सिंथेटिक प्लास्टिक का इतिहास 19वीं सदी के मध्य से शुरू होता है। किसी भी आविष्कार की तरह सिंथेटिक प्लास्टिक की खोज कुछ समस्याओं का समाधान खोजने के मकसद से शुरू हुई थी। दरअसल उस दौर में कछुए के खोल और हाथी दांत की उपलब्धता कम होने लगी थी जिनका इस्तेमाल 19वीं सदी में मुख्य रूप से कंघी, बिलियर्ड गेंदों, पियानो के बटन आदि बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। यूरोप में पियानो की चाबियों, बिलियर्ड की गेंद और कंघी की मांग बढ़ रही थी जबकि हाथी के दांत और कछुए के खोल का मिलना मुश्किल होता जा रहा था क्योंकि उनकी आबादी घटने लगी थी।
एक रसायन विशेषज्ञ एलेक्जेंडर पार्क्स को 1862 में पहला वास्तविक सिंथेटिक प्लास्टिक, पार्केसिन बनाने का श्रेय दिया जाता है जो जल्द ही कुछ उत्पादों के लिए कछुए के खोल और हाथी दांत का एक सस्ता विकल्प बन गया।
1907 में बेल्जियम के रसायन विशेषज्ञ लियो बैकलैंड ने बेकलाइट का निर्माण किया जो हर तरह के इस्तेमाल के लिए पहला सिंथेटिक प्लास्टिक था। इसके बाद, विकास तेजी से हुआ क्योंकि अमेरिका और ब्रिटेन की बड़ी कंपनियों जैसे बीएएसएफ, ड्यूपॉन्ट, इंपीरियल केमिकल इंडस्ट्रीज और डाउ केमिकल्स ने अनुसंधान, उत्पाद विकास और मार्केटिंग में पैसा लगाया।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान प्लास्टिक का भरपूर इस्तेमाल हुआ और पैराशूट से लेकर रडार केबलिंग, वाहन और विमान के पहिये तक हर चीज में इसका इस्तेमाल किया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, प्लास्टिक का नागरिक उपयोग तेजी से बढ़ा। नायलॉन, रेयॉन, पॉलिस्टिरीन, पीईटी और टेफ्लॉन का इस्तेमाल कपड़ों से लेकर खाद्य पैकेजिंग तक हर चीज में किया जाने लगा।
प्लास्टिक का उपयोग दशकों तक फलता-फूलता रहा और अब वैज्ञानिकों के साथ-साथ नीति निर्माता और नागरिक इस अप्रिय तथ्य को समझ पा रहे हैं कि जिन खूबियों के चलते प्लास्टिक इतना उपयोगी बना दरअसल उसी वजह से धरती प्रदूषित हो रही थी क्योंकि दरअसल प्लास्टिक का अस्तित्व पूरी तरह खत्म नहीं सकता। वे दशकों या सदियों तक न तो सड़ते हैं, न नष्ट होते हैं और न ही इनका क्षरण होता है। ऐसे में फेंका हुआ प्लास्टिक वास्तव में कचरा भरी जाने वाली जगहों और महासागरों में जमा हो जाता है जो पर्यावरण के लिए एक बड़ी आपदा वाली स्थिति बना देता है।
समस्या का पता होना और उसका समाधान ढूंढना दो अलग-अलग बात है। अब तक फेंके गए प्लास्टिक से पृथ्वी को होने वाले खतरे की बात अब अच्छी तरह से स्थापित हो चुकी है लेकिन अभी तक इसका कोई संतोषजनक समाधान नहीं मिला है। समाधान खोजने के प्रयास को जो समर्थन या संसाधन मिलने चाहिए थे, वह नहीं मिला है।
जैव रसायन और सूक्ष्म जीव विज्ञान में भी शोध के लिए कई दिलचस्प क्षेत्र हैं। समय-समय पर ऐसे बैक्टीरिया के बारे में बताया गया जो प्लास्टिक का उपभोग करने के साथ ही उनके तत्त्वों को तोड़ते हैं लेकिन कुछ ही बड़े पैमाने वाले संयंत्रों में पहुंच पाए हैं। फोटोऑक्सिडेशन जैसी अन्य विधियां भी अब तक व्यापक स्तर पर कारगर नहीं हो सकी हैं।
आमतौर पर सभी नीतियां प्लास्टिक के उपयोग को कम करने पर केंद्रित रही हैं लेकिन यह अधिकांश देशों में बहुत सफल नहीं रही है क्योंकि सिंथेटिक प्लास्टिक के विकल्प आसानी से उपलब्ध नहीं होते हैं या सस्ते नहीं होते हैं।
पिछले दो दशकों में, एक नई चिंता की बात सामने आई है और वह माइक्रो और नैनो-प्लास्टिक के सर्वव्यापी होने से जुड़ी है। प्लास्टिक को खराब होने में दशकों लग जाते हैं और यह कई टुकड़ों में टूट जाता है और ये इतने छोटे प्लास्टिक के टुकड़े होते हैं कि इन्हें अक्सर नंगी आंखों से देखना भी मुश्किल होता है। पिछले दशक में शोधकर्ताओं ने पाया है कि माइक्रो और नैनो प्लास्टिक की मौजूदगी हर जगह, मिट्टी, महासागरों और नदियों में, समुद्र और धरती पर रहने वाले सभी प्राणियों, मानव अंगों, रक्त वाहिकाओं से लेकर श्वसन प्रणाली, यकृत और यहां तक कि गर्भनाल में भी है।
आखिर मनुष्यों के लिए माइक्रोप्लास्टिक कितना खतरनाक है? इस पर अभी शोध शुरू हो रहा है। शुरुआती अध्ययन दीर्घकालिक खतरों की ओर इशारा करते हैं लेकिन खतरे की सटीक प्रकृति और इसकी मात्रा निर्धारित करने में समय लगेगा। कुछ प्रमाण हैं कि इससे शरीर में सूजन और जलन पैदा हो सकती है। एक अनुमान है कि शरीर के विभिन्न अंगों में नैनोप्लास्टिक के रसायन के चलते कैंसर सहित कई तरह की समस्याएं पैदा हो सकती हैं। अन्य अध्ययनों से पता चला है कि संचार प्रणाली में माइक्रो और नैनोप्लास्टिक हृदय संबंधी जोखिम को बढ़ा सकता है।
हालांकि, अभी तक माइक्रो और नैनो प्लास्टिक का संबंध बीमारियों और जीवन-प्रत्याशा से रहा है लेकिन इसके संबंध को लेकर पर्याप्त शोध नहीं हो पाया है। इन संबंधों को स्थापित करने में काफी समय लगता है। उदाहरण के लिए, हम हाल तक मानव शरीर के लिए वायु प्रदूषण के खतरों को नहीं समझ पाए थे।
इस क्षेत्र में शोध के लिए बहुत अधिक फंडिंग और अध्ययन की आवश्यकता है। विशेष रूप से उन खतरों के लिहाज से जो शिशुओं, छोटे बच्चों या यहां तक कि गर्भवती महिलाओं के सामने पैदा होते हैं है। साथ ही खतरा उन लोगों के लिए भी है जो कई तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं।
माइक्रोप्लास्टिक से हमारे शरीर को होने वाली बीमारियां, जलन और सूजन से निपटने के तरीके खोजने के लिए अन्य अध्ययनों की आवश्यकता है। समुद्री जीवों और नदी में पाए जाने वाले जीवों के साथ-साथ पौधों और जानवरों पर उनके प्रभाव का भी अधिक अध्ययन करने की आवश्यकता है।
दुर्भाग्य की बात यह है कि कुछ देश इस पर ध्यान दे रहे हैं मिसाल के तौर पर कनाडा ने कुछ करोड़ डॉलर आवंटित किए हैं लेकिन यह ऐसा क्षेत्र नहीं है जो बड़े पैमाने पर निजी या सार्वजनिक पूंजी को आकर्षित कर रहा है। इसका कारण काफी सरल है। अनुसंधान के अन्य क्षेत्र, निजी क्षेत्र के निवेश पर बेहतर रिटर्न का वादा कर रहे हैं। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) या नई बैटरी रसायन विज्ञान के व्यावसायिक अवसरों को समझना आसान होता है और इसलिए इसके लिए अरबों डॉलर की फंडिंग होती है। मनुष्यों पर माइक्रोप्लास्टिक के खतरों का अध्ययन करने से बड़े कारोबारी अवसरों का वादा नहीं किया जा सकता है।
जब तक सिलिकन वैली के कुछ अरबपति यह तय नहीं कर लेते कि माइक्रोप्लास्टिक उनकी जीवन-प्रत्याशा को कम कर सकता है तब तक संभावना नहीं है कि इस शोध के लिए बड़ी फंडिंग होगी। जहां तक नीति निर्माताओं का सवाल है तो डिजिटल प्रौद्योगिकियों और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएं पहले से ही काफी हैं जिनसे निपटना जरूरी है ताकि इस दीर्घकालिक खतरे को दूर किया जा सके। लेकिन एक दुखद पहलू यह है कि जब तक चीजें चरम सीमा पर नहीं पहुंच जातीं, तब तक कोई भी समाधान खोजना नहीं चाहता।
(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेस वर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय परामर्श संस्था प्रोजैक व्यू के संस्थापक हैं)