन में वह दूसरी पंक्ति नहीं है जिसे हमें तीन पीढ़ियों से गाते आ रहे हैं और जिसे हम मूल मानते थे। वह पंक्ति है: ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान। यह गांधीवादी विचार से प्रेरित सुधार था जिसके तहत तुलसी दास के युग की रचना को धर्मनिरपेक्ष स्वरूप दिया गया।

प्राण प्रतिष्ठा के दिन भाजपा हमें याद दिला रही थी कि कौन सी राम धुन धर्मनिरपेक्ष थी और कौन सी छद्म धर्मनिरपेक्ष। बाद में उसी सप्ताह 2016 के बाद यह धुन बीटिंग द रिट्रीट समारोह में भी सुनाई दी। आप समझ सकते हैं कि भाजपा के शीर्ष नेता किन शब्दों को गुनगुना रहे होंगे?

संविधान की मूल प्रस्तावना को सामने लाने का उद्देश्य यह है कि भाजपा आपको याद दिलाना चाहती है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द बाद में एक अवैध लोक सभा (1976 में आपातकाल के दौरान बढ़ाया गया कार्यकाल) में शामिल किया गया, ठीक वैसे ही जैसे राम धुन में ईश्वर अल्ला तेरो नाम जोड़ा गया। आबादी में इजाफा भी भाजपा/आरएसएस की पुरानी चिंता है। भले ही भारत में जन्म दरें प्रतिस्थापन स्तर पर हों और उनमें गिरावट आ रही हो।

हकीकत में हालात यह है कि प्रति व्यक्ति आय के 3,500 डॉलर पहुंचते-पहुंचते हमारे सामने आबादी की उम्र बढ़ने की समस्या सामने नजर आ रही है जबकि चीन में यह खतरा प्रतिव्यक्ति आय के 12,500 डॉलर के स्तर पर होने के बाद उत्पन्न हुआ। बहरहाल वैचारिक मान्यताओं के खिलाफ तर्क का कोई अर्थ भी नहीं है।

अब राजनीति की बात करते हैं। सत्ता में एक दशक बिताने के बाद मोदी सरकार की प्रतिष्ठा कुछ ऐसी हो गई है कि वह हर चीज को सीने में छिपाकर रखती है और राजनीति पर नजर रखने वालों को हमेशा चौंकाती है।

परंतु क्या वाकई यह सरकार इतनी रहस्यमय है? क्या ऐसी कोई कुंजी है जो भाजपा की राजनीति के ताले को खोल सके, यह समझने में मदद कर सके कि उसके दिमाग में क्या चल रहा है? इसका जवाब इसकी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता को समझने में निहित है। हमें यह समझना होगा कि मोदी-शाह और अब मोदी-शाह-नड्‌डा के नेतृत्व मे पार्टी का रुख कड़ा रहा है। वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकारों को लेकर उनका रवैया खासतौर पर रुखाई भरा रहा है। इसमें कई ऐसे पत्रकार भी शामिल हैं जो खुद को भाजपा का करीबी बताते रहे और अंदर की खबर रखने का दावा करते थे।

नोटबंदी के आने की भनक भी किसी को नहीं लगी, न ही योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाए जाने, जम्मू-कश्मीर का दर्जा रातोरात बदले जाने, नागरिकता संशोधन अधिनियम, तीन तलाक पर प्रतिबंध या वाम के प्रति सहानुभूति रखने वालों के खिलाफ कार्रवाई की (जिन्हें भाजपा अर्बन नक्सल कहती है)।

अगर हमने भाजपा और आरएसएस की विचारधारा को समझने पर अधिक ध्यान दिया होता तो शायद हम इन चीजों को लेकर कम चकित हुए होते। मोदी के आलोचकों की बात करें तो इसकी एक वजह उस विचारधारा के प्रति उनकी नफरत भी है। मोदी के आलोचक उस विचारधारा को बौद्धिक रूप से बहुत काबिल नहीं मानते। परंतु मौजूदा हकीकत यह है कि उस विचारधारा को मानने वाले दशक भर से सत्ता में हैं और लगातार मजबूत होते जा रहे हैं। स्पष्ट है कि उनकी विचारधारा मतदाताओं को अपने साथ जोड़ पा रही है।

अगर भारत पर पिछले एक दशक से शासन करने वालों ने वह साहित्य नहीं पढ़ा जिसने प्राय: पुरानी कांग्रेस के अनुकूल धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को आकार दिया तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वे कुछ और नहीं पढ़ ही नहीं रहे थे। उन्होंने हेडगेवार, गोलवलकर और सावरकर से लेकर दीन दयाल उपाध्याय तक उनके समकालीनों को पढ़ा।

उदाहरण के लिए अगर आपने दीन दयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानववाद’ और ‘दो योजनाएं: वादे, प्रदर्शन और संभावनाएं’ जैसे दो कामों का अध्ययन किया होगा तो मोदी सरकार के आर्थिक कदम आपको अधिक चकित नहीं करेंगे। तब आपको इस बात की स्पष्ट समझ होगी कि आखिर क्यों मोदी सरकार मुफ्त खाद्यान्न वितरण और नकदी
हस्तांतरण सहित गरीबों के लिए इतना कुछ क्यों कर रही है।

अगर आपको इन किताबों से घबराहट हो रही है तो कृपया गूगल पर ‘अंत्योदय’ के बारे में पढ़िए। दीन दयाल उपाध्याय का यह मानना था कि अंतिम व्यक्ति तक पहुंच कर उसका ध्यान रखना राज्य की पहली जिम्मेदारी है। इस सीमा तक यह महात्मा गांधी के विचारों से भिन्न नहीं है, जिन्होंने कहा था, ‘मैं तुम्हें एक जंतर दूंगा… सबसे गरीब और सबसे कमजोर आदमी (औरत) के चेहरे को याद करो…।’

दूसरी पुस्तक दो योजनाएं में उन्होंने नेहरूवादी नियोजन वाले अर्थशास्त्र की आलोचना की है। खासतौर पर इसमें पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजना की बात की गई है। जब यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी तब कोई जनसंघ (भाजपा का पूर्व स्वरूप) और आरएसएस को गंभीरता से नहीं लेता था। परंतु आपको यह मानना होगा कि आरएसएस के विचारक बिना हताश हुए लगे रहे।

हाल के दिनों में ‘आत्मनिर्भरता’ पर जो जोर दिया जा रहा है, भारतीय उद्यमियों को जिस तरह बड़ा और अमीर बनने के लिए संरक्षण दिया जा रहा है, उन्हें वैश्विक प्रतिस्पर्धा से बचाया जा रहा है। ये सभी विचार यहीं से उत्पन्न हो रहे हैं। हर सरसंघचालक ने इन विषयों पर बातचीत की है। एक राष्ट्र, एक चुनाव का विचार गोलवलकर का दिया हुआ है। उनके निधन के 50वें वर्ष में उनके अनुयायियों ने इसे दोबारा प्रस्तुत किया।

आप भाजपा और आरएसएस को चाहे जितना नापसंद करते हों आप इन बातों की अनदेखी नहीं कर सकते। वामपंथियों की तरह उनके पास मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओ आदि की तरह बड़े वैश्विक नाम नहीं होंगे। कांग्रेस की तरह उनके पास नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ जैसी रचना नहीं होगी लेकिन आरएसएस और भाजपा के पास भारतीय गुरु हैं।

नेहरू और गांधी का लिखा हुआ तो हमें स्कूलों की किताबों में पढ़ाया गया लेकिन इन गुरुओं के बारे में बहुत अधिक भारतीय नहीं जानते। बहरहाल इससे फर्क नहीं पड़ता। सबसे अहम बात यह है कि जनता उन लोगों को वोट दे रही है जो उक्त साहित्य का अनुसरण कर रहे हैं। भारतीयों की आने वाली पीढ़ी उन्हें स्कूलों की किताबों में भी पढ़ेगी।

भाजपा और कांग्रेस की पिछली सरकारों के बीच सबसे बड़ा अंतर विचारधारा की प्रतिबद्धता का है। कांग्रेस नेतृत्व में काफी लचीलापन था। विचारधारा ने उसकी राजनीति को दिशा दी लेकिन कभी उसे संचालित नहीं किया। परंतु भाजपा के लिए मामला अलग है। विचारधारा को लेकर उसकी प्रतिबद्धता एकदम बुनियादी है।

कश्मीर में बदलाव, मुस्लिम पर्सनल लॉ, राम मंदिर निर्माण और प्रधानमंत्री की निगरानी में उसकी प्राण प्रतिष्ठा तथा ढेर सारे आर्थिक बदलाव मसलन आयात प्रतिबंध और उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन आदि सभी उसी विचारधारा से निकले। अगर आप अधिक गहराई में जाएंगे तो नोटबंदी के सूत्र भी वहीं मिलेंगे। अगर हम उनका लिखा पढ़ रहे होते तो इतने चकित नहीं होते।

अब उन तीनों घटनाओं को दोबारा देखें जिनका जिक्र मैंने पहले किया। मोदी-भाजपा (आरएसएस) के दौर में आगे बढ़ते हुए हमें राम धुन से लेकर प्रस्तावना तक छद्म धर्मनिरपेक्षता को लेकर एक बुनियादी सफाई की उम्मीद करनी चाहिए। जनसंख्या वृद्धि (पढ़ें मुस्लिम आबादी) पर भी ध्यान होगा।

दिवंगत स्टीफन कोहेन से एक बार पूछा गया था कि सीआईए वाजपेयी सरकार के पोकरण-2 परमाणु परीक्षण के बारे में पहले जानकारी क्यों नहीं जुटा सकी। उन्होंने कहा था कि खुफिया विभाग के लोगों के साथ दिक्कत यह है कि वे ऐसी चीजें पढ़ते ही नहीं जिन पर गोपनीय नहीं लिखा होता।

अगर उन्होंने भाजपा का चुनावी घोषणापत्र ही पढ़ लिया होता तो वे जान जाते कि सरकार बनने के तुरंत बाद परीक्षण होंगे। यही बात मोदी सरकार और भाजपा को लेकर हमारी समझ पर भी लागू होती है। उनकी चीजों को पढ़ना शुरू कीजिए। उसमें से कुछ भी गोपनीय नहीं है।

First Published - February 4, 2024 | 9:37 PM IST

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