यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को एक साल से अधिक समय हो चुका है। दोनों देशों के बीच चल रहे युद्ध के दौरान भारत सरकार ने स्वयं को तटस्थ दिखाने का प्रयास किया है और ऐसा लगता है कि यह तटस्थता बढ़ती ही जा रही है। यह तटस्थता रूस की तरफ भारत सरकार के झुकाव का एक नया मंत्र हो सकता है।
भारत ने भले ही स्वयं को तटस्थ दिखाने की कोशिश की है मगर यह किसी से छुपा नहीं है कि रूस के वरिष्ठ मंत्रियों का भारत में नियमित स्वागत हो रहा है। यूक्रेन के प्रतिनिधियों के साथ ऐसा व्यवहार कदाचित ही देखने को मिला है।
भारत के इस रुख के कई कारण गिनाए जा सकते हैं। सरकार के प्रवक्ताओं से लेकर कभी न कभी पूर्ववर्ती सोवियत संघ से भावनात्मक लगाव रखने वाले लोग इन्हें उपयुक्त एवं वाजिब ठहराते हैं। इनमें से कुछ कारण निम्नलिखित हैं:
गंभीर पाठक और तथ्यों की गुणवत्ता परखने वाले लोग इस बात पर गौर करेंगे कि ऊपर दिए गए शुरू के पांच और अंतिम दो कारणों में बुनियादी अंतर है। इसमें शायद ही किसी को कोई आपत्ति होगी कि पहले पांच कारण भावनात्मक हैं और भारत में कई लोग इनकी तरफदारी कर सकते हैं।
इनमें कुछ कारण वास्तविकता से दूर हैं और दूसरे बदली परिस्थितियों से मेल नहीं खाते हैं, इसलिए महत्त्वहीन हो चुके हैं। हालांकि भारत में कई लोग इन कारणों को रूस के संदर्भ में सही ठहरा सकते हैं।
अंतिम दो कारण काफी दिलचस्प हैं। ये वर्तमान वास्तविकताओं की बात करते हैं इसलिए इन पर पूर्व की तुलना में अधिक गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। सबसे पहले प्रश्न यह है कि रूस के साथ नजदीकी द्विपक्षीय संबंध बनाए रखने से भारत को क्या लाभ मिल रहे हैं?
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एक बात निर्विवाद है कि पिछले एक वर्ष के दौरान भारत ने तेल खरीदारी काफी बढ़ा दी है। रूस ने भारत में होने वाले कच्चे तेल के आयात में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा दी है। कुछ दिनों पहले ही पिछले वित्त वर्ष के लिए प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार भारत के व्यापारिक साझेदारों की सूची में रूस कई पायदान ऊपर आ चुका है।
हालांकि यहां एक प्रश्न पूछा जा सकता है और पूछा जाना चाहिए भी। रूस से तेल आयात पर हमें जो रियायत मिल रही है उसका डॉलर में कितना मूल्य है? इस रियायत का कितना हिस्सा अंततः सरकार के बहीखाते में जमा हुआ है या कम कीमतों की बदौलत उपभोक्ताओं को कितना लाभ हुआ है?
रूस से आयातित तेल की एक बड़ी मात्रा परिष्कृत होकर दोबारा निर्यात की जाती है। अगर इसे समायोजित किया जाए तो फिर क्या बच जाता है? रूस की तरफ झुकाव के लिए सस्ते तेल के तर्क को वाजिब ठहराने की सरकार की नीति को देखते हुए सरकार को इन आंकड़ों को सार्वजनिक करना चाहिए।
यह प्रश्न पूछना भी वाजिब है कि क्या कालांतर में दोनों देश के बीच ऊर्जा के क्षेत्र में यह साझेदारी टिकाऊ हो सकती है। जब वर्तमान पाबंदी हटाई जाएगी तो उस परिस्थिति में इसका आर्थिक औचित्य क्या रह जाएगा? और जब कभी चीन रूस के जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बढ़ाने के लिए आवश्यक ढांचा खड़ा करेगा तो उस स्थिति में क्या भारत खासकर संकट की स्थिति में रूस से होने वाली आपूर्ति पर निर्भर रह पाएगा?
रूस से हथियारों का मामला थोड़ा अधिक पेचीदा है। कुछ स्वतंत्र विश्लेषणों के अनुसार भारत के हथियारों के जखीरे में रूस में बने हथियारों का हिस्सा 80 प्रतिशत से अधिक है। मगर भविष्य में क्या होगा? इस बात को लेकर तनिक ही या ना के बराबर संदेह है कि रूस में सैन्य-औद्योगिक परिसर आने वाले कई वर्षों तक अपने घरेलू हथियारों के जखीरे में पुराने की जगह नए हथियार जमा करने में व्यस्त रहेंगे। अगर अतीत में रूस ने भारत का साथ दिया भी तो भी क्या भविष्य में उसे भारत का विश्वसनीय सहयोगी माना जा सकता है?
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भारतीय सैन्य प्रतिष्ठानों में कुछ लोगों ने तो परोक्ष रूप से रूस से मिलने वाले हथियारों की गुणवत्ता को लेकर चिंता जताई है। यूक्रेन में रूस की सेना के प्रदर्शन के बाद ऐसी चिंताएं लाजमी है। इनमें कुछ चिंताएं अनुचित हो सकती हैं। आखिरकार तोप एवं अन्य अस्त्र शस्त्र उतने ही प्रभावी होंगे जिस अनुपात में उन्हें चलाने वाले लोगों के पास प्रशिक्षण एवं इस्तेमाल करने का अनुभव होगा।
हम देख चुके हैं कि यूक्रेन में हमले के शुरुआती महीनों में ही रूस के सबसे अनुभवी सैन्य कमांडर हताहत हो गए थे। सीमित रक्षा बजट, घरेलू स्तर पर हथियारों के प्रदर्शन की सीमित क्षमता और पेचीदा भू-राजनीतिक परिस्थितियों में भारत अपनी सेना की आवश्यकता कैसे पूरी करेगा इससे जुड़े कई सवाल इस स्तंभ के दायरे के बाहर हैं। मगर इस बात की संभावना नजर नहीं आ रही है कि आने वाले दशकों में रूस भारत की सैन्य तैयारी के केंद्र में रह सकता है या रहेगा।
सुरक्षा परिषद में जहां तक रूस के समर्थन की बात है तो रूस चीन का जितनी करीब होगा उतनी ही इसके समर्थन का विश्वसनीयता कम होती जाएगी। शीत युद्ध में गुट निरपेक्षवाद इसलिए काम कर गया कि भारत रूस या अमेरिका में किसी के भी सीधे निशाने पर नहीं था।
इक्कीसवीं शताब्दी में अमेरिका और चीन के बीच शीत युद्ध में गुट-निरपेक्ष रहना काफी मुश्किल हो जाएगा, खासकर तब जब भारत चीन को अपना प्रतिद्वंद्वी मानता है। यह भी स्पष्ट है कि नए शीत युद्ध में रूस गुट-निरपेक्ष नहीं रह गया है, ऐसे में क्या वह उस देश के लिए विश्वसनीय सहयोगी रह पाएगा जो किसी खेमे में दिखने से बचना चाहता है?
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अंतिम बिंदु पर गौर करें तो यह चिंता वाजिब है कि भारत यह नहीं मान सकता या इससे मानना चाहिए कि संकट के समय में पश्चिमी देश इसकी सहयता के लिए आगे आएंगे। हालांकि मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूं- क्या यह मानना सही है कि पश्चिमी देश भारत की सहायता के लिए आगे नहीं आएंगे? अगर ऐसा है भी तो क्या हमें पश्चिमी देशों से दूरी बना लेनी चाहिए, खासकर तब जब अलंकारिक समर्थन ऐसी दूरी से बचाने में बड़ी भूमिका निभाएंगे?
इन तमाम बिंदुओं का निचोड़ निकाला जाए तो ये प्रश्न इस ओर इशारा करते हैं कि रूस की तरफ भारत का झुकाव भारत के राष्ट्रीय हित में नहीं रह सकता है। यह अलग बात है कि सरकार कहती रहती है कि हम उसके साथ नजदीकी संबंध रखना भारत के सर्वदा हित में है। फिलहाल तटस्थ रहने के कुछ अच्छे कारण हो सकते हैं।
उदाहरण के लिए मैं मानता हूं कि इस वर्ष के अंत में होने वाले G-20 सम्मेलन में सदस्य देशों के बीच उठापटक की आशंका कम से कम करने के लिए भारत को सभी प्रयास करने चाहिए।
कम से कम हमें निर्विवाद रूप से यह स्वीकार नहीं करना चाहिए कि किसी देश की संप्रभुता के खुलेआम उल्लंघन पर हमें केवल इसलिए किसी एक देश का पक्ष लेना चाहिए क्योंकि ऐसा करना हमारे राष्ट्रीय हित में है। ऐसा खास तौर पर तब नहीं किया जाना चाहिए जब बदलती परिस्थितियों में राष्ट्रीय हित पर गहराई पर विचार करने पर निष्कर्ष हमें किसी अन्य दिशा की ओर ले जाते हैं।
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में निदेशक, सेंटर फॉर इकॉनमी ऐंड ग्रोथ हैं)