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अतार्किक विकल्प: भारत में फिर ‘राजनीतिक’ अर्थव्यवस्था हावी

एक राजनीतिज्ञ के रूप में मोदी ने हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, जन कल्याणवाद के नाम पर अधिकांश चुनावों में विजय पताका फहरा दिया। इस अभियान में उनकी पार्टी का भी उन्हें पूरा सहयोग मिला।

Last Updated- June 25, 2024 | 10:00 PM IST
Passing major reforms may prove difficult for the next coalition govt, say Fitch, Moody’s सुधार लागू करने में जूझेगी भाजपा की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार: Fitch, Moody’s

ठीक 30 वर्ष पहले मैंने कहा था कि रिलायंस इंडस्ट्रीज एक कंपनी नहीं बल्कि यह दो कंपनियों का समूह है। एक कंपनी ने विनिर्माण संयंत्र एवं उत्पाद बेचने पर ध्यान केंद्रित किया तो दूसरी ने पूंजी जुटाने एवं अपने आंतरिक संसाधनों से ‘समूह’ के प्रबंधन पर ध्यान दिया। ये दोनों ही इकाइयां एक दूसरे का सहयोग करती थीं। नरेंद्र मोदी के साथ भी यही बात लागू होती है क्योंकि उनके दो रूप हैं।

मोदी का एक रूप प्रधानमंत्री कार्यालय से देश का प्रशासन चलाता है तो दूसरा जीवन से भी अपनी बड़ी छवि अपनाकर राजनीतिक अभियानों के माध्यम से वोट बटोरने में निरंतर जुटा रहता है। पिछले दस वर्षों तक यह रणनीति कारगर रही।

एक राजनीतिज्ञ के रूप में मोदी ने हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और जन कल्याणवाद के नाम पर अधिकांश चुनावों में विजय पताका फहरा दिया। इस अभियान में उनकी पार्टी का भी उन्हें पूरा सहयोग मिला।

मोदी के कार्यकाल में ब्याज दरें औसत स्तर पर रहीं, राजकोषीय घाटा नियंत्रण में था, अप्रत्यक्ष कर एवं शुल्कों में भारी बढ़ोतरी हुई और भारी भरकम आधारभूत परियोजनाएं शुरू करने पर राजस्व का एक बड़ा हिस्सा खर्च किया गया।

शेयर बाजार भी सरकार के कदमों के साथ ताल मिलाता रहा और शहरों में रहने वाले तथाकथित संभ्रांत लोग मोदी के हरेक नारों एवं विचारों को बिना किसी झिझक के स्वीकार करते रहे। इन लोगों को इससे भी फर्क नहीं पड़ा कि मोदी ने कितनी ही बार मुख्य मुद्दे ही बदल दिए और पुराने नारों की जगह नए नारों में लोगों का ध्यान भटकाते रहे।

इन लोगों को पूरा विश्वास था कि 2024 के आम चुनाव में मोदी भारी जीत दर्ज करने जा रहे हैं। मगर चुनाव के नतीजे अधिकांश लोगों के लिए चौंकाने वाले थे और यह भी साबित हो गया कि पिछले 10 वर्ष अपवाद थे और जो हो रहा था उसका सिलसिला जारी नहीं रह सकता।

पिछले 25 वर्षों का नियम-गठबंधन राजनीति-फिर केंद्र में लौट आया है। इस लोकसभा चुनाव से पहले राजनीति अहमियत नहीं रखती थी। यह मान लिया गया था कि मोदी की लोकप्रियता ने यह प्रश्न ही नकार दिया है कि देश की बागडोर कौन संभालेगा। राजनीति एक बार फिर राजनीतिक अर्थव्यवस्था में प्रवेश कर गई है।

नरसिंह राव सरकार से लेकर जनता दल के साथ हुए प्रयोग और बाद में भारतीय जनता पार्टी (BJP) और फिर 2014 तक कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकारों के साथ भी यही बात दिखी। क्या गठबंधन राजनीति अर्थव्यवस्था के लिए बाधा है? क्या कथित तौर पर स्वेच्छाचारी मोदी गठबंधन सरकार चला सकते हैं? इन प्रश्नों के पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ मजबूत तर्क मौजूद हैं।

परंतु, इनका कोई सीधा उत्तर हम नहीं जानते हैं। हां, इतना जरूर जानते हैं कि उन प्रश्नों के उत्तर अधिक महत्त्वपूर्ण है। मतदाताओं ने साफ संकेत दिए हैं कि हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और जन कल्याणवाद वोट बटोरने के औजार नहीं रह गए हैं। हिंदुत्व और राष्ट्रवाद किसी के लिए दो वक्त की रोटी का प्रबंध नहीं कर सकते। जन कल्याणवाद न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

मगर इंस्टाग्राम, फेसबुक और मनोरंजन धारावाहिक देख कर महत्त्वाकांक्षी जीवन-शैली का आदी हो चुका कौन सा मतदाता इस न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति भर होने से संतुष्ट हो सकता है?

ऐसा प्रतीत होता है कि मीम, लोगों का ध्यान खींचने वाले वाक्यांश, अनुप्रास वाले शब्द गढ़ना, चतुराई वाले संक्षेप अक्षर, योजनाएं और ‘अच्छे दिन’, ‘अमृत काल’ और ‘विकसित भारत’ जैसे नारों के दिन अब लद गए हैं। लोग इनसे अब प्रभावित नहीं हो रहे हैं क्योंकि केवल इनसे उनका काम चलने वाला नहीं है, उनकी ख्वाहिशें कहीं अधिक हैं।

किसान कृषि उत्पादों का अधिक मूल्य चाहते हैं, युवा रोजगार चाहते हैं, एक मां अपने बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा चाहती है और श्रमिक अपने काम का अधिक पारिश्रमिक चाहते हैं। क्या कोई राजनीतिक दल या गठबंधन ये मांगें पूरी कर सकता है?

जब मोदी वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री बने थे उन्होंने वादों की झड़ी लगा दी थी। उनमें एक वादा यह भी किया गया था कि किसानों को उनकी उत्पादन लागत के आधे से अधिक हिस्से के बराबर तक मुनाफा प्राप्त होगा।

वर्ष 2016 में उन्होंने इससे भी बढ़कर एक बात कह दी। मोदी ने कहा कि छह वर्षों में किसानों की आय दोगुना हो जाएगी। ये वादे न केवल खोखले निकले बल्कि उन्होंने आनन-फानन में संसद में तीन कृषि विधेयक पारित कराने का भी प्रयास किया। किसान इससे आग बबूला हो गए मगर सरकार ने सख्त रुख अपनाया और किसानों को रोकने के लिए सड़कों पर गड्ढे खोदने से लेकर तमाम रुकावटें तैनात कर दीं।

स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी सेवाएं दोगुना खर्चीली हो गई हैं जिनसे हरेक व्यक्ति प्रभावित हो रहा है। मगर आधिकारिक मुद्रास्फीति दर 5 प्रतिशत से भी कम है। ग्रामीण क्षेत्रों में आय नहीं बढ़ रही है। उच्च मध्य वर्ग इस हकीकत से वाकिफ नहीं है क्योंकि मुख्यधारा के समाचार माध्यमों (मीडिया) को जमीनी सच्चाई नहीं दिखाने या सुनाने के परोक्ष निर्देश मिले हुए हैं।

अब शहरों में रहने वाले उच्च मध्य वर्ग के लोगों को अचानक यह चिंता सताने लगी है कि अगर पिछड़े एवं बुनियादी सुख-सुविधाओं से वंचित लोग प्रति महीने 5 किलोग्राम राशन से संतुष्ट नहीं होगे तो फिर क्या हाल होगा?

इसका एकमात्र समाधान है बुनियादी बदलाव क्योंकि मीम, जन कल्याणवाद जैसे नारों के जाल में लोग नहीं फंसना चाहते हैं। बदलाव लाने के प्रयास के हिस्से के तौर पर निजी क्षेत्र को मजबूत बनाना होगा। निजी क्षेत्र ही दीर्घ अवधि तक लगातार रोजगार सृजन जारी रख सकता है।

यह पढ़ने या सुनने में अटपटा जरूर लगेगा मगर मोदी को अन्य क्रियाकलापों से अलग रोजगार देने वाले क्षेत्रों एवं व्यवसायों का ‘ध्यान’ करना चाहिए। जब दस वर्ष पूर्व मोदी आए थे तो ऐसी उम्मीद जगी थी कि वह कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार में पनपे सांठगांठ वाली पूंजीवादी व्यवस्था और भ्रष्टाचार का खात्मा करेंगे और एक नियम आधारित सरकार चलाएंगे जो कर में कटौती करेगी और अफसरशाही पर लगाम लगाएगी। यह भी आशा जगी थी देश में उद्यमशीलता को बढ़ावा देगी। मगर ठीक इनका उल्टा हो रहा है।

सुगमता एवं स्वतंत्रता के साथ कारोबार करने की इजाजत नहीं है, कर वसूली चरम पर है, राज्य एवं जिला स्तरों पर भ्रष्टाचार बढ़ गया है, तेल के दाम जमकर जेब हल्की कर रहे हैं और लगातार बढ़ती अफसरशाही ने उद्यम प्रणाली को निचोड़ कर रख दिया है।

देश में 100 स्मार्ट सिटी तैयार करने की दिशा में काफी कम प्रगति हुई है। वहीं, मौजूदा शहरों का ढांचा अस्त-व्यस्त लग रहा है जिससे लोगों की उत्पादकता और कारोबारी तंत्र पर प्रतिकूल असर हुआ है।

राजनीति दांव-पेच का बोलबाला बढ़ने और अर्थव्यवस्था को लेकर गंभीरता के बीच क्या किसी को लगता है कि आर्थिक संपन्नता बतलाने वाले संकेतक सुधरेंगे? या फिर मध्यम वर्ग पूर्व की तरह ही स्वर्णिम भविष्य की कल्पना त्याग कर परिस्थितियों से पहले की तरह ही जूझते रहेंगे?

(लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक हैं)

First Published - June 25, 2024 | 9:35 PM IST

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